यह लेख अजीत मिश्रा जी द्वारा लिखा गया है, जो एक राष्ट्रवादी चिंतक और कई पुस्तकों के लेखक हैं। अजीत मिश्रा ने भारतीय भाषा, संस्कृति और राष्ट्रवाद पर कई महत्वपूर्ण किताबें लिखी हैं। उनका दृष्टिकोण सदैव भारतीय भाषाओं को सम्मान देने और उन्हें विकास का माध्यम बनाने पर केंद्रित रहा है। हिंदी भाषा और संस्कृति के उत्थान के प्रति उनके विचार गहरे और सटीक हैं, और वह निरंतर हिंदी को वैश्विक स्तर पर एक सशक्त भाषा के रूप में स्थापित करने के लिए प्रयासरत हैं।
हिंदी भाषा भारतीय संस्कृति और समाज का अभिन्न अंग है। यह भाषा न केवल भारत के एक बड़े हिस्से में बोली जाती है, बल्कि यह हमारी पहचान और स्वाभिमान का प्रतीक भी है। हिंदी का उद्भव, विकास, पतन और वर्तमान स्थिति पर एक व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए यह लेख न केवल भाषा के ऐतिहासिक महत्व पर प्रकाश डालेगा, बल्कि इसके पतन के कारणों और वर्तमान चुनौतियों को भी विस्तार से समझाने का प्रयास करेगा। साथ ही, उन विदेशी सोच से प्रभावित लोगों पर भी चर्चा की जाएगी जो आज भी हिंदी के विकास में बाधा डालने का काम कर रहे हैं।
हिंदी का प्रारंभिक उद्भव और इतिहास
हिंदी का उद्भव संस्कृत भाषा से माना जाता है। वैदिक संस्कृत, जिसे भारत की सबसे प्राचीन भाषाओं में से एक माना जाता है, के विकास के साथ ही प्राकृत और अपभ्रंश भाषाएँ अस्तित्व में आईं। इन्हीं भाषाओं से हिंदी का जन्म हुआ। 10वीं से 11वीं शताब्दी के दौरान हिंदी का रूप धीरे-धीरे स्पष्ट होना शुरू हुआ, और 12वीं शताब्दी तक यह भाषा व्यापक रूप से साहित्यिक और लोक भाषा के रूप में उपयोग की जाने लगी।
हिंदी का सबसे प्राचीन रूप ‘अवधी’ और ‘ब्रज भाषा’ में देखा जा सकता हैं। कबीर, तुलसीदास, सूरदास और मीरा बाई जैसे महान संत कवियों ने हिंदी भाषा के शुरुआती साहित्यिक रूप को समृद्ध किया। इन कवियों ने हिंदी को एक सशक्त साहित्यिक पहचान दी और इसे जन-जन की भाषा बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
15वीं से 18वीं शताब्दी के बीच हिंदी का प्रचार-प्रसार और साहित्यिक विकास और भी प्रबल हुआ। मुगलकाल के दौरान भी हिंदी ने अपना प्रभाव बनाए रखा, जहां इसे दरबारों में भी आदर प्राप्त हुआ। इस दौर में हिंदी ने न केवल साहित्य में, बल्कि संवाद और लेखन के माध्यम के रूप में भी अपनी जगह बनाई।
अंग्रेजी शासन और हिंदी का पतन
18वीं शताब्दी के अंत में अंग्रेजों का भारत में आगमन और उपनिवेशी शासन स्थापित होने के साथ ही हिंदी भाषा के पतन की कहानी शुरू होती है। अंग्रेजों ने भारतीय समाज को अपनी भाषा और संस्कृति से जोड़ने का प्रयास किया, जिसमें भाषा एक प्रमुख साधन था। 19वीं शताब्दी में थॉमस मैकाले की शिक्षा नीति ने हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के लिए एक बड़ी चुनौती प्रस्तुत की।
1835 में थॉमस मैकाले ने “मिनट्स ऑन एजुकेशन” के तहत भारत में अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली की शुरुआत की। इस नीति का मुख्य उद्देश्य भारतीयों को अंग्रेजी सिखाना और उनकी सोच को अंग्रेजी मूल्यों के अनुरूप ढालना था। अंग्रेजों को ऐसा लगता था कि भारतीय समाज के उच्च वर्ग को अंग्रेजी सिखाकर उन्हें अपना अनुयायी बनाया जा सकता है। इस नीति के तहत हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को दरकिनार कर दिया गया और अंग्रेजी को शिक्षा, प्रशासन और न्यायालय की प्रमुख भाषा के रूप में स्थापित किया गया।
मैकाले की नीति ने भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव डाला। अंग्रेजी भाषा को शिक्षा और रोजगार के अवसरों के लिए आवश्यक मानते हुए, भारतीय समाज में धीरे-धीरे अंग्रेजी का प्रभुत्व बढ़ने लगा। हिंदी, जो एक समय तक भारत के विभिन्न हिस्सों में बोली जाने वाली मुख्य भाषा थी, अब धीरे-धीरे केवल आम जनता की भाषा बनकर रह गई। इसे ‘निम्न’ और ‘गाँवों की भाषा’ के रूप में देखा जाने लगा, जबकि अंग्रेजी को ‘श्रेष्ठ’ और ‘प्रबुद्ध’ भाषा के रूप में स्थापित किया गया।
विदेशी सोच से ग्रसित मानसिकता
अंग्रेजों द्वारा लागू की गई शिक्षा प्रणाली का प्रभाव इतना गहरा था कि स्वतंत्रता के बाद भी भारतीय समाज का एक बड़ा हिस्सा अंग्रेजी भाषा को श्रेष्ठ मानता रहा। भारत का दुर्भाग्य रहा की स्वतंत्रता के बाद अँग्रेजी भाषा के गुलाम शीर्ष पद पर रहे। आज भी हमारे समाज में ऐसे लोग हैं जो अंग्रेजी को आधुनिकता, विकास और प्रगति की भाषा मानते हैं। यह मानसिकता आज भी हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के विकास में बाधा डाल रही है।
यह कहना गलत नहीं होगा कि हमारी मानसिकता अब भी उस उपनिवेशी दौर से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाई है। विदेशी सोच से प्रभावित कई लोग आज भी हिंदी को ‘निचली’ और ‘अनुपयुक्त’ भाषा मानते हैं। ये लोग अंग्रेजी को विकास की भाषा मानते हुए हिंदी के खिलाफ कार्य कर रहे हैं। वे मानते हैं कि अगर किसी व्यक्ति को अंग्रेजी नहीं आती है, तो वह ‘पिछड़ा’ है, और अगर किसी को अंग्रेजी का ज्ञान है, तो वह ‘सर्वज्ञानी’ है। इस प्रकार की सोच भारतीय समाज में विभाजन और भ्रम पैदा कर रही है।
हिंदी और अंग्रेजी: एक संतुलन की आवश्यकता
यह समझना महत्वपूर्ण है कि भाषा ज्ञान का मापदंड नहीं होती। कोई भी व्यक्ति चाहे वह हिंदी बोले या अंग्रेजी, उसकी क्षमताओं और ज्ञान का आकलन उसकी भाषा के आधार पर नहीं किया जा सकता। भाषा केवल संवाद का माध्यम है, और इसका उद्देश्य विचारों और ज्ञान का आदान-प्रदान करना होता है।
आज, रूस, फ्रांस, जापान, चीन जैसे कई देशों ने यह सिद्ध कर दिया है कि विकास और वैश्विकता के लिए अंग्रेजी की आवश्यकता नहीं है। इन देशों ने अपनी मातृभाषाओं का उपयोग करके विज्ञान, प्रौद्योगिकी, और अर्थव्यवस्था में अद्वितीय प्रगति की है।
रूस और चीन की बात करें तो, इन देशों ने अपनी शिक्षा और शोध के लिए अंग्रेजी पर निर्भरता नहीं दिखाई। रूस ने विज्ञान और अंतरिक्ष के क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल की हैं, और यह सब उन्होंने रूसी भाषा में ही किया। उनके शोध और अनुसंधान रूसी भाषा में होते हैं, और आज वे विज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी माने जाते हैं। इसी प्रकार, चीन ने भी अपनी भाषा “मैंडरिन” को प्राथमिकता दी है। चीन की अर्थव्यवस्था आज विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, और इसमें अंग्रेजी भाषा की कोई बड़ी भूमिका नहीं है। चीनी वैज्ञानिक और उद्योगपति अपनी भाषा में ही शोध और नवाचार करते हैं।
फ्रांस भी अपनी भाषा ‘फ्रेंच’ को अत्यधिक महत्व देता है। यहां तक कि वैश्विक स्तर पर भी फ्रांस ने अपनी भाषा को प्राथमिकता दी है। फ्रांस की शिक्षा प्रणाली, विज्ञान, और साहित्य में फ्रेंच भाषा का ही वर्चस्व है। यह देश हमेशा से अपनी भाषा और संस्कृति को संरक्षित करने के लिए दृढ़ रहा है।
इन सभी देशों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि किसी भी देश के विकास के लिए अंग्रेजी का अनिवार्य होना जरूरी नहीं है। वे अपनी भाषाओं में ही शोध, अनुसंधान और नवाचार कर रहे हैं, और वैश्विक स्तर पर अपनी उपस्थिति मजबूत बना रहे हैं।
हिंदी के प्रति वर्तमान चुनौतियाँ और पुनरुत्थान
आज के दौर में, जहां एक ओर तकनीकी प्रगति और वैश्विकता का युग है, वहीं दूसरी ओर हिंदी जैसी भाषाओं के सामने कई चुनौतियाँ खड़ी हैं। इनमें से सबसे बड़ी चुनौती अंग्रेजी का प्रभुत्व है। शिक्षा से लेकर व्यवसाय तक, हर क्षेत्र में अंग्रेजी को प्राथमिकता दी जाती है। हिंदी, जो एक समय तक भारतीय समाज की रीढ़ मानी जाती थी, अब केवल सामान्य संवाद की भाषा बनकर रह गई है।
यह चिंता का विषय है कि हमारे देश में कई महत्वपूर्ण कार्य और निर्णय अंग्रेजी में ही होते हैं। उच्च शिक्षा संस्थान, न्यायालय, और सरकारी कार्यालयों में अंग्रेजी का प्रभुत्व है। यहां तक कि कई लोग हिंदी को “गाँवों की भाषा” और अंग्रेजी को “शहरी और उच्च वर्ग की भाषा” मानते हैं। यह विभाजन हमारी मानसिकता और सोच में गहराई से बैठा हुआ है।
हिंदी के पुनरुत्थान के लिए यह आवश्यक है कि हम अपनी सोच में बदलाव लाएँ। हमें यह समझना होगा कि हिंदी केवल एक भाषा नहीं है, यह हमारी संस्कृति, इतिहास और पहचान का प्रतीक है। हमें हिंदी को गर्व और सम्मान के साथ अपनाना होगा।
इसके लिए सबसे पहले शिक्षा प्रणाली में बदलाव की आवश्यकता है। प्राथमिक और उच्च शिक्षा में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं का समुचित उपयोग होना चाहिए। इसके साथ ही, तकनीकी और वैज्ञानिक क्षेत्रों में हिंदी का प्रयोग बढ़ाया जाना चाहिए। सरकार और समाज दोनों को मिलकर हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयास करने होंगे। हमें हिंदी को केवल एक ‘बोलचाल की भाषा’ से उठाकर उसे ‘ज्ञान और विज्ञान की भाषा’ बनाना होगा।
हिंदी का इतिहास गौरवपूर्ण रहा है, लेकिन इसके पतन की कहानी भी उतनी ही पीड़ादायक है। विदेशी शासन और मैकाले की शिक्षा नीति ने हिंदी को पीछे धकेल दिया, और आज भी अंग्रेजी के प्रभाव से यह संघर्ष कर रही है। लेकिन यह कहना भी आवश्यक है कि हिंदी के पुनरुत्थान के लिए अब हमें स्वयं जागरूक होना होगा।