सम्राट कृष्णदेव राय का दरबार लगा हुआ था। अचानक चतुराई की चर्चा चल निकली। मन्त्री ने कहा – “महाराज, आपके दरबार में चतुरों की कमी नहीं। यदि अवसर दिए जाए, तो यह बात सिद्ध हो सकती है।”
सेनापति बोला -“मगर अन्नदाता, तेनालीराम के सामने | किसी को अपनी चतुराई सिद्ध करने का अवसर ही नहीं मिलता। हर बार तेनालीराम बीच में कूद पड़ता है।”
सम्राट गम्भीर हो गए। दरबार के कोने में सुगन्धित धूपबत्ती जल रही थी। उससे उठते धुएँ की ओर संकेत करते हुए कहा- “मुझे इस धूपबत्ती का दो हाथ धुआँ चाहिए। जो देपाएगा उसे तेनालीराम से भी चतुर समझूंगा।”
सम्राट का प्रश्न सुनकर सारे दरबारी हतप्रभ रह गए। धुऑ कैसे नापा जाए- किसी की अक्ल में न आया। कई दरबारियों ने हाथ से धुआँ नापने की कोशिश की, किन्तु टेढ़ी-मेढ़ी गति से उठता धुआँ एक हाथ ऊपर जाते ही हवा में गायब हो जाता था। शाम तक कोई भी दरबारी धुआँ न नाप सका, तो सम्राट कृष्णदेव राय मुस्कुराने लगे। दरबारियों ने कहा- “अन्नदाता, यदि यह काम तेनालीराम कर सके, तो हम सब इसे अपने से चतुर मान लेंगे। यदि नापकर आपको न दे सका, तो उसे भी हम सबके बराबर समझा जाए।”
सम्राट कृष्णदेव राय ने तेनालीराम की ओर देखा। पूछा- “क्यों तेनालीराम, तुम्हें दरबारियों की यह शर्त स्वीकार है?”
“कोशिश करता हूँ अन्नदाता।” तेनालीराम उठते हुए बोला- “सदा ही आपके आदेश का पालन करता हूँ, तो इस बार भी करूँगा।” सेवक को बुलाकर तेनालीराम ने उसके कान में कुछ कहा। सारे दरबार में सन्नाटा छाया था। सभी उत्सक थे कि देखें, आज तेनालीरामं क्या करिश्मा करता है।
तभी सेवक शीशे की दो हाथ लम्बी एक नली लेकर आया। तेनालीराम ने उससे नली ली। उसका मुँह सुगन्धित धूपबत्ती से उठते धुएँ पर रख दिया। धुआँ, नली में भरने लगा। कुछ ही देर में पूरी नली धुएँ से भर गई।
तेनालीराम ने उसका मुंह कार्क से बन्द कर दिया। फिर उसे सम्राट कृष्णदेव राय को देते हुए बोला- लीजिए अन्नदाता ठीक दो हाथ धुआँ आपको समर्पित है।”
सम्राट जोर से हँस पड़े । गले से मणि-माला उतारकरतेनालीराम को देते हुए, बोले- “तुम सचमुच सबसे चतुर हो तेनालीराम।” दरबारियों के चेहरे शर्म से झुक गए।