प्राचीन भारत में धार्मिक आंदोलन, नवीन धार्मिक आंदलनों का स्वरूप, धार्मिक आंदोलन के नाम, राजस्थान में धार्मिक आंदोलन के जनक,

प्राचीन भारत में धार्मिक आंदोलन | नवीन धार्मिक आंदोलनों का उदय

प्राचीन भारत में धार्मिक आंदोलन

ई.पू. छठी शताब्दी (600 B.C.) धार्मिक आन्दोलनों की शताब्दी मानी गयी है। उस समय विश्व में विभिन्न स्थानों पर नवीन धार्मिक विचारों का सूत्रपात हुआ। ईओनिया (Eoinia Island) में हेराक्लिटस (Heraclitus) ने, ईरान (Persia) में जोरास्टर (Zoraster) ने और चीन में कनफ्यूसियस (Confucius) ने नवीन धार्मिक विचारों का प्रचार किया। भारत भी इन युगान्तरकारी प्रभावों से मुक्त न रहा और यहाँ पर उन धार्मिक आन्दोलनों का सूत्रपात हुआ जिन्होंने भारत में उन प्रमुख धर्मों को जन्म दिया जो आगे आने वाली शताब्दियों में भारत में नहीं अपितु विदेशों में भी प्रभावपूर्ण हुए।

उस समय तक यज्ञ और बलि पर आधारित प्राचीन वैदिक धर्म अपने प्रभाव को खो चुका था। जनसाधारण न उसे समझ सकता था, न उसमें रुचि ले पाता था और न उसके व्यय भार को उठा पाता था। ब्राह्मणों की श्रेष्ठता और शूद्रों की हीन स्थिति पर आधारित सामाजिक व्यवस्था भी क्षोभ और आक्रोश का कारण बन गयी तथा क्षत्रियों ने धर्म के क्षेत्र में ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को चुनौती दी। क्षत्रीय ही शस्त्र-धारण के अधिकारी थे। वे ही राज्य में शान्ति- व्यवस्था, कृषि तथा व्यापार की रक्षा में संलग्न थे। कृषि और व्यापार की उन्नति ने उनके महत्व को समाज में स्पष्ट किया। इस कारण, ब्राह्मणों से सामाजिक श्रेष्ठता में प्रतिस्पर्धा करना उनके लिए स्वाभाविक हो गया। इस प्रकार, तत्कालीन धार्मिक और सामाजिक स्थिति के प्रति असन्तोष, जीवन के दुखों और उनके कारणों का गम्भीरता से मनन और इन दुखों से मुक्ति प्राप्त करने वाले मार्ग तथा एक सत्य की खोज की तीव्र लालसा उस युग की एक विशेषता बन गयी। साथ ही, बदलती हुई आर्थिक परिस्थितियों, लोहे के अधिकाधिक प्रयोग, कृषि और व्यापार में उन्नति, नगरीय जीवन में प्रगति, व्यवसायों, मजदूरों और कारीगरों की संख्या में वृद्धि आदि ने जिनसे सामाजिक जीवन गम्भीरता से प्रभावित हुआ, निस्सन्देह, धार्मिक और आध्यात्मिक चिन्तन को बढ़ावा दिया।

इन सभी कारणों से ई.पू. छठी शताब्दी (600 B.C.) के अन्तिम समय में तथा ई.पू. पांचवीं शताब्दी (500 B.C.) में विभिन्न धार्मिक आन्दोलनों का जन्म हुआ।

मानसिक चिन्तन के आधार पर विचारों की स्वतन्त्रता और सत्य की खोज के प्रति आकर्षण उपनिषदों ने हो आरम्भ किया था। उपनिषदों ने ज्ञान-मार्ग का प्रतिपादन किया। आत्मा है अथवा नहीं, यदि है तो उसकी प्रकृति क्या है, मृत्यु के पश्चात् मनुष्य के लिए क्या है, मनुष्य के लिए श्रेष्ठ स्थिति क्या है, आदि प्रश्न उपनिषदों द्वारा उठाये गये और उनके उत्तर भी दिये गये। उपनिषदों ने मोक्ष प्राप्ति अथवा जीवन-मरण की क्रियाओं से मुक्ति पाकर परम ब्रह्म या परमात्मा में लीन हो जाना मनुष्य के लिए श्रेष्ठ स्थिति बताया और उसे प्राप्त करना ज्ञान के द्वारा सम्भव बताया। उपनिषदों के अनुसार सत्कर्म, यज्ञ, बलि, आदि मनुष्य को भविष्य में श्रेष्ठ जीवन तो प्रदान कर सकते हैं परन्तु मोक्ष प्राप्ति में सहायक नहीं हैं। इस प्रकार, अप्रत्यक्षतः, वैदिक धर्म की मुख्य विशेषता यज्ञ और उसमें दी जाने वाली मनुष्य और पशु बलि पर सर्वप्रथम आक्रमण उपनिषदों ने ही आरम्भ किया था। वैसे भी ‘शतपथ ब्राह्मण’ के रचना- काल तक वैदिक धर्म में मनुष्य-बलि बहुत कम मात्रा में प्रयोग की जाने लगी थी, परन्तु पशु- बलि में कोई कमी नहीं थी। इस प्रकार, उपनिषदों ने मूलतया पशु बलि की उपयोगिता को ही नकारा था। इस प्रकार स्वयं उपनिषदों ने वैदिक-धर्म की मूल मान्यताओं को नकार कर विचारों को स्वतन्त्रता पर बल दिया और धर्म में विभिन्न चिन्तनों के लिए मार्ग प्रशस्त किया।

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प्राचीन भारत में धार्मिक आंदोलन का स्वरूप

ब्राह्मण ग्रंथों तथा उपनिषदों से ज्ञात होता है कि वैदिक मंत्र देववाक्य माने जाते थे। उन्हें कोई परिवर्तित नहीं कर सकता था। लोगों में यह विश्वास प्रचलित था कि किसी यज्ञ या अनुष्ठान में मंत्रोच्चार में थोड़ी त्रुटि होने पर भयंकर परिणाम होंगे। ऐसे सांस्कृतिक परिवेश में यह स्वाभाविक ही है कि पुरोहितों का अत्यधिक महत्व होता किन्तु उनकी धन-लोलुपता समाज के लिए कष्टकारक होने लगी और साथ ही यज्ञ तथा कर्मकांड भी नीरस, जटिल तथा बाहरी आडंबर भर बनकर रह गए। राजसूय तथा अश्वमेध, आदि अनेक जटिल तथा दीर्घकालिक यज्ञों में पशुवध तथा पुरोहितों को दी जाने वाली बहुमूल्य दक्षिणा के कारण धन तथा पशु की हानि हो रही थी। हालांकि इन यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले शासक वर्ग तथा धनाढ्य लोगों में विश्वास था कि यज्ञ तथा कर्मकांड से ही स्वर्ग की प्राप्ति संभव है। यज्ञ स्वर्ग ले जाने वाली नौका के समान है। उसी से भौतिक तथा आध्यात्मिक लाभ हो सकता है। यहाँ तक कि संपूर्ण ब्रह्मांड की उत्पत्ति में यज्ञ ही मूल कारण माना जाने लगा जिसे प्रजापति ने संपन्न किया था। शतपथ ब्राह्मण में वैदिक यज्ञ-विधान का उत्तर-पूर्वी भारत की ओर प्रसार होने की चर्चा है। उपनिषदों से भी हमें ज्ञात होता है कि राजा जनक ने बड़े-बड़े वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान किया। किंतु इस क्षेत्र में यज्ञ मूलक वैदिक संस्कृति समाज में पूर्णरूप से स्वीकृत नहीं हो सकी। कर्मप्रधान वैदिक संस्कृति का प्रवृत्तिमार्गी धर्म, उपनिषद के ज्ञान-मार्ग तथा श्रवण परंपरा के निवृत्ति-मार्गी संन्यासप्रधान धर्म के विपरीत था। वैदिक संस्कृति में समाज का वर्गीकरण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र चार वर्णों में हो चुका था। वैदिक काल में तो कर्म के अनुसार वर्ण निर्धारित होता था किन्तु इस समय जन्म से ही वर्ण निश्चित होने लगा। समाज में ब्राह्मण तथा क्षत्रिय वर्णों की श्रेष्ठता स्थापित हो चुकी थी। अपने निर्धारित कर्मों से च्युत होने पर भी इन वर्णों के लोग समाज में सम्मान की अपेक्षा करते थे। वर्णव्यवस्था उत्तर-पूर्व भारत में भी प्रचलित थी। नई उत्पादन-प्रणाली के साथ वर्ण-व्यवस्था का भी प्रसार हुआ। जनजातीय वर्ग के जो लोग नवीन उत्पादन प्रणाली में सम्मिलित होते थे वे धीरे-धीरे अपनी हैसियत तथा क्षमता के अनुरूप किसी-न-किसी वर्ण से सदस्य के रूप में सामाजिक दर्जा प्राप्त करते थे। नवीन उत्पादन प्रणाली के कारण जनसंख्या में काफी वृद्धि होने लगी और वर्ण के आधार पर सामाजिक वर्गीकरण की प्रक्रिया इस काल में और भी तेज हो गई। इस कारण भी समाज में वर्ण-सम्बन्धी अव्यवस्था फैल रही थी। दूसरे, क्षत्रिय वर्ग को ही शस्त्र-धारण का अधिकारी माना जाने लगा। इसी नए क्षत्रिय वर्ग पर एक प्रकार से राज्य की नींव टिकी हुई थी। वही प्रजा से कर वसूल करता था और कृषकों से उपज का अधिशेष भी। शासकों तथा नए क्षत्रिय वर्ग का अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के प्रति सजग होना स्वाभाविक था।

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इस काल में हुए धार्मिक आन्दोलनों में से दो आन्दोलन क्रान्तिकारी सिद्ध हुए जिन्होंने दो नवीन धर्मों-बौद्ध और जैन धर्म को जन्म दिया और इनमें से अन्य दो- भागवत् और शैव धर्म। सुधारवादी सिद्ध हुए जिन्होंने हिन्दू धर्म में महत्वपूर्ण परिवर्तन किये और उसके दो महत्वपूर्ण सम्प्रदाय बन गये।

धार्मिक आंदोलन के नाम

नए धार्मिक आंदोलन शुरू होने का कोई एक समय नहीं है। ये समय-समय पर शुरू होते रहे हैं। भारत में, नए धार्मिक आंदोलनों का इतिहास बहुत पुराना है। इनमें से कुछ प्रमुख आंदोलन हैं:-

  1. भक्ति आंदोलन (14वीं से 16वीं शताब्दी): इस आंदोलन ने हिंदू धर्म में एक नई सांस्कृतिक और धार्मिक चेतना का उदय किया। इस आंदोलन के प्रमुख संतों में कबीर, नानक, सूरदास, मीराबाई, चैतन्य महाप्रभु और तुलसीदास शामिल थे।
  2. आर्य समाज (19वीं शताब्दी): इस आंदोलन ने हिंदू धर्म में सुधार और पुनर्जागरण का प्रयास किया। इस आंदोलन के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती थे।
  3. स्वामी विवेकानंद (20वीं शताब्दी): स्वामी विवेकानंद एक महान आध्यात्मिक गुरु और विचारक थे। उन्होंने हिंदू धर्म के आदर्शों को दुनिया के सामने प्रस्तुत किया।
  4. रामकृष्ण मिशन (20वीं शताब्दी): रामकृष्ण मिशन एक हिंदू धार्मिक संगठन है। इस संगठन की स्थापना स्वामी विवेकानंद ने की थी।

राजस्थान में धार्मिक आंदोलन के जनक

राजस्थान में धार्मिक आंदोलन के जनक निम्नलिखित हैं:-

  1. स्वामी दयानंद सरस्वती (1824-1883): स्वामी दयानंद सरस्वती ने 1875 में आर्य समाज की स्थापना की। आर्य समाज एक हिंदू धार्मिक सुधार आंदोलन था। स्वामी दयानंद सरस्वती ने हिंदू धर्म में सुधार और पुनर्जागरण का प्रयास किया। उन्होंने मूर्ति पूजा, बाल विवाह, जाति प्रथा और अन्य कुप्रथाओं का विरोध किया।
  2. महात्मा हंसराज (1864-1938): महात्मा हंसराज ने 1885 में प्रार्थना समाज की स्थापना की। प्रार्थना समाज एक सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन था। महात्मा हंसराज ने शिक्षा, सामाजिक न्याय और महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में काम किया।
  3. महाराजा सवाई मानसिंह द्वितीय (1878-1922): महाराजा सवाई मानसिंह द्वितीय ने राजस्थान में कई सामाजिक और धार्मिक सुधारों को लागू किया। उन्होंने बाल विवाह, सती प्रथा और अन्य कुप्रथाओं का विरोध किया। उन्होंने शिक्षा और महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में भी काम किया।
  4. जयनारायण व्यास (1861-1943): जयनारायण व्यास ने राजस्थानी साहित्य और संस्कृति के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने राजस्थानी भाषा में कई धार्मिक और सामाजिक विषयों पर पुस्तकें लिखीं।
  5. भंवरलाल मेहता (1881-1968): भंवरलाल मेहता एक समाज सुधारक और शिक्षाविद थे। उन्होंने राजस्थान में शिक्षा और सामाजिक न्याय के क्षेत्र में काम किया।

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