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स्वदेशी व बहिष्कार आंदोलन के कारण और प्रभाव | Swadeshi Andolan Hindi Notes

भारत की स्वतंत्रता का स्वदेशी आंदोलन | Swadeshi Andolan

भारत की स्वतंत्रता के लिए जारी राष्ट्रीय आंदोलन में सन 19 06 एक महत्वपूर्ण साल रहा क्योंकि इसमें बहुत ही महत्वपूर्ण घटनाएं घटित हुई। लॉर्ड कर्जन के द्वारा बंगाल के बटवारा हो जाने के बाद वहां पर लगातार विरोध होने लगा और शांति का इस्तेमाल करते हुए लोगों ने कानून को भंग करना प्रारंभ कर दिया। इस घटना को भंग भंग के नाम से जाना जाता है। इसके साथ ही स्वतंत्रता सेनानी लोकमान तिलक अपने लेखन के द्वारा लोगों को विरोध के लिए आवाहन कर रहे थे उनके लेखों में इतना दम था कि लोग बिना किसी हथियार के शांति पूर्ण रुप से कानून का बहिष्कार कर रहे थे और बहिष्कार को हथियार मानकर ब्रिटिश शासन के विरोध में सड़कों में उतर आए थे। हजारों लाखों भारतीयों ने इस विरोध का अनुकरण किया। लेकिन गोपाल कृष्ण गोखले जो कि लंदन में थे वह लॉर्ड मार्ले के उदारवादी विचारों से बहुत ही ज्यादा प्रभावित थे। कोलकाता में 1906 में ही कांग्रेस का अधिवेशन हुआ इस अधिवेशन की अध्यक्षता दादाभाई नरोजी कर रहे थे। दादाभाई नरोजी ने पुराने और नए दोनों दल के लोगों को एक साथ उनका सहयोग मांगा और स्वदेशी राष्ट्रीय शिक्षा बहिष्कार और स्वराज संबंधी प्रस्ताव इस कोलकाता अधिवेशन में पारित कर दिया। दादाभाई नरोजी ने आने वाली नई पीढ़ियों को स्वदेशी आंदोलन को मजबूत करके और एकजुट होकर स्वराज प्राप्त करने के लिए आवाहन किया था। दादाभाई नरोजी ने भारत की आजादी के लिए कांग्रेस को एक नया आधार प्रदान किया जिसे लक्ष्मण कर कांग्रेश आगे की राष्ट्रीय आंदोलन की नीति को तैयार कर सकें। इस अधिवेशन के बाद कॉन्ग्रेस का लक्ष ब्रिटिश शासन के अंतर्गत ही स्वशासन या स्वराज प्राप्त करना था।

स्वदेशी आंदोलन | Swadeshi Andolan Hindi Notes

स्वदेशी आंदोलन कोलकाता में हुए कांग्रेस के अधिवेशन की अध्यक्षता दादाभाई नरोजी ने की और उनकी प्रेरणा से स्वदेशी आंदोलन से संबंधित प्रस्ताव को पारित किया गया। इस स्वदेशी आंदोलन के प्रस्ताव का लक्ष्य विदेश से आई हुई सामग्री का बहिष्कार करना था तथा भारत में ही निर्मित स्वदेशी वस्तुओं का प्रचार करना था। पूरे भारत में स्वदेशी आंदोलन देखते ही देखते फैल गया था। भारत के लोगों के मन में इस आंदोलन के द्वारा अभूतपूर्व राष्ट्रीयता की भावना जागृत हो गई थी। यही कारण है कि कांग्रेसका 1906 में हुआ कोलकाता अधिवेशन आधुनिक भारत में स्वदेशी आंदोलन के लिए सदैव याद किया जाता है। या अधिवेशन आगे चल के युग प्रवर्तक और हमेशा याद करने वाली घटनाओं में से एक माना जाने लगा है। इस आंदोलन के प्रचार प्रसार के लिए बाल गंगाधर तिलक ने अपने समाचार पत्र केसरी का इस्तेमाल किया और इस आंदोलन का खूब प्रचार किया। उस समय केसरी की आवाज सबसे बुलंद थी हर कोई केसरी समाचार पत्र बड़े ही ध्यान से पढ़ता था। गंगाधर तिलक के लेखन को पढ़कर मुंबई में विदेशी वस्तुओं की होली जलाई गई। मुंबई में ही एक स्वदेशी वस्त्र प्रचारिणी सभा स्थापित की गई। हर तरफ शराब की दुकानों पर धरने दिए गए। कारखानों में काम करने वाले श्रमिकों ने स्वदेशी आंदोलन से प्रेरित होकर हड़ताल करना प्रारंभ कर दिया था। स्वदेशी आंदोलन वैसे तो बंगाल से प्रारंभ हुई थी लेकिन यह किसी जंगल में लगी हुई आग की तरह भड़की और भारत के दक्षिण तक इसका असर देखा जा सकता था। स्वदेशी आंदोलन का मुख्य उद्देश्य भारत में निर्मित सामग्री को इस्तेमाल करना और विदेश से बने हुए सामग्री एवं माल का बहिष्कार करके अंग्रेज सरकार की बनाई गई नीतियों का विरोध करना था। भारत की जनता अंग्रेज सरकार की बनाई गई नीतियों से नाखुश थी और चाहती थी कि नीतियों में सुधार हो जाए।

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भारत में उस समय वॉइस राय के रूप में लॉर्ड कर्जन अपनी सेवाएं दे रहे थे और लंदन में लॉर्ड मार्ले भारत मंत्री हुआ करते थे। गोपाल कृष्ण गोखले भी उस समय लंदन में ही रह रहे थे और उनकी चर्चा भारत मंत्री लॉर्ड मारने से लगातार होती रहती थी। गोपाल कृष्ण गोखले लॉर्ड मारने से बहुत ही प्रभावित थे तथा उनको तत्ववेत्ता मानते थे। इसलिए गोपाल कृष्ण गोखले ने बाल गंगाधर तिलक को संदेश भेजा कि लॉर्ड मार्ले भारत में कई तरह के सुधार करना चाहते हैं इसलिए स्वदेशी आंदोलन और बहिष्कार प्रदर्शन करके लॉर्ड मार्ले और लॉर्ड कर्जन का विरोध ना करें। लेकिन बाल गंगाधर एक दूरदर्शी राष्ट्रीय स्वतंत्रता क्रांतिकारी एवं राजनीतिज्ञ थे इसलिए उन्हें अंग्रेजों की चाल और कूटनीति का बहुत ही अच्छे से समझती। उन्होंने तुरंत ही एक समाचार लेख लिखा और उसे समाचार पत्र केसरी में प्रकाशित करके यह संदेश लॉर्ड कर्जन और लॉर्ड मार्ले तक पहुंचाया की जब तक सरकार की गाड़ी रुक नहीं जाएगी तब तक हम वास्तविक सुधार एवं अधिकार नहीं मिलेंगे। जब तक मार्ले साहब को नहीं बल्कि काजल साहब को ऐसा विश्वास नहीं हो जाएगा कि हिंदुस्तान के लोगों को महत्वपूर्ण अधिकार दिए बिना गति नहीं है तभी हिंदुस्तान को कुछ लाभ हो सकता है। यदि हम केवल उदात्त तत्वों के मनो राज्य में डूब कर तत्वज्ञान पर विश्वास पकड़ कर बैठे रहे तो कहना होगा कि हमारे जैसा हित भागी कोई नहीं। हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि यह राजनीति है तत्वज्ञान की कोई पाठशाला नहीं है।

बंगाल में स्वदेशी आंदोलन

जैसा कि हम सबको पता है कि राष्ट्रीय आंदोलन में बंगाल हमेशा आगे रहा है। लॉर्ड कर्जन के बंगाल विभाजन से बंगाल के लोग बहुत ही दुखद थे और उस समय समाचार पत्रों ने स्वदेशी आंदोलन को अपनाकर जनता को विदेशी माल का बहिष्कार करने की प्रेरणा दी। ब्रिटिश से आने वाली सामग्री विशेषकर ब्रिटेन के कारखानों में बने कपड़े शक्कर नमक आदि का बहिष्कार करने का खूब प्रचार प्रसार किया गया। और बंगाल जो कि बंगाल के विभाजन से दुखी था उसने इस आंदोलन में खूब बढ़ चढ़कर भाग लिया। स्वदेशी आंदोलन के कारण बहिष्कार का क्षेत्र और बढ़ गया और इसमें और नई चीजों का विरोध चालू हो गया। इनमें शिक्षा न्यायपालिका और प्रशासन भी आंदोलन के दायरे में आ गया। अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा प्रणाली का बहिष्कार साहब हो गया और इसी समय स्वतंत्रा श्री शिक्षा संस्थानों की स्थापना प्रारंभ हो गई। राष्ट्रीय शिक्षण संस्थाओं के साथ ही स्वदेशी उद्योग की स्थापना की भी प्रेरणा हर किसी के मन में व्याप्त हो गई और परिणाम स्वरूप हथकरघा रेशमी वस्त्र उद्योग तथा परस्पर गत गृह उद्योग की स्थापना की गई।

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स्वदेशी आंदोलन का गांव में प्रसार

स्वदेशी आंदोलन से गांव अछूते नहीं रहे और बंगाल के ही अश्विनी कुमार दत्त ने स्वदेशी बांधव समिति की स्थापना की और इस समिति ने बंगाल के देहाती क्षेत्र में 89 न्याय पंचायतों की स्थापना की और इनके द्वारा 523 ग्रामीण विवादों का निराकरण कर सरकार के लिए एक नई चुनौती स्थापित कर दी थी। 1907 में पूरे बंगाल में लगभग 1000 ग्राम समितियां कार्य करने लगी थी।

स्वदेशी आंदोलन में प्रबुद्ध लोगों की भूमिका

स्वदेशी आंदोलन में पढ़े लिखे लोगों का योगदान महत्वपूर्ण था। पढ़े लिखे लोगों को भद्रलोक भी कहा जाता था यह भद्रलोक में पत्रकार अभिभाषक शिक्षक और छात्र छात्राओं को गिना जाता था। लेकिन इस आंदोलन में अशिक्षित वर्ग के लोग भी बढ़-चढ़कर आंदोलन में भाग ले रहे थे। उदाहरण के लिए जूते बनाने वाले मोतियों ने विदेशी जूतों की मरम्मत बंद कर दी थी ठीक इसी प्रकार कपड़ा धोने वाले धोबियों ने विदेशी वस्त्रों को भी धोना बंद कर दिया था। कोलकाता के अमीर घरानों में खाना बनाने वाले रसोइयों ने भोजन बनाने में विदेशी सामग्री का प्रयोग करना बंद कर दिया था। परचून की दुकानों में विदेशी वालों को रखना बंद कर दिया गया। तथा आंदोलन में समर्थन नहीं करने वाले वर्ग का बहिष्कार किया गया। मंदिरों में भी पुरोहितों और पुजारियों ने सभाएं आयोजित करके प्रवचन के माध्यम से स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग का वचन दिलवाकर भक्तों के मन में स्वदेशी वस्तुओं के प्रति प्रेम को प्रोत्साहित किया। सन उन्नीस सौ छह में ही कोलकाता में स्वदेशी सामग्री का मेला आयोजित किया गया इस मेले का उद्घाटन लोकमान तिलक जी ने किया था। और देखते ही देखते पूरे बंगाल में स्वदेशी आंदोलन की लहर व्याप्त हो गई थी।

अन्य प्रांतों में स्वदेशी आंदोलन

अन्य प्रांतों में स्वदेशी आंदोलन स्वदेशी आंदोलन का प्रभाव पूरे भारत में बहुत तेजी के साथ फैल रहा था जिनमें प्रमुख राज्य उत्तर प्रदेश पंजाब और दक्षिण में चेन्नई तक यह आंदोलन प्रसारित हो गया था। पंजाब से लाला लाजपत राय ने इस आंदोलन को गति प्रदान की थी। दक्षिण में आंध्र तथा तेलंगाना क्षेत्र में भी स्वदेशी आंदोलन का प्रभाव आसानी से देखा गया था लगभग संपूर्ण भारत में जगह-जगह पर सार्वजनिक सभाएं आयोजित करके स्वदेशी एवं स्वदेश का संदेश उद्घोष किया गया।

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स्वदेशी आंदोलन का प्रभाव

कांग्रेस की नई पीढ़ी में स्वदेशी आंदोलन का पूरा समर्थन किया था लेकिन कांग्रेश के पुराने कांग्रेसी अंग्रेज शासन के मुंह बंद के कारण इस आंदोलन के प्रति उदासीन बने रहे। इसका प्रभाव भविष्य में कांग्रेस के संगठन में भी पड़ा और कांग्रेस स्पष्ट रूप से उदारवादी और उग्रवादी संगठन के रूप में टूट गई। स्वदेशी आंदोलन से भारतीय जनता में राष्ट्र के प्रति राष्ट्रीय चेतना का जागरण हो गया और स्वदेश भावना ने देशभक्ति का लोगों के हृदय में संचार किया। स्वदेशी उद्योग एवं व्यवसाय के विकास से रोजगार के अवसर बढ़ने लगे। स्वदेशी शिक्षा संस्थानों के प्रति जनता अब आकर्षित होने लगी थी और संपूर्ण राष्ट्र स्वदेश एवं स्वदेशी के नारों से गूंज ने लगा था। जिसकी वजह से 19 मी सदी के पहले दशक में राष्ट्रीय आंदोलन को गति मिली और लोगों को महसूस हुआ स्वदेशी आंदोलन और उसके महत्व के बारे में।

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