इतिहास के ज्यादा जानकार यह पूछ सकते हैं कि क्या इतिहास को फिर से लिखना उचित है? देश के इतिहास का आधार और औचित्य क्या होना चाहिए? और यह कि पुनर्लेखन के नाम पर मिथकों को सच बताना क्या इतिहास है? उनके लिये जवाब यह है कि वे क्यों तनख में उल्लेखीत मूसा के निष्क्रमण को और बाइबल की जल प्रलय के मिथक को सच मानते हैं?…दरअसल, मिथक पूर्णत: सत्य नहीं होते, लेकिन वे असत्य भी नहीं होते।
यह विडंबना है या कि भरतीय लोगों की मूर्खता कि आधिकारिक इतिहास की शुरुआत में ही यह बताया गया है कि भारत में रहने वाले लोग यहां के मूल निवासी नहीं है। संभवत: भारत दुनिया का ऐसा पहला देश होगा जहां के लोग खुद के ही भारतीय होने पर संदेह करते हैं। यह संदेह उनके दिमाग में एक या दो दिन में नहीं डाला गया। यह सैंकड़ों साल की गुलामी और मैकाले की शिक्षा का परिणाम है। मैकाले की अवैध संतानों ने हमें बताया कि हम आर्य हैं, हम बाहर से आए हैं। लेकिन कहां से आए हैं उसका कोई उन्होंने सटीक जवाब नहीं दिया। कोई सेंट्रल एशिया कहता है, तो कोई साइबेरिया, तो कोई मंगोलिया, तो कोई ट्रांस कोकेशिया, तो कुछ ने आर्यों को स्कैंडेनेविया का बताया। मतलब यह कि किसी के पास आर्यों का सुबूत नहीं है, फिर भी साइबेरिया से लेकर स्कैंडेनेविया तक, हर कोई अपने-अपने हिसाब से आर्यों का पता बता देता है। विश्वविद्यालयों में बैठे बड़े-बड़े इतिहासकारों (मूर्ख) को इन सवालों का जवाब देना है। सवाल पूछने वाले को पहले लताड़ना है, उसे बुद्धिहिन घोषित करना है और फिर इतिहास के मूल प्रश्नों पर पर्दा डाला देना है।
भारत की सरकारी किताबों में आर्यों के आगमन को आर्यन इन्वेजन थ्योरी कहा जाता है। इन किताबों में आर्यों को घुमंतू या कबीलाई बताया जाता है। यह ऐसे खानाबदोश लोग थे जिनके पास वेद थे, रथ थे, खुद की भाषा थी और उस भाषा की लिपि भी थी। मतलब यह कि वे पढ़े-लिखे, सभ्य और सुसंस्कृत खानाबदोश लोग थे। यह दुनिया का सबसे अनोखा उदाहरण है। यह थ्योरी मैक्स मूलर ने जानबूझकर गढ़ी थी। मैक्स मूलर ने ही भारत में आर्यन इन्वेजन थ्योरी को लागू करने का काम किया था, लेकिन इस थ्योरी को सबसे बड़ी चुनौती 1921 में मिली। अचानक से सिंधु नदी के किनारे एक सभ्यता के निशान मिल गए। कोई एक जगह होती, तो और बात थी। यहां कई सारी जगहों पर सभ्यता के निशान मिलने लगे। इसे सिंधु घाटी सभ्यता कहा जाने लगा। अब सवाल यह पैदा हो गया कि यदि इस सभ्यता को हिन्दू या आर्य सभ्यता मान लिया गया तो फिर आर्यन इन्वेजन थ्योरी का क्या होगा। ऐसे में फिर धीरे धीरे यह प्रचारित किया जाने लगा कि सिंधु लोग द्रविड़ थे और वैदिक लोग आर्य।
जब अंग्रेजों और उनके अनुसरणकर्ताओं ने यह देखा कि सिंधु घाटी की सभ्यता तो विश्वस्तरीय शहरी सभ्यता थी। इस सभ्यता के पास टाउन-प्लानिंग का ज्ञान कहां से आया और उन्होंने स्वीमिंग पूल बनाने की तकनीक कैसे सीखी? वह भी ऐसे समय जबकि ग्रीस, रोम और एथेंस का नामोनिशान भी नहीं था।..तो उन्होंने एक नया झूठ प्रचारित किया। वह यह कि सिंधु सभ्यता और वैदिक सभ्यता दोनों अलग अलग सभ्यता है। सिंधु लोग द्रविड़ थे और वैदिक लोग आर्य। आर्य तो बाहर से ही आए थे और उनके काल सिंधु सभ्यता के बाद का काल है। इस थ्योरी को हमारे यहां के वामी इतिहासकारों ने जमकर प्रचारित किया।
यह बहुत बहुत प्रचारित किया जाता है कि आर्य बाहरी और आक्रमणकारी थे। उन्होंने भारत पर आक्रमण करके यहां के द्रविड़ लोगों को दास बनाया। पहले अंग्रेजों ने भी फिर हमारे ही इतिहाकारों ने इस झूठ का प्रचारित और प्रसारित किया। आर्य को उन्होंने एक जाति माना और द्रविड़ को दूसरी। इस तरह विभाजन करके उन्होंने भारत का इतिहास लिखा। दरअसल, विदेशी विभाजन में ही विश्वास रखते थे। उन्हीं का अनुसारण करने वाले हमारे देश में आज लाखों लोग हैं।
महाकुलकुलीनार्यसभ्यसज्जनसाधव:। -अमरकोष 7।3
अर्थात : आर्य शब्द का प्रयोग महाकुल, कुलीन, सभ्य, सज्जन, साधु आदि के लिए पाया जाता है।
आर्य का अर्थ श्रेष्ठ होता है। आर्य किसी जाति का नहीं बल्कि एक विशेष विचारधारा को मानने वाले का समूह था जिसमें श्वेत, पित, रक्त, श्याम और अश्वेत रंग के सभी लोग शामिल थे। नयी खोज के अनुसार आर्य आक्रमण नाम की चीज न तो भारतीय इतिहास के किसी कालखण्ड में घटित हुई और ना ही आर्य तथा द्रविड़ नामक दो पृथक मानव नस्लों का अस्तित्व ही कभी धरती पर रहा।
फिनलैण्ड के तारतू विश्वविद्यालय, एस्टोनिया में भारतीयों के डीनएनए गुणसूत्र पर आधारित एक अनुसंधान हुआ। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉं. कीवीसील्ड के निर्देशन में एस्टोनिया स्थित एस्टोनियन बायोसेंटर, तारतू विश्वविद्यालय के शोधछात्र ज्ञानेश्वर चौबे ने अपने अनुसंधान में यह सिद्ध किया है कि सारे भारतवासी जीन अर्थात गुणसूत्रों के आधार पर एक ही पूर्वजों की संतानें हैं, आर्य और द्रविड़ का कोई भेद गुणसूत्रों के आधार पर नहीं मिलता है, और तो और जो अनुवांशिक गुणसूत्र भारतवासियों में पाए जाते हैं वे डीएनए गुणसूत्र दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं पाए गए।
शोधकार्य में वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका और नेपाल की जनसंख्या में विद्यमान लगभग सभी जातियों, उपजातियों, जनजातियों के लगभग 13000 नमूनों के परीक्षण-परिणामों का इस्तेमाल किया गया। इनके नमूनों के परीक्षण से प्राप्त परिणामों की तुलना मध्य एशिया, यूरोप और चीन-जापान आदि देशों में रहने वाली मानव नस्लों के गुणसूत्रों से की गई। इस तुलना में पाया गया कि सभी भारतीय चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाले हैं, 99 प्रतिशत समान पूर्वजों की संतानें हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि भारत में आर्य और द्रविड़ विवाद व्यर्थ है। उत्तर और दक्षिण भारतीय एक ही पूर्वजों की संतानें हैं।
शोध में पाया गया है कि तमिलनाडु की सभी जातियों-जनजातियों, केरल, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश जिन्हें पूर्व में कथित द्रविड़ नस्ल से प्रभावित माना गया है, की समस्त जातियों के डीनएन गुणसूत्र तथा उत्तर भारतीय जातियों-जनजातियों के डीएनए का उत्पत्ति-आधार गुणसूत्र एकसमान है। उत्तर भारत में पाये जाने वाले कोल, कंजर, दुसाध, धरकार, चमार, थारू, दलित, क्षत्रिय और ब्राह्मणों के डीएनए का मूल स्रोत दक्षिण भारत में पाई जाने वाली जातियों के मूल स्रोत से कहीं से भी अलग नहीं हैं।
इसी के साथ जो गुणसूत्र उपरोक्त जातियों में पाए गए हैं वहीं गुणसूत्र मकरानी, सिंधी, बलोच, पठान, ब्राहुई, बुरूषो और हजारा आदि पाकिस्तान में पाए जाने वाले समूहों के साथ पूरी तरह से मेल खाते हैं। जो लोग आर्य और दस्यु को अलग अलग बानते हैं उन्हें बाबासाहब आम्बेडकर की किताब ‘जाती व्यवस्था का उच्चाटन’ (Annihilation of caste) को अच्छे से पढ़ना चाहिए।
नीचे लिखा गया लेख सरिता झा द्वारा लिखा गया और डॉयचे वैले से साभार है…
इसी तरह का एक अनुसंधान भारत और अमेरिका के वैज्ञानिकों ने भी किया था। उनके इस साझे आनुवांशिक अध्ययन अनुसार उत्तर और दक्षिण भारतीयों के बीच बताई जाने वाली आर्य-अनार्य असमानता अब नए शोध के अनुसार कोई सच्ची आनुवांशिक असमानता नहीं है। अमेरिका में हार्वर्ड के विशेषज्ञों और भारत के विश्लेषकों ने भारत की प्राचीन जनसंख्या के जीनों के अध्ययन के बाद पाया कि सभी भारतीयों के बीच एक अनुवांशिक संबंध है। इस शोध से जुड़े सीसीएमबी अर्थात सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मोलेक्यूलर बायोलॉजी (कोशिका और आणविक जीवविज्ञान केंद्र) के पूर्व निदेशक और इस अध्ययन के सह-लेखक लालजी सिंह ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में बताया कि शोध के नतीजे के बाद इतिहास को दोबारा लिखने की जरूरत पड़ सकती है। उत्तर और दक्षिण भारतीयों के बीच कोई अंतर नहीं रहा है।
सीसीएमबी के वरिष्ठ विश्लेषक कुमारसमय थंगरंजन का मानना है कि आर्य और द्रविड़ सिद्धांतों के पीछे कोई सचाई नहीं है। वे प्राचीन भारतीयों के उत्तर और दक्षिण में बसने के सैकड़ों या हजारों साल बाद भारत आए थे। इस शोध में भारत के 13 राज्यों के 25 विभिन्न जाति-समूहों से लिए गए 132 व्यक्तियों के जीनों में मिले 500,000 आनुवांशिक मार्करों का विश्लेषण किया गया।
इन सभी लोगों को पारंपरिक रूप से छह अलग-अलग भाषा-परिवार, ऊंची-नीची जाति और आदिवासी समूहों से लिया गया था। उनके बीच साझे आनुवांशिक संबंधों से साबित होता है कि भारतीय समाज की संरचना में जातियाँ अपने पहले के कबीलों जैसे समुदायों से बनी थीं। उस दौरान जातियों की उत्पत्ति जनजातियों और आदिवासी समूहों से हुई थी। जातियों और कबीलों अथवा आदिवासियों के बीच अंतर नहीं किया जा सकता क्योंकि उनके बीच के जीनों की समानता यह बताती है कि दोनों अलग नहीं थे।
इस शोध में सीसीएमबी सहित हार्वर्ड मेडिकल स्कूल, हार्वर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ तथा एमआईटी के विशेषज्ञों ने भाग लिया। इस अध्ययन के अनुसार वर्तमान भारतीय जनसंख्या असल में प्राचीनकालीन उत्तरी और दक्षिणी भारत का मिश्रण है। इस मिश्रण में उत्तर भारतीय पूर्वजों (एन्सेंस्ट्रल नॉर्थ इंडियन) और दक्षिण भारतीय पूर्वजों (एन्सेंस्ट्रल साउथ इंडियन) का योगदान रहा है। पहली बस्तियाँ आज से 65,000 साल पहले अंडमान द्वीप और दक्षिण भारत में लगभग एक ही समय बसी थीं। बाद में 40,000 साल पहले प्राचीन उत्तर भारतीयों के आने से उनकी जनसंख्या बढ़ गई। कालान्तर में प्राचीन उत्तर और दक्षिण भारतीयों के आपस में मेल से एक मिश्रित आबादी बनी। आनुवांशिक दृष्टि से वर्तमान भारतीय इसी आबादी के वंशज हैं। अध्ययन यह भी बताने में मदद करता है कि भारतीयों में जो आनुवांशिक बीमारियाँ मिलती हैं वे दुनिया के अन्य लोगों से अलग क्यों हैं।
लालजी सिंह कहते हैं कि 70 प्रतिशत भारतीयों में जो आनुवांशिक विकार हैं, इस शोध से यह जानने में मदद मिल सकती है कि ऐसे विकार जनसंख्या विशेष तक ही क्यों सीमित हैं। उदाहरण के लिए पारसी महिलाओं में स्तन कैंसर, तिरुपति और चित्तूर के निवासियों में स्नायविक दोष और मध्य भारत की जनजातियों में रक्ताल्पता की बीमारी ज्यादा क्यों होती है। उनके कारणों को इस शोध के जरियए बेहतर ढंग से समझा जा सकता है।
शोधकर्ता अब इस बात की खोज कर रहे हैं कि यूरेशियाई अर्थात यूरोपीय-एशियाई निवासियों की उत्पत्ति क्या प्राचीन उत्तर भारतीयों से हुई है। उनके अनुसार प्राचीन उत्तर भारतीय पश्चिमी यूरेशियाइयों से जुड़े हैं। लेकिन प्राचीन दक्षिण भारतीयों में दुनियाभर में किसी भी जनसंख्या से समानता नहीं पाई गई। हालांकि शोधकर्ताओं ने यह भी कहा कि अभी तक इस बात के पक्के सबूत नहीं हैं कि भारतीय पहले यूरोप की ओर गए थे या फिर यूरोप के लोग पहले भारत आए थे।