द्वितीय विश्व युद्ध में ऑपरेशन गोमोरा इतिहास का भयावह अध्याय

द्वितीय विश्व युद्ध में ऑपरेशन गोमोरा इतिहास का भयावह अध्याय

ऑपरेशन गोमोरा का परिचय

पहले विश्व युद्ध की खाई युद्ध प्रणाली से बचने के लिए, द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान रणनीतिक बमबारी की अवधारणा विकसित की गई। इसका उद्देश्य था दुश्मन देश की युद्ध क्षमता को नष्ट करना। इसके तहत कारखानों, बुनियादी ढांचे और आर्थिक संसाधनों को निशाना बनाया गया। कई रणनीतिकार मानते थे कि इससे दुश्मन के मनोबल पर भी प्रभाव पड़ेगा। इस विचार को अपनाने वाले देशों में ब्रिटेन सबसे आगे था, जिसने रॉयल एयर फोर्स (RAF) के बॉम्बर कमांड को इसी आधार पर विकसित किया। जब नाजी जर्मनी ने आक्रामकता दिखाई, तो इंग्लैंड ने जर्मनी के खिलाफ एक रणनीतिक बमबारी अभियान शुरू किया।

शुरुआत में बॉम्बर कमांड ने नागरिक आबादी को निशाना बनाने से परहेज किया, लेकिन रॉटरडैम पर जर्मन हमले और बैटल ऑफ ब्रिटेन के बाद इस नीति को छोड़ दिया गया। मई 1940 से RAF ने जर्मन शहरों को निशाना बनाना शुरू किया, जिसमें उन्होंने राइन और रुहर घाटियों के जहाज निर्माण कारखानों और फैक्ट्रियों पर हमला किया। हालांकि, RAF के पायलटों ने जल्द ही महसूस किया कि ऊंचाई से सटीक बमबारी करना लगभग असंभव था। इसके परिणामस्वरूप, उन्होंने पूरे शहरों पर “क्षेत्रीय बमबारी” की नीति अपनाई।

1943 में, हैम्बर्ग एक प्रमुख औद्योगिक केंद्र था। यहां ब्लोहम एंड वॉस शिपयार्ड थे, जो ब्रिटेन के लिए खतरनाक यू-बोट्स का निर्माण करते थे। इसी वर्ष के गर्म और शुष्क मौसम के दौरान, एयर मार्शल सर आर्थर “बॉम्बर” हैरिस ने हैम्बर्ग पर बड़े पैमाने पर हमला करने की योजना बनाई। इस अभियान का नाम “ऑपरेशन गोमोरा” रखा गया, जो बाइबिल में वर्णित “आग और विनाश की बारिश” से प्रेरित था।

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पहला हमला: रात का कहर

24 जुलाई 1943 की रात 10 बजे, 791 ब्रिटिश बॉम्बर्स ने उड़ान भरी। इन विमानों ने टिन फॉइल की पट्टियां गिराईं, जिससे जर्मन रडार बेकार हो गए। मार्गदर्शक विमानों ने हैम्बर्ग के ऊपर लाल, पीली और हरी रोशनी गिराई, जिन्हें जर्मनों ने “क्रिसमस ट्री” का नाम दिया। इसके बाद, रात 1 बजे से 2 बजे के बीच, हैम्बर्ग पर 2,300 टन बम गिराए गए। इनमें 8,000 पाउंड के “ब्लॉकबस्टर” और 4,000 पाउंड के “कुकी” बम शामिल थे। लेकिन असली तबाही छोटे आग लगाने वाले बमों से हुई, जिन्होंने पूरे शहर में आग लगा दी।

जब लोग शरण स्थलों से बाहर निकले, तो चारों ओर केवल जलती हुई इमारतें और काला धुआं नजर आ रहा था। इस हमले में लगभग 40,000 लोग मारे गए। ज्यादातर मौतें आग से नहीं, बल्कि धुएं और कार्बन मोनोऑक्साइड की वजह से हुईं।

अमेरिकी हमला: दिन में बमबारी

ब्रिटिश हमले के अगले दिन, 25 जुलाई को, 123 अमेरिकी B-17 “फ्लाइंग फोर्ट्रेस” बॉम्बर्स ने दिन के उजाले में हैम्बर्ग पर हमला किया। अमेरिका की बमबारी रणनीति ब्रिटेन से अलग थी। अमेरिकी सेना केवल सैन्य और औद्योगिक लक्ष्यों को निशाना बनाना चाहती थी। हालांकि, जर्मन वायुसेना और एंटी-एयरक्राफ्ट तोपों ने इन विमानों को भारी नुकसान पहुंचाया। फिर भी, अमेरिकी विमानों ने जहाज निर्माण कारखानों और रेलवे यार्ड को निशाना बनाया।

दूसरी रात: आग का तूफान

27 जुलाई की रात, RAF ने 787 बॉम्बर्स के साथ दूसरा बड़ा हमला किया। इन विमानों ने 1,174 टन आग लगाने वाले बम गिराए। आग इतनी भयानक थी कि यह “फायरस्टॉर्म” बन गई। इस आग ने 1,000 डिग्री सेल्सियस से अधिक का तापमान पैदा कर दिया। गर्म हवा ने तूफान जैसी हवाओं को जन्म दिया, जो 170 मील प्रति घंटे की रफ्तार से चल रही थीं। लोगों और पेड़ों को इन हवाओं ने अपने साथ उड़ा दिया। यह आग घंटों तक जलती रही, जिससे पूरा शहर राख में तब्दील हो गया।

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अंतिम परिणाम

ऑपरेशन गोमोरा के हमलों ने हैम्बर्ग को तबाह कर दिया। हजारों लोगों की मौत हुई, और पूरा शहर जलकर खंडहर बन गया। जर्मन मंत्री अल्बर्ट श्पीयर ने इस हमले के बाद कहा, “हैम्बर्ग ने हमारे अंदर ईश्वर का भय पैदा कर दिया।” हालांकि, पांच महीने के भीतर हैम्बर्ग की औद्योगिक उत्पादन क्षमता 80% तक बहाल हो गई।

हैम्बर्ग की त्रासदी सिर्फ एक शुरुआत थी। अगले कुछ वर्षों में जर्मनी के कई अन्य शहर भी इसी विनाश का शिकार बने। ऑपरेशन गोमोरा ने मानव इतिहास में युद्ध की सबसे भयानक घटनाओं में अपना स्थान बना लिया।

ट्रेंच वॉरफेयर तकनीक क्या हैं?

ट्रेंच वॉरफेयर (Trench Warfare) एक प्रकार की युद्ध तकनीक है, जिसमें युद्धरत सेनाएँ खाइयाँ (trenches) खोदकर उनमें रहकर एक-दूसरे पर हमला करती हैं। यह तकनीक विशेष रूप से प्रथम विश्व युद्ध (World War I) के दौरान उपयोग में आई थी। इसमें सैनिक गहरी खाइयों में छिपकर दुश्मन से बचाव करते थे और वहीं से हमले की रणनीति बनाते थे।

मुख्य विशेषताएँ

  1. ट्रेंच वॉरफेयर में सैनिक जमीन में लंबी और गहरी खाइयाँ खोदते थे। ये खाइयाँ सैनिकों को दुश्मन की गोलियों और गोलेबारी से बचाने का काम करती थीं।
  2. इस तकनीक में दोनों पक्ष एक जगह स्थिर रहते हैं और आगे बढ़ने के बजाय खाइयों के बीच लंबी लड़ाई होती है।
  3. ट्रेंच में रहना बेहद कठिन होता था। यहाँ गंदगी, पानी भर जाने, चूहे, बीमारियाँ, और मानसिक तनाव जैसी समस्याएँ आम थीं।
  4. इस प्रकार के युद्ध में कोई भी पक्ष जल्दी जीत हासिल नहीं कर पाता था, क्योंकि खाइयों को पार करना बेहद कठिन होता था।
  5. दुश्मन की खाइयों के बीच का इलाका, जिसे “नो-मैन्स लैंड” कहा जाता था, सबसे खतरनाक होता था। यहाँ पर दुश्मन के हमले का सीधा खतरा रहता था।
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