भंडारे प्रथा की शुरुआत कैसे और कब हुई?

भंडारे प्रथा की शुरुआत कैसे और कब हुई?

भंडारे प्रथा की शुरुआत कैसे और कब हुई?

हिंदू धर्म में भंडारे का बहुत बड़ा महत्व है। किसी भी धार्मिक आयोजन या अनुष्ठान के बाद अक्सर भंडारे का आयोजन किया जाता है, जिसमें उपस्थित सभी लोगों को भोजन कराया जाता है। ऐसी मान्यता है कि भंडारे में भाग लेने से व्यक्ति को धार्मिक पुण्य की प्राप्ति होती है। हालांकि, भंडारे की इस परंपरा की शुरुआत कब और कैसे हुई, इसके बारे में जानना भी उतना ही रोचक है। चलिए, भंडारे की उत्पत्ति, इसके पीछे छिपे महत्व और पौराणिक मान्यताओं पर एक नजर डालते हैं।

भंडारे की परंपरा का आरंभ

हिंदू धर्म के पौराणिक शास्त्रों के अनुसार, दान का बहुत महत्व बताया गया है। अन्नदान को सभी प्रकार के दानों में सबसे उत्तम माना गया है। प्राचीन काल में राजा-महाराजा अपने धर्म कर्तव्यों का पालन करते हुए बड़े धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन करते थे। इन अनुष्ठानों के बाद राजा अपनी प्रजा में भोजन, वस्त्र, धन और फल का दान करते थे। यही प्रथा धीरे-धीरे ‘भंडारे’ के रूप में विकसित हुई, जिसमें लोग सामूहिक रूप से अन्न दान करते हैं और किसी भी धार्मिक आयोजन में आने वाले सभी व्यक्तियों को भोजन कराया जाता है।

भंडारे का धार्मिक महत्व

हिंदू धर्म में अन्नदान को अत्यधिक पुण्य फलदायी माना गया है। मान्यता है कि यदि हम किसी जरूरतमंद को भोजन कराते हैं, तो इससे हमारी आत्मा को संतुष्टि मिलती है और इसका फल परलोक में भी प्राप्त होता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, मनुष्य जिस वस्तु का दान करता है, उसे परलोक में भी वही वस्तु प्राप्त होती है। इसीलिए अन्नदान, भंडारे के रूप में प्रमुखता से किया जाने लगा। यह न केवल धर्मार्थ कार्य है, बल्कि समाज में प्रेम और सहयोग की भावना को भी बढ़ाता है।

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भंडारे की पौराणिक कथा

भंडारे की प्रथा से संबंधित एक प्राचीन कथा पद्म पुराण के सृष्टि खंड में वर्णित है। कथा के अनुसार, विदर्भ के राजा स्वेत अपने निधन के बाद परलोक पहुंचे। वहां पहुंचकर उन्हें भूख का अनुभव हुआ, और उन्होंने भोजन की इच्छा प्रकट की। लेकिन, उन्हें वहां भोजन प्राप्त नहीं हुआ। तब उन्होंने ब्रह्मा जी से इसका कारण पूछा। ब्रह्मा जी ने उत्तर दिया कि राजा स्वेत ने अपने जीवनकाल में किसी जरूरतमंद को भोजन नहीं कराया था, इसलिए उन्हें वहां अन्न नहीं मिल सकता। इस घटना से प्रेरणा लेकर लोगों ने भंडारे की प्रथा का अनुसरण करना शुरू किया, ताकि भोजन के दान से परलोक में उन्हें भी इसका लाभ प्राप्त हो सके।

भंडारे का समाज में योगदान

भंडारे का आयोजन समाज में प्रेम, भाईचारा और समानता की भावना को बढ़ावा देता है। जब सभी लोग एक ही स्थान पर बैठकर भोजन करते हैं, तो यह समानता और आपसी सहयोग की प्रतीक बन जाता है। भंडारे के माध्यम से न केवल गरीब और जरूरतमंद लोगों को भोजन मिलता है, बल्कि इसका आयोजन करने वाले लोगों को भी मानसिक शांति और संतोष का अनुभव होता है। हिंदू धर्म के अनुयायियों का मानना है कि भंडारे में भोजन ग्रहण करने और कराने से ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त होता है।

भंडारे की प्रथा हिंदू धर्म में एक महत्वपूर्ण धार्मिक और सामाजिक परंपरा है। यह केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि समाज में प्रेम और सौहार्द की भावना को बनाए रखने का भी एक साधन है। प्राचीन काल से लेकर आज तक, भंडारे का महत्व केवल धर्म के दृष्टिकोण से ही नहीं, बल्कि मानवीयता और सेवा भावना के दृष्टिकोण से भी है। इस प्रकार, भंडारे का आयोजन न केवल धर्मार्थ कार्य है बल्कि समाज में एकजुटता और मानवता का प्रतीक भी है।