Hindi Story – फूलों वाली राजकुमारी (कहानी न0-1)
बहुत पुरानी बात है। किसी गाँव में पति-पत्नी रहा करते थे। वे बहुत भले थे। गाँव भर के दु:ख और सुख में खुशी से झूम उठते थे।
वे दोनों छोटे-से झोंपड़े में रहते थे। आँगन के आधे हिस्से को गोबर-मिट्टी से लीप देते और आधे में आलू, शकरकंद, मूंगफली तथा दुसरी सब्जियाँ उगाते। साल भर तक वे यूँ ही अपना गुजारा कर लिया करते।
एक दिन की बात है, बहुत सवेरे तारों की छाँह में पत्नी झोंपड़ी से बाहर निकली। उसने देखा कि एक सफेद, खूबसूरत बिल्ली कचनार के पेड़ तले दुबकी बैठी है। वृध्दा ने उसे पुचकारा तो वह उसके पांवों से लिपट गई।
पौ फटने पर वृध्दा पड़ोसी झोंपड़े से दूध-चावल ले आई। वृध्द दम्पति ने कभी किसी के सामने हाथ नहीं पसारा था, पर सुन्दर बिल्ली के लिए वे किसी-न-किसी तरह दूध का जुगाड़ करने लगे।
इसी तरह समय गुजरता गया। सर्दी-गर्मी, पतझड़-वसंत आ-आकर लौटने लगे। उन तीनों की खुशी का ठिकाना नहीं था, पर बिना काम-धाम के कैसे चलता? बुढ़ापे के कारण दोनों को चलने-फिरने मे भी कठिनाई होने लगी। बिल्ली भी भूखी रहने लगी। वह अपने माता-पिता के कष्ट को देख नहीं सकती थी।
‘मैं भी जरा घर से बाहर खुली हवा में हो आऊं। -बिल्ली ने सोचा। गली के कुत्तों और दूसरे जानवरों से बचती-बचाती वह घने जंगल में जा पहुँची। उसने झरने का ताजा जल पिया और देखते ही देखते सुंदर कन्या में बदल गई।
वह अपने माता-पिता के घर जा पहुँची। बोली-“अब मैं आपकी सेवा करूँगी”। उन दोनों को कुछ समझ में नहीं आया। अपना पेट भरना मुश्किल हो गया है। अब इस तीसरे प्राणी का क्या होगा ? वे दोनों सोच में डूब गए। बिल्ली के एकाएक गायब हो जाने से भी वे परेशान थे।
वह कन्या जहाँ-जहाँ जाती, आँगन में फूल झरने लगते। फूलों की डलिया लिए वह बाजार जाती। फूल बेचकर पैसों से खाने-पीने का सामांन खरीदती और शाम को घर लौट आती। इस तरह तीन प्राणियों के परिवार की दशा धीरे-धीरे सुधरने लगी। इसने सुंदर फूल गाँव भर में कहीं नहीं थे। मजे की बात यह कि बिना बीज-खाद-पानी के फूलों की खेती हुआ करती थी।
“बेटी,तू कौन है? कहाँ से आई है?”-वृध्द पति-पत्नी पूछते। “मैं बेटी हूँ आपकी। इससे ज्यादा कुछ जानिए भी मत”। –वह जबाव देती।
खाना खाकर वह अपने झोंपड़े में घुसती तो सवेरे निकलती। सवेरे के साथ ही रंग-बिरंगे खुशबूदार फूलों का सिलसिला शुरू हो जाता। उसने माता-पिता से कह रखा था कि उसकी असलियत जानने की कोशिश न करें। पर उन्हें सब्र कहाँ?
एक बार आधी रात को उन दोनों ने सूराख से झोंपड़ी में झांका. उन्होंने देखा कि लड़की के स्थान पर वही सफेद बिल्ली औंधे मुँह पड़ी है। उनके देखने की देर थी कि बिल्ली एक सुन्दर राजकुमारी बन गई।–“आपने मेरा असली रूप देख लिया है। इसलिए अब मैं अपने फूलों के देश जाऊँगी। मैं आपकी सहायता करने चुपके-चुपके यहाँ आई थी”।
उसके जाने की बात सुनकर माता-पिता फूट-फूटकर रोने लगे। पर अब क्या हो सकता था।
“चिंता न करें। आपके आंगन में हमेशा रंग-बिरंगे फूल खिलते रहेंगे। आपकी सेवा का बदला नहीं चुका पाऊँगी मैं”। इतना कहते ही वह राजकुमारी तेज हवा के झोंके पर सवार होकर अपने देश चली गई। वह गाँव ‘फूलो वाला गाँव’ के नाम से जाना जाने लगा।
Hindi Story- पुतलियाँ बोलीं (कहानी न0-2)
प्राचीन काल में वीरपुर नाम का एक नगर था। वहाँ के राजा थे वीरभद्र। वीरभद्र अपने पूर्वजों की तरह न्यायप्रिय, बुध्दिमान एवं प्रजापालक थे। उनके राजसिंहासन में दो पुतलियाँ लगी हुई थीं। एक का नाम था रूपानी और दूसरी का कल्याणी। रूपानी राजा से हमेशा सौन्दर्य का बखान करती और कल्याणी प्रजा के हित की बात राजा को बताया करती थी। दोनों पुतलियों की आपस में बिल्कुल नहीं निभाती थी। वे एक-दूसरे की काट में लगी रहती थीं। रूपानी हमेशा राजा को समझाने की कोशिश करती-‘रूप और सौंदर्य ही दुनिया में सबसे अच्छे हैं। एक राजा को इन्हीं में ज्यादा समय लगाना चाहिए’। कल्याणी गुणों का बखान करती। वह गुणों को रूप से श्रेष्ट बतलाती। राजा दोनों की बातें सुनकर, निर्णय अपनी बुध्दि और विवेक से लिया करते थे। वह हमेशा चतुर सभासदों की सलाह लेकर ही काम करते थे।
कुछ समय बाद वीरभद्र बहुत बीमार पड़े। अपना आखिरी समय जान, उन्होंने अपने बेटे छविप्रिय को बुलाकर कहा-“बेटा, यह मेरा आखिरी समय है। अब सिंहासन पर तुम्हें बैठना है। तुम्हें एक जरूरी बात बता रहा हूँ। तुम इन दोनों पुतलियों में से कभी किसी का अनादर मत करना। इन दोनों में हमेशा संतुलन बनाए रखना”। कुछ दिन बाद राजा वीरभद्र स्वर्ग सिधार गए। वीरभद्र के राजसिंहासन पर छविप्रिय आसीन हुए। वह बड़े ही निरंकुश और विलासी थे। हमेशा राग-रंग में डूबे रहते थे।
काफी दिनों बाद छविप्रिय पहली बार राज दरबार में आए। वह सिंहासन पर बैठे, तो कल्याणी बोली-“राजन्, आप बहुत अधिक विलासी होते जा रहे है। राग-रंग और नृत्य-संगीत से ही राजकार्य नहीं चलता। आप अपने चतुर सभासदों की भी सलाह नहीं मान रहे हैं। गुणों का सम्मान करना सीखिए। अपने पिता की बातें याद रखें”।
राजा को उसकी यह बात अच्छी न लगी। वह कुछ बोलना चाहते थे, तभी रूपानी बोल पड़ी-“राजन्, आप कल्याणी की बातों में न आइए। यह हमेशा गुणों का ही बखान करती रहती है। इसे यह नहीं मालूम कि सौंदर्य का जीवन में कितना महत्व है। सुंदर चीजें ही तो आनन्द और सुख प्रदान करती है। बिना इनके जीवन नीरस हो जाता है”।
राजा बोला-“तुम ठीक कहती हो। सौंदर्य के बिना जीवन बिल्कुल उजाड़ लगता है। मैं राजमहल को सुंदर ढंग से सजाऊँगा। राज वाटिका के कंटीले पौधों को उखाड़, सुंदर-सुंदर पौधे लगवाऊँगा”।
कुछ दिनों बाद जब राजा फिर दरबार में आए, तो दरबार की रौनक ही बदल गई थी। बड़े खुश थे राजा। वह ज्योंही सिंहासन पर बैठे, कल्याणी बोली-“ राजन्, आपका एक ओर ही झुकाव ठीक नहीं। सौंदर्य के साथ-साथ गुणों का भी सम्मान होना चाहिए। वर्ना राज्य पर विपत्ति घिर आएगी”।
कल्याणी की बात राजा को फिर अच्छी न लगी। वह कुछ जबाव देते, उसके पहले ही राजवैद्य बोल पड़े-“हाँ राजन्, कल्याणी ठीक कहती है। आप उसकी बातों पर भी विचार कीजिए”।
राजा ने गुस्से में कहा-“ तुमसे कौन सलाह माँग रहा है? बीच में बोलकर तुमने भारी अपराध किया है। तुम्हें देश निकाला दिया जाता है”। राजा के हुक्म पर सिपाहियों ने राजवैद्य को देश की सीमा सो बाहर कर दिया।
संयोग की बात, दूसरे ही दिन राजवाटिका में टहलते हुए राजकुमार को एक साँप ने डस लिया। बहुत उपचार हुआ, किन्तु उसे कोई बचा न सका।
पुत्रशोक से दुखी राजा दरबार में पहुँचे। सिंहासन पर बैठना चाहा, तभी कल्याणी बोली-“राजन्, देख लिया, मेरी बात न मानने का परिणाम। अगर वाटिका से सारे कंटीले पौधों को न हटाया गया होता, तो साँप वाटिका में प्रवेश ही न कर पाता, क्योंकि उनमें बहुत-से ऐसे पौधे भी थे, जिनकी महक से साँप दूर भागता है। साँप के डसने के बाद भी राजकुमार को मृत्यु से बचाया जो सकता था, मगर आपने तो राजवैद्य को देश निकाला दे दिया था। राजवैद्य के पास विषधर से बचाने की अचूक औषधियाँ थीं। मैं बराबर आपसे कहती रही हूँ, गुणों को महत्व दीजिए। मगर आप सुनते ही नहीं। कहकर पुतली मौन हो गई।
अच्छा मौका देख, दूसरी पुतली रूपाली बोली-“कल्याणी, ऐसे शोक के समय में तुम राजा का उपहास कर रही हो। यह अच्छी बात नहीं”।
राजा पहले से ही झुंझलाए हुए थे। रूपानी की बातों ने आग में घी का काम किया। गुस्से में उन्होंने कल्याणी से कहा-“ आज के बाद तुम मुझसे बात न करना”।
राजा के निर्णय से सारे सभासद चकित रह गए। कुछ ने राजा को अपना निर्यण वापस लेने की सलाह दी, लेकिन राजा ने किसी की एक न सुनी। कल्याणी उसी दिन से चुप हो गई।
अब राजा के ऊपर रूपानी का एकाधिकार था। राजा दिन-रात राग-रंग में डूबे रहने लगे। बूढ़े सभासदों को दरबार से निकाल,उनकी जगह नौजवान एंव रूपवान सभासदों की भर्ती की गई। यहाँ तक कि राजमहल के पुराने और विश्वासपात्र दास-दासियों की भी छुट्टी कर दी गई।
इन सारी बातों की सूचना पड़ोसी राजा को मिली। वह बड़ा खुश हुआ। उसकी वीरपुर से पुरानी दुश्मनी थी। कई बार दोनों में युध्द हो चुका था। बदला लेने का अच्छा अवसर देख, पड़ोसी राजा ने वीरपुर पर हमला कर दिया।
वीरपुर के राजा तो रंगरेलियों में डूबे थे। सेना में भी ज्यादातर अनुभवहीन और नए सिपाही ही थे। पुराने योग्य एंव लड़ाकू सैनिकों की छुट्टी कर दी गई थी। इसके अतिरिक्त वीरपुर से निकाले गए, बहुत-से दास-दासियों से भी बहुत-सारी गुप्त जानकारियाँ शत्रु ने प्राप्त कर ली थीं।
हमले की खबर सुन, राजा छविप्रिय घबरा गए। क्या करें। सोचने लगे-‘ शायद कल्याणी पुतली के नाराज होने से ही विपदा आई है’। भागे-भागे सिंहासन के पास गए। क्षमा माँगकर कल्याणी से उपाय पूछा। पुतली बोली-“राजन्, राग-रंग में डूबे राजा का यही हाल होता है। अब भी भला चाहो, तो अपने पुराने सभासदों, अनुभवी मंत्रियों और भूतपूर्व सेनापति से सलाह लो। मेरी मानों, आधी रात होने पर शत्रु पर जोरदार हमला करो। शत्रु आपसे कम ताकतबर है। साहस से काम लो”।
राजा ने वही किया। रात में अचानक हमले से शत्रु घबरा गए। सेना के पैर उखड़ गए। इसी तरह आई विपत्ति टल गई। अब राजा की समझ में आ गया कि अनुभवी सभासदों से सलाह लेना क्यों जरूरी है? बस, उसी दिन से राजा, प्रजा के कल्याण और राज के सृदृढ़ करने में जुट गए। पुतलियाँ अब भी उनसे अपनी बातें कहती, मगर राजा उनकी बातें सुनकर अब अपने विवेक से काम लेते थे।
Hindi Story- धर्म संकट (कहानी न0-3)
एक बार इंद्रपुर गाँव में एक विद्वान पंडित का आगमन हुआ, नाम था विश्वम्भर शर्मा। विश्वम्भर धर्मशास्त्रों में पारंगत और प्रवचन में कुशल थे। गाँव के बुजुर्गो ने विश्वम्भर से शास्त्रों पर प्रवचल करने का अनुरोध किया। विश्वम्भर ने स्वीकार कर लिया। गाँव के शिवालय में सभा का उचित प्रबन्ध किया गया।
पहले दिन विश्वम्भर ने शास्त्रों के अनुसार धर्म की व्याख्या की और अनेक उदाहरणों से अपने भाषण में प्राण भर दिये। अन्त में उन्होंने कहा,-“पाप केवल पापाचरण को ही नहीं कहते, उसमें सहयोग देने को भी कहते हैं। उदाहरण के लिए जिस प्रकार मद्यपान करना पाप है, वैसे ही मद्यपान करने वालों के साथ संपर्क रखना, उन्हें सहायता या किसी प्रकार का प्रोत्साहन देना भी पाप ही मानना चाहिए”।
दूसरे दिन विश्वम्भर ने अपने प्रवचन में कहा, “मनुष्य को कैसी भी स्थिति में असत्य नहीं बोलना चाहिए”। उन्होंने इस प्रसंग में राजा हरिश्वर की कहानी सुनाकर सबके हृदय के द्रवित कर दिया।
विश्वम्भर शर्मा अपना प्रवचन समाप्त करके अपने अतिथेय गाँव के मुखिया गौरीनाथ के घर की तरफ बढ़ने लगे। रास्ते में अनन्तराम नाम के एक युवक ने उन्हें प्रणाम करके कहा, “पंडितजी, अपने धर्म की अनेक सूक्ष्म बातों को मर्मस्पर्शी शैली में प्रकट किया है। मैं अपने जीवन को उनके अनुरूप ढालने का प्रयत्न करूगाँ”। यह कहकर अनन्तराम चला गया।
युवक अनन्तराम की बात सुनकर पं. विश्वम्भर शर्मा को अत्यधिक प्रसन्न्ता हुई। वे साथ आ रहे मुखिया गौरीनाथ से बोले, “आज के ज़माने में किसी आदर्श का पालन करने वाले युवकों का नितान्त अभाव हो गया है। ऐसी स्थिति में अनन्तराम की प्रशंसा करनी होगी, जो सुने हुए के अमल में लाने का इच्छुक है”।
मुखिया गौरीनाथ ने मुस्कराकर कहा, “आपने अनन्तराम की बात पर एकदम विश्वास कर लिया। यह एक शरारती युवक है और गाँव के बड़े-बढ़ो के प्रति बिलकुल श्रध्दा नहीं रखता। मुझे तो पूरा सन्देश है कि यह कोई अवसर ढूँढ़कर आपका मज़ाक उड़ाना चाहता है”।
विश्वम्भर कुछ क्षण मौन रहकर बोले, “आदमी का यह स्वभाव होता है कि वह दूसरे की सच्चाई पर विश्वास नहीं करना चाहता। पर मेरा विश्वास है कि अनन्तराम ने जो कुछ कहा है, वह सच है और उसने मेरे प्रवचन को पूरी तरह हृदयंगम किया है”।
दूसरे दिन प्रात:काल विश्वम्भर शर्मा गौरीनाथ के चबूतरे पर बैठकर किसी से बात कर रहे थे कि अनन्तराम ने प्रवेश करके उन्हें प्रणाम किया। फिर वह बोला, “पंजितजी, मैं आज बड़े धर्मसंकट में पँस गया हूँ। इस संकट से बाहर निकलने का उपाय भी आपको ही बताना होगा”।
विश्वम्भर ने पूछा, “बोलो, बताओ, वह कौन-सा धर्मासंकट है?”
“पंडितजी, आज सुबह जब मैं खेत से लौट रहा था तो रास्ते में मुझे दो शराबी मिले। वे इस गाँव के नहीं थे। वे मुझे तंग करने लगे कि मैं उन्हें इस गाँव के शराब़खाने का रास्ता बताऊँ। मैंने आपके मुँह से सुना था कि शराब पीने की तरह ही शराबियों की मदद करना भी पाप है। इसलिए मैंने उन्हें बताया हूँ कि मैं शराबख़ाने का रास्ता नहीं जानता हूँ। पर पंडितजी, मैं तो विचार किया तो मुझए लगे कि मैंने झूठ का सहारा लिया है। वे शराबी भी अभी तक सड़को पर भटक रहे है”। अनन्तराम ने कहा।
विश्वम्भर ने कुछ हँसकर कहा, “इसमें धर्मसंकट की कोई बात नहीं है। तुमने जो कुछ किया, ठीक किया। बुरे काम करने वाले को रोकने के लिए बोला गया वचन या किया कर्म धर्मसंकट ही कहलाता है”।
विश्वम्भर का उत्तर सुनकर अनन्तराम ज़ोर से बोलने लगा, “अरे, आप भी कैसे पंडित हैं? शराबख़ाने का पता बतायें तो यह काम शराबियों को प्रोत्साहन देने में आ जायेगा, लेकिन पता मालूम होने पर भी ‘हीं मालूम है’ ऐसा कह दें तो वह झूठ बोलना हो जायेगा। ऐसें समय क्या करना चाहिए, क्या यह बात शास्त्रों में नही बतायी गयी है?”
मुखिया गौरीनाथ को पहले ही सन्देह था। अब बाहर शोर सुना तो वह समझ गया कि अनन्तराम ने विश्वम्भऱ के सामने अवश्व ही कोई बखेड़ा खड़ा किया है। इस बीच कुछ लोग बाहर जमा हो गये थे।
अनन्तराम ने गौरीनाथ को अपना हाल बताकर कहा, “मुखिया जी, ये कैसे पंडित हैं जो ऐसे मामूली से धर्मसंकट से मुक्ति पाने का उपाय भी नहीं बता सकते? ये इतने साधारण से मार्गदर्शन में असमर्थ हैं, फिर भी, हम रेज़ इनका प्रवचन सुनते हैं और भेड़ो की भाँति सिर हिलाते हैं”।
गौरीनाथ ने शांतिपूर्ण स्वर में कहा, “जो कुछ हुआ, उसके लिए पंडितजी की निंदा क्यों करते हो? तुम जिसे धर्मसंकट कहते हो, उससे उबरने का रास्ता भी तुम्हारे हाथों में है”।
“अच्छा ऐसी बात है। क्या वह रास्ता आप मुझए बतायेंगे?”
अनन्तराम ने विस्मित होकर प्रश्न किया।
“तुम इसी समय जाओ औऱ उन शराबियों से मिलकर कहो-‘मैं शराबख़ाने का रास्ता जानता हूँ, लेकिन मैं तुम्हें बताना नहीं चाहता’। उन्हें यह जवाब देकर तुम अपने घर जाओ, तुम्हारा धर्मसंकट स्वयं ही दूर हो जायेगा”।
वहाँ जो लोग एकत्रित हो गये थे, वे गौरीनाथ की बातों का समर्थन करते हुए तालियाँ बजाने लगे। उनकी हँसी से अनन्तराम का सिर शर्म से झुक गया और वह वहाँ से चला गया।
अब विश्वम्भर शर्मा ने कहा, “धर्मसंकट खड़ा करने वाले अनन्तराम जैसे लोगों से निपटने के लिए मेरा पांडित्य कम पड़ गया। वास्तव में ऐसी समस्याओं के हल में पांडित्व की नही व्यावहारिक ज्ञान की जरूरत है। इस क्षेत्र में मुखिया गौरीनाथ जैसे व्यक्ति ही सफल हो सकते हैं”।
Hindi Story- दो देवियाँ (कहानी न0-4)
शिलापुर राज्य की सीमा के निकटवर्ती वन में दो मंदिर थे। उनमें से एक मंदिर में प्रियाम्बा नाम की देवी की प्रतिष्ठा थी और दूसरे मंदिर में जगदम्बा की।
प्रियाम्बा देवी में यह शक्ति थी कि वह प्रतिदिन अपने पास आने वाले भक्तों में से केवल दो भक्तों की ही कामना को पूर्ण कर सकती थी, जबकि जगदम्बा प्रतिदिन केवल एक भक्त की कामना को ही पूर्ण कर सकती थी। कामनाओं के अधिक फलीभूत होने के कारण ही प्रियाम्बदा का मंदिर सदा भक्तों से भरा रहता था। पर जगदम्बा के मंदिर में भक्तों की भीड़ बहुत अधिक नहीं होती थी। इस कारण प्रियाम्बा के अन्दर अहंकार घर कर गया था
कभी रात्रि के समय यदि प्रियाम्बा की जगदम्बा से भेंट हो जाती, तो वह बड़े गर्व के साथ कहती, “जगदा, देखो मैं कितनी महिमाशाली हूँ। तुम्हें देखकर तो मुझे बड़ी दया आती है। मेरा मंदिर भक्तों से शोभायमान रहता है। पर तुम्हारा मंदिर तो कई बार सुनसान रहता है। तुम्हें कितना दुख होता होगा?”
प्रियाम्बा की बात के उत्तर में जगदम्बा शांतिपर्वक कहती, “प्रियाम्बा, इसमें दुखी होने की क्या है? हम दोनों ही तो भक्तों का हित और कल्याण चाहती हैं”।
जगदम्बा का यह उत्तर प्रियाम्बा को अत्यन्त निराशाजनक प्रतीत होता। उसके अहंकार की तृप्ति न होती। वह तो चाहती थी कि जगदम्बा उसकी प्रशंसा करे और अपने भाग्य को रोना रोये। पर यहाँ तो बात बहुत ही उलटी थी।
एक दिन एक विशेष घचना घटी। शिलापुरी के राजा शरदचंद्र घोड़े पर सवार होकर अकेले ही प्रियाम्बा के मंदिर में आये। उन्होंने मंदिर के सामने अपना घोड़ा रोका ओर उतरकर मंदिर के अन्दर गये। राजा शरदचंद्र ने प्रियाम्बा की प्रतिमा के सामने प्रणाम करके कहा, “देवि, मैं तुम्हारी महिमा से भलीभाँति परिचित हूँ। मेरी एक कामना है। मैं पड़ोसी राजा सत्यपाल पर शीघ्र ही आक्रमण करूगाँ। उस युध्द में धन-जन की चाहे कितनी भी बड़ी हानि क्यों न हो, मुझे विजयश्री चाहिए। माता, आप मुझे जीत का आशीर्वाद दो”।
इस घटना के कुछ देर बाद ब्रम्हरुद्र नाम का एक लुटेरा मंदिर में आया। उसने प्रियाम्बा देवी को भक्तिपूर्वक प्रणाम करके निवेदन किया, “हे महिमाशालिनी अम्बा, शिलापुरी के एक धनवान सेठ के घर में विवाह का उत्सव है। मैं वहाँ अपने अनुचरों के साथ जाऊँगा और वहाँ के सब लोगों को लूटूँगा। मुझे इस काम में सफलता मिले, यह वर देना”। इस प्रकार अपनी कामना प्रकट करके लुटेरा ब्रम्हरुद्र भी चला गया।
फिर कुछ देर रक्तभैरव नाम का एक राक्षस मंदिर में आया। वह पास के घने वन में रहता था। उसने प्रियाम्बा देवी से निवेदन किया, “देवि अम्बा, चार दिन से नरमाँस न पाने के कारण मैं भूख से तड़प रहा हूँ। इसलिए मुझ पर कुछ ऐसी कृपा करो कि मुझे चार मनुष्य तत्काल आहार के रूप में प्राप्त हो जायें और इसके बाद भी प्रतिदिन मुझे नरमाँस प्राप्त होता रहे”। इस प्रकार विनती करके वह राक्षस भी चला गया।
देवी प्रियाम्बा ने राजा, डाकू और राक्षस तीनों की प्रार्थनाएँ क्रमश: सुनीं। देवी ने समझ लिया कि इन तीनों की कामनाएँ ही अंधी और अन्यायपूर्ण हैं। देवी प्रियाम्बा ने निश्चय कर लिया कि इन तीनों की कामनाओं को पूर्ण नहीं किया जायेगा। देवी अपने मंदिर में पूरे दिन प्रतीक्षा करती रही कि कुछ और भक्त आयें और अपनी कामना का निवेदन करें। पर अत्यन्त आश्चर्य की बात यह हुई कि उस दिन उन तीनों के अलावा अन्य कोई भक्त नहीं आया। देवी प्रियाम्बा के सामने जटिल समस्या उत्पन्न हो गयी।
देवी में विद्यमान शक्ति का यह नियम था कि प्रतिदिन दो भक्तों की कामनाओं की पूर्ति अवश्य करनी है। ऐसा न होने पर देवी की शक्ति का लोप हो जायेगी। राजा, डाकू और राक्षस की कामनाओं को पूर्ण करना अधर्म है और अन्याय था। देवी नहीं चाहती थी कि उससे ऐसा अधम काम हो, पर वह अपनी शक्ति से भी वंचित नहीं होना चाहती थी।
प्रियाम्बा समस्या को सुलझाने का जितना अधिक प्रयत्न करती, समस्या उतनी ही जटिल हो जाती। ऐसी स्थिति में उसे जगदाम्बा का स्मरण आया। उस रात वह जगदम्बा से मिलकर बोली, “जगदा, मेरे सामने एक जटिल समस्या उत्पन्न हो गयी है। इसे सुलझाने का कोई उपाय बताओं, इसीलिए मैं तुम्हारे पास आयी हूँ”।
“कैसी जटिल समस्या?” जगदम्बा ने उससे पूछा।
प्रियाम्बा ने अपने पास आये राजा, डाकू और राक्षस की कामनाएँ सुनाकर कहा, “जगदा, इन तीनों की ही कामनाएँ अन्य लोगों के लिए हानिकारक हैं। मैं इन्हे पूरा करना नहीं चाहती। तुम जानती ही हो, यदि मैं प्रतिदिन दो भक्तों की कामनाओं को पूरा न करूँ, तो मेरी शक्ति का लोप हो जायेगा। पर आज सबसे बड़े दुख और आशचर्य की बात तो यह हुई कि मेरे पास आज इन तीनों के अलावा और कोई नहीं आया। अब स्थिति यह है कि या तो मैं उनकी कामनाओं को पूर्ण करूँ या अपनी शक्ति खो दूँ। मेरी समझ में नहीं आता कि मैं क्या करुँ?”
सारा वृत्तान्त सुनकर जगदम्बा बोली, “प्रिया, तुम चिंता न करो। जैसा मैं कहती हूँ वैसा करो। तुम्हें उन तीनों की कामनाओं की पूर्ति करने की कोई आवश्यकता नहीं है। फिर भी, तुम्हारी महिमाओं का, और तुम्हारी शक्ति का नाश नहीं होगा”।
जगदम्बा की बात सुनकर प्रियाम्बा विस्मित हो उठी। उसने पूछा, “जगदा, लेकिन यह कैसे संभव है?”
“सुनो, प्रिया। तुम उनकी कामनाओं की पूर्ति न करो। प्रकट ही है कि इस प्रकार तुम्हारी शक्ति का लोप हो जायेगा। तदुपरान्त तुम मेरे पास आकर मुझसे कामना करना कि तुम्हारी शक्ति तुम्हें पुन: प्राप्त हो जाये। तुम मेरी शक्ति के विषय में जानती ही हो कि मैं प्रतिदिन एक व्यक्ति की कामना-पूर्ति कर सकती हूँ। मैं तुम्हारी खोयी हुई शक्ति कों तुम्हें पुन: वापस दिला दूँगी”। जगदम्बा ने समझाया।
जगदम्बा का उत्तर सुनकर प्रियाम्बा को एक नई चिंता ने आ घेरा। उसने अनेक अवसरों पर जगदम्बा के सामने अपने बड़प्पन की प्रशंसा की थी और उसे छोटा दिखाने का प्रयत्न किया था। इस समय यदि वह उन तीनो में से दो व्यक्तियों की कामना की पूर्ति नहीं करती है तो वह शक्तिहीन हो जायेगी। ऐसी स्थिति में यह भी संभव है कि जगदम्बा के हृदय में प्रतिशोध की भावना जग जाये और वह ईर्ष्यावश उसकी कामना की पूर्ति न करे। तब उसकी क्या दशा होगी? जब भक्त उसे शक्ति और महिमा-विहीन समझेंगे तो वे उसके मंदिर में आना छोड़ देंगे और जगदम्बा को ही अपनी इष्टादेवी मान लेंगे। तब उसे कितनी व्यथा होगी? वह अपने पुराने वैभव को याद कर कितना तड़पेगी?
प्रियाम्बा कुछ देर तक इसी प्रकार के सोच-विचार में डूबी रही। इसके बाद उसने अपने मन में कोई निर्णय किया और दृढ़तापूर्वक मन ही मन बोली, “मेरी शक्ति रहे य जाये, किन्तु मेरे पास आये राजा, डाकू और राक्षस की कामनाएँ निष्फल हो जाये”।
दूसरे ही क्षण प्रियाम्बा के शरीर से शक्ति तिरोहित हो गयी। उसका मुखमंडल तेजविहीन हो गया, शरीर की शोभा मलिन हो गयी। प्रियाम्बा ने समझ लिया कि अब वह पूरी तरह शक्तिविहीन है। उसने हाथ जोड़कर बड़े विनम्र भाव से जगदम्बा से कहा, “जगदम्बा देवि, मुझे मेरी खोयी हुई शक्ति प्रदान करे”।
“तथास्तु”। जगदम्बा ने आशीर्वाद दिया।
दूसरे ही क्षण प्रियाम्बा का मुख-मंडल दिव्य तेज से दमक उठा। बेताल ने यह कहानी सुनाकर कहा, “राजन्, प्रियाम्बा में जगदम्बा से अधिक शक्ति अवश्य थी, पर जगदम्बा के प्रति उसका व्यवहार अत्यन्त अहंकारपूर्ण एवं क्षुद्र था। जगदम्बा ने पुन: उसे शक्तिसंपन्न बना दिया। ऐसा उसने किस प्रभाव के कारण किया, यदि इस संदेह का समाधान आप जानकर भी न करेंगे तो आपका सिर फूटकर टुकडे-टुकड़े हो जायेगा”।
तब विक्रमादित्य ने उत्तर दिया, “यह सत्य है कि प्रियाम्बा में पहले अहंकार था और यह वह जगदम्बा के साथ क्षुद्र व्यवहार भी करती थी। पर जब उसने अनुभव किया कि तीन दुष्ट और स्वार्थी लोगों ने उसके सामने जो कामनाएँ रखी हैं, वे दूसरों की विपदा और विनाश का कारण हैं, तो उसका हृदय परिवर्तित हो गया। वह अहंकारिणी अवश्य थी, पर उसमें सद्-असद् का विवेक भी था। उन तीनों में से किन्ही दो की कामनाओं की पूर्ति न करने पर उसकी शक्ति का नाश हो जायेगा, वह अच्छी तरह जानती थी। फिर भी वह इस बलिदान के लिए तत्पर हो गयी। यह त्याग का कोई निस्वार्थी एवं विशाल हृदय व्यक्ति ही कर सकता है। इस घटना से प्रियाम्बा के गुणों को प्रकाश मिल गया। उधर जगदम्बा स्वभाव से ही नम्र, मधुर और प्रेममयी थी। अपनी ही श्रेणी की एक देवी की सहायता करने में उसकी कोई हानि नहीं थी। जगदम्बा का कार्य त्याग की भावना से प्रेरित नहीं, उसके हृदय की उदारता का परिचायक है। यहाँ परस्पर के प्रभाव का प्रश्न नहीं है, सद्भावना का प्रश्न है। प्रियाम्बा ने जो कुछ किया, वह निश्चय ही प्रशंसनीय है”। राजा विक्रमादित्य के इस प्रकार मौन होते ही बेताल शव के साथ अदृश्य होकर पेड़ पर जा बैठा।
Hindi Story- भाई-बहन (कहानी न0-5)
पीटर और सांता दो अनाथ भाई-बहन थे। उनके माँ-बाप एक रेल दुर्घटना में मारे गए थे। तब ये दोनों बहुत ही छोटे थे। इसके बाद वे अपनी चाची के पास रहने लगे। चाची का नाम था रेबेका पोसिट। दोनों भाई-बहन उसे रेबेका चाची कहते थे।
रेबेका ने जागीरदार की पत्नी के पास नौकरी की थी। बड़े घर में नौकरी करने से रेबेका के मन में अहंकार समा गया। वह दूसरे लोगों को अपने से छोटा समझने लगी थी। दोनों बच्चों से भी बहुत कठोर व्यवहार करती थी। पीटर और सांता का मन दुखी रहता था, पर ये और किसके पास जाते? कोई भी तो था नहीं उनका अपना। रेबेका का अपना कोई बच्चा नहीं थी।
जागीरदार की पत्नी मरते समय रेबेका के लिए कुछ धन छोड़ गई थी, इसीलिए जैसे-तैसे रेबेका और बच्चों का जीवन चल रहा था। दोनों उम्र से बच्चे थे, पर दूसरे बच्चों जैसा जीवन नहीं था उनका। जब-जब वे दूसरे बच्चों को हँसते-खिलखिलाते देखते, तो उनका मन रो उठता।
और फिर एक दिन चाची रेबेका भी तल बसीं। अब तो पीटर और सांता बिल्कुल ही अकेले रह गए थे, इतनी बड़ी दुनिया में। हाँ, रेबेका के कुछ मित्र अवश्य थे, जिन्होंने तय किया कि पीटर और सांता के लिए अनाथालय ही सबसे अच्छी जगह है।
लेकिन दोनों को अलग-अलग अनाथालय में जाना था। क्योंकि लड़के-लड़कियाँ अलग-अलग रहते थे। जब पीटर और सांता को यह बताया गया, तो बहुत परेशान हो उठे। उन्होंने सोचा, चाहे जो हो, ये साथ-साथ रहेंगे। कभी अलग नहीं होगें।
तभी पीटर को याद आया, चाची रेबेका के एक रिश्तेदार सर्कस में काम करते हैं। नाम था गस। पीटर को उनका कार्ड मिल गया था।
“हम उनके पास जायेंगे। शायद वहाँ हमें रहने की जगह मिल जाए”। “पर हम उनसे कभी नहीं मिले हैं। अगर उन्होंने मना कर दिया तो क्या होगा?”-सांता ने कहा।
पीटर बोला-“तो फिर हमें अगल-अलग अनाथालय में रहना होगा”।
“नहीं, नहीं, मैं तुमसे अलग होकर कहीं नहीं रहूँगी”।–सांता की आवाज में डर झांक रहा था।
और फिर एक रात दोनों भाई-बहन अनजान सफर पर चल दिए। वे कुछ नहीं जानते थे कि कहाँ जाना हैं, और जिसके पास जा रहे हैं, वह कैसा आदमी है। पर एक नन्ही-सी आशा भी थी-शायद रास्ता मिल जाए। यह गस नामक व्यक्ति उन्हें अपना ले। जब तो उन्हें अनाथालय में नहीं जाना पड़ेगा। इस तरह अंधेरी सड़कों पर नहीं भटकना पड़ेगा।
रात बीतने लगी। दोनों भाई-बहन चले जा रहे थे। सड़क के दोनों ओर मकानों में लोग आराम की नींद में डूबे थे। पर अभागे पीटर और सांता आश्रय की खोज में भटक रहे थे। नींद सताने लगी, तो दोनों एक मकान की सीढ़ियों पर लेट गए। फिर न जाने कब नींद आ गई।
एकाएक पीटर की नींद खुली। एक आदमी पास में खड़ा उसे झकझोर रहा था। वह उस मकान में रहता था।
अब तक सांता की नींद भी टूट गई थी। उस आदमी को दो बच्चों को इस तरह खुले में सोते देखकर हैरानी हो रही थी। उसने पूछा, तो पीटर ने सारी बात कह सुनाई। बता दिया कि उनके गस अंकल काब्स सर्कस में काम करते हैं।
उस आदमी ने बता दिया कि काब्स सर्कस ब्राइडलिंटन में खेल दिखा रहा है। उसने कहा-“बच्चो, रात को मेरे घर में आराम करो। सुबह चले जाना”।
बाकी रात दोनों ने नरम बिस्तर पर आराम से बिताई। सुबह अंकल गस की खोज में चल दिये। वे पूछ-ताछकर बढ़ते रहे। जब पीटर और सांता ब्राइडलिंटन में पहुँचे, तो काब्स सर्कस अभी वहाँ नहीं पहुँचा था।
कुछ देर बाद सर्कस की गाड़ियाँ एक मैदान में आकर खड़ी होने लगीं। उनमें हाथी, घोड़े और सींखचेदार बड़े-बड़े पिंजरों में शेर भी थे। वे वहाँ खड़े-खड़े देखते और रोमांचित होते रहे। किसी सर्कस को इतने निकट से देखने का दोनों भाई-बहनों के लिए यह पहला मौका था।
उन्होंने गस के बारे में पूछा, तो एक आदमी दोनों को अपने साथ ले गया। गस अधेड़ उम्र का, गम्भीर चेहरे वाला आदमी था। जब उसे पता चला कि उसके भतीजा-भतीजी आए हैं, तो वह हैरान हुआ। अपने तम्बू से बाहर आ गया।
पीटर और सांता ने उसे नमस्कार किया। चाची रेबेका के बारे में बताया। कहा-“अब हमारे पास कोई स्थान नहीं है रहने के लिए। इसीलिए हम आपके पास आए हैं। हम अलग-अलग अनाथालय में जाकर नहीं रहना चाहते”।
गस अकेला रहता था। उसे दोनों बच्चों का आना अच्छा नहीं लगा। वह रेबेका का दूर रिश्तेदार था। उसे यह कल्पना नहीं थी कि इस तरह दो अनाथ बच्चे ढूँढ़ते हुए यहाँ तक आ जायेंगे। पर पीटर और सांता को एकदम दुत्कार भी नहीं सकता था, क्योंकि सारे सर्कस में गस के रिश्तेदारों की चर्चा होने लगी थी।
गस ने कठोर स्वर में कहा-“तुम दोनों मेरे पास क्यों आए? अनाथालय में चले जाते, तो अच्छा रहता। खैर, जब तक सर्कस खेल दिखा रहा है, तब तक मैं तुम लोगों को साथ रखूँगा। उसके बाद तुम जानों, तुम्हारा का”।
पीटर और सांता गस के रूखे व्यवहार से सहम गए। वे जाते भी तो कहाँ? वे जानना चाहते थे कि सर्कस कब तक खेन दिखाएगा, पर कुछ भी पूछने की हिम्मत न हुई। इस तरह सांता और पीटर काब्स सर्कस के साथ रहने लगे। वहाँ की दुनिया उनके लिए अनोखी थी। दिन में सर्कस के कलाकारों को अभ्यास करते देखते, तो विचित्र लगता।
सर्कस जिस कसबे में जाता-कलाकारों के बच्चे वहाँ के स्कूल में पढ़ने के लिए जाते। हर कस्बे में सर्कस चार-पाँच दिन तक रुकता था। पीटर सोचता था-‘विचित्र है यह पढ़ाई। ऐसे में कोई क्या पढ़ सकता है भला’। पर वे दोनों तो उस दिन तक एक बार भी स्कूल नहीं गए थे।
गस के कहने पर वे बच्चों के साथ एक स्कूल में गए। वहाँ के छात्रों ने इनका खूब स्वागत किया। छात्रों ने पीटर और सांता का परिचय पूछा, तो पीटर ने संकोच से कहा-“हम सर्कस वाले नहीं है। हम तो थोड़े समय के लिए आए हैं”। फिर भी वे इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सके कि कहाँ से आए हैं?
सर्कस कलाकारों के बच्चे स्कूल में करतब दिखाने लगे, पर सांता और पीटर के पास दिखाने के लिए कुछ नहीं था। सच तो यह था कि रेबेका चाची ने उन्हें कुछ भी नहीं सिखाया था।
दोनों भाई-बहन सर्कस वाले बच्चों से अलग खड़े थे। सांता ने कहा-“मैं सर्कस के करतब तो नहीं जानती, पर बहुत अच्छा वायलिन बजा सकती हूँ”।
“और में लैटिन जानता हूँ”।–पीटर ने गर्व से कहा। वे दोनों झूठ बोल रहे थे।
गस ने यह सुना, तो उसने सांता से कहा-“मैने सुना, तुम बहुत अच्छा वायलिन बजाती हो। सबको कोई धुन सुनाओ”। उस समय गस के आसपास कई लोग बैठे थे। अब तो सांता के काटो तो खून नहीं।
वायलिन लाया गया, पर सांता ठीक से न बजा सकी। सब उसकी हँसी उड़ाने लगे। पीटर डर रहा था कि कहीं उसके लैटिन ज्ञान की परीक्षा न लेने लगें।
एक रात पीटर और सांता को नींद नहीं आ रही थी। सर्कस का शोर शांत हो चुका था। कलाकार दर्शकों की भीड़ के सामने अपना कौशल दिखाकर आराम से सो रहे थे। पशुओं के बाड़ो में भी शांति थी। तभी सांता ने कहा-“पीटर, हम यहाँ रहते हुए भी, यहाँ के नहीं है”।
-“हाँ, सांता। यहाँ हमें कोई नहीं चाहता। गस अंकल तो जरा भी पसंद नहीं करते। आखिर हम क्या करे”।
“हमें गस अमकल का मन जीतना चाहिए”।–सांता ने पीटर से कहा-“तभी हम यहाँ रह सकेंगे”। वे गस अंकल को कैसे खुश कर सकते हैं, इसी पर सोचते-सोचते सो गए।
सुबह हुई तो सांता ने डेरे की सफाई करके नाश्ता बनाना शुरु कर दिया। उसे आशा थी, नाश्ता करके गस उसकी तारीफ करेगा। पर उसे निराश होना पड़ा। गस ने कहा-“सांता, तुम्हें नाश्ता बनाना नहीं आता। आगे कभी मत बनाना”। दु:ख और अपमान के कारण सांता रो पड़ी।
उधर पीटर गस की कार को चमकाने में लगा था। उसे लग रहा था, गस अंकल उसकी मेहनत से प्रसन्न होकर उसे शाबासी देंगे, पर गस ने देखकर मुँह चढ़ा लिया। कहा-“यह सब तुम्हारा काम नहीं। जाकर बच्चों के साथ खेलो”।
पीटर और सांता का मन रो उठा। उन्हें लगा कि वे गस का मन कभी नहीं जीत सकेंगे। पीटर ने सांता से कहा-“बहन, मैं सोचता हूँ, हमें कोई और रास्ता अपनाया होगा”।
“हाँ, मेरा भी यही ख्याल”।–सांता बोली।
उस दिन से उन्होंने गस को प्रसन्न करने की कोशिश छोड़ दी। सांता लड़कियों को सर्कस के करतब सिखाने वाली महिला के पास गई। उससे सीखने की इच्छा प्रकट की। पीटर बेन नामक व्यक्ति के पास गया। बेन घुड़सवारी की प्रशिक्षण देता था। वह पीटर को प्रशिक्षण देने के लिए तैयार हो गया।
पीटर और सांता चुपचाप सीखने लगे। यह सब वे गस से छुपकर कर रहे थे। वे उसे चौंका देना चाहते थे। पीटर सुबह मुँह अँधेरे सीखने के लिए नुकल जाता। इसी तरह दिन बीत रहे थे। गस को पीटर और सांता के बारे में सचमुच कुछ पता नहीं था। वह उन्हें अपने पर बोझ मान रहा था। चाहता था कि सर्कस का सीजन खत्म हो तो वह दोनों से छुट्टी पा ले।
एक सुबह सर्कस में हड़कम्प मच गया। सब इधर-उधर भाग-दोड़ कर रहे थे। पीटर भी बाहर आकर देखने लगा। सब हाथियों के बाड़े की तरफ दोड़े जा रहे थे। पता चला-रानी नामक हथिनी गुस्से में है। उसने महावत को उठाकर परे फेंक दिया था। न जाने क्या कर बैठे। पीटर जाकर बाड़े के बाहर खड़ा हो गया। रानी बार-बार सूंड उठाती और इधर से उधर हिलाती। सब कह रहे थे-“परे रहो। दूर रहो”। पर पीटर न जाने कब रानी के पास जा पहुँचा। वह हथेली से रानी की सूंड थपथपाने लगा। वहाँ खड़े लोगों में सन्नाटा छा गया। सब सांस रोके देख रहे थे। वे पीटर के लिए चिंतित थे। सोच रहे थे-“रानी अब उसे पैरों से कुचल देगी”।
पर ऐसा कुछ न हुआ। पीटर द्वारा इस तरह सूंड थपथपाने से रानी की उत्तेजना शांत होती गई। पीटर की जेब में गाजरें थी। उसने गाजरें दीं, तो रानी खाने लगी। कुछ देर में वह सामान्य हो गई। पीटर बहुत देर तक रानी के पास खड़ा दुलारता रहा। पूरे सर्कस में पीटर के साहस की चर्चा थी। लोग कह रहे थे-“अगर पीटर न होता, तो रानी न जाने क्या कर डालती”। पीटर सोच रहा था-‘क्या गस अंकल ने भी यह बात सुनी होगी?’
वह सर्कस का आखिरी दिन था। गस ने पीटर और सांता से कहा-“अब मैं तुमसे विदा लूँगा। मैंने तुम दोनों के लिए एक स्कूल में व्यवस्था कर दी है। तुम्हारी रेबेका चाची के मित्र तुम्हारी देखभाल करेंगे”।
रेबेका चाची के मित्रों के पास जाने की बात सुन, दोनों परेशान हो उठे। उन्हीं के पास से भागकर तो पीटर और सांता यहाँ आए थे। अब वे सर्कस की जिन्दगी स्वीकार कर चुके थे, तो उन्हें फिर से निकालगे की तैयारी हो रही थी।
उस रात सर्कस के तम्बू में आग लग गई। घोड़े उसमें फँस गए। पीटर ने देखा, तो फिर दौड़ता हुआ तम्बू में घुस गया। घोड़ो के बन्धन खोलकर बाहर ले आया। इस काम में उसे कुछ चोट भी आई, पर उसने परवाह नहीं की। उसे खुशी थी कि उसने घोड़ों को जलने से बचा लिया था।
अगली सुबह सब विदा हो रहे थे। सर्कस का सामान गाड़ियों मे लादा जा रहा था। पीटर और सांता एक तरफ खड़े थे। वे किसी के नहीं थे, कोई नहीं था उनका।
तभी सर्कस के मालिक ने गस से कहा-“मैंने सुना है, तुम दोनों बच्चों को दूर के स्कूल में भेज रहे हो। यह तो ठीक नहीं है। अब ये हमारे हैं। ये कहीं नहीं जायेगे। हमारे साथ रहेगे”।
पीटर और सांता ने गस अंकल को पहली बार हँसते देखा-“बच्चे जैसा चाहें”। अब दोनों भाई-बहन अनाथ नहीं रह गए थे। उन्हें अपना सरकस का परिवार मिल गया था। वे मुसकरा रहे थे।
Hindi Story- करेले (कहानी न0-6)
गोरा गाँव में एक विधवा स्त्री गोमती रहती थी। उसकी एक ही बेटी थी। नाम था सुंदरी। वह जन्म से ही गोरी-चिट्टी और सुन्दर थी। जब वह बड़ी हुई, तो उसकी शादी के लिए तमाम धनी-मानी रिश्ते आने लगे। सुंदरी जिस रिश्ते के लिए राजी हुई, माँ ने उसी की हामी भर ली।
जिस दिन सुंदरी का शगुन चढ़ा गोमती को उसी रात सपने में एक फुफकारता हुआ नाग दिखा। अब तो हर रात सपने में यही होता। वह नाग फुफकारकर उसे डसने के बजाए, उसके पैरों में अपना फन रखता। फिर उसे उसका वचन याद कराता। गोमती पसीना-पसीना होकर डरी-डरी सी उठ बैठती। सुंदरी के बहुत पूछने पर वह केवल इतना ही कहती-“कुछ भी तो नहीं, बेटी। मैं सोच रही हूँ, शादी के बाद जब तू अपनी ससुराल चली जाएगी, तो मैं बिल्कुल अकेली रह जाऊँगी”।
सुंदरी को माँ ऐसा लाड़-प्यार भरी बातों से बहला देती। लेकिन उसके ब्याह के दिन जैस-जैसे समीप आने लगे, गोमती उस नाग के डर से पीली पड़ने लगी। होते-करते सुंदरी का तिलक भी चढ़ गया। आखिर लगन मंडप की स्थापना वाली रात, उस नाग ने सपने में माँ को यह चेतावनी दी-“यदि सुंदरी का ब्याह किसी और से हुआ, तो मैं सुंदरी को शादी से पहले ही डस लूँगा”।
अब तो गोमती और भी डर गयी। उसे एक पुरानी बात याद आ गई। असल में सुंदरी जब गर्भ में थी, तो गोमती को मसालेदार करेलों का चस्का लग गया था। आए दिन वह नदी के किनारे की अपनी बेल से करेले तोड़ लाती। उसी नाग ने चुपचाप एक दिन अपनी कुंडली में उसके पैरों को जकड़ लिया। वह भयभीत होकर वहीं गिर पड़ी। शाम का समय, दूर-दूर तक उसे बचाने वाला कोई नहीं था। वह नाग मनुष्य के स्वर में बोल रहा था-“माँ तुझे डसूंगा नहीं बस, तू मुझे यही वचन दे कि तेरी जो कन्या होगी, उसे मेरे साथ ब्याह देगी”।
गोमती बेचारी मरती क्या न करती। वह हारकर, उस नाग के साथ होने वाली अपनी बेटी की शादी का वायदा करके घर लौटी।
तीन महीने बीतने के बाद जब गोमती ने सुंदरी को जन्म दिया, तो मानो उसे सांप सूंघ गया। सने सुंदरी के पिता रघुनाथ को भी कुछ नहीं बताया। होते-होते सुंदरी पूरे पंद्रह साल की हो गई। वह रघुनाथ की दुलारी बेटी थी। बचपन से ही ऐसी निडर कि अपने पिता के साथ नदी में तैरती थी। नही में वह नाग उसे जब-तब दिख जाता। मगर सुंदरी को डर नहीं लगता था।
लेकिन पिछले साल सुंदरी के पिता गुजर गए। हुआ यह कि मूसलाधार बरसात के कारण नही में भीषण बाढ़ आई। रघुनाथ ने उस बाढ़ में तमाम लोगों की जान बचाई, किन्तु खुद प्रचंड नही के प्रवाह में समा गए। गाँव वाले रघुनाथ के उस परोपकार को नहीं भूले थे। वे सब उनकी बेटी की शादी में बढ़-चढ़कर हाथ बँटाने की होड़ कर रहे थे।
रघुनाथ के न रहने पर दुखिया माँ ने नदी किनारे के खेत-बाग बटाई पर गाँव के दूसरे किसानों को दे रखे थे। वह स्वयं न तो कभी उधर जाती थी और न सुंदरी को जाने देती थी। उनके खेतों-बागों की फसल की आमदनी आधी ही रह गई थी। फिर भी वह सुंदरी के हाथ पीले करने के लिए एक-एक पैसा बचाकर रखती।
इन दिनों गोमती सुंदरी की देख-रेख में बेहद चौकन्नी थी। उसकी लगन चढ़ जाने के बाद भी वह उसे कभी अपनी आँखों से ओझल न होने देती थी। सब कुछ ठीक होने की प्रार्थना देवी-देवताओं से करती। तमाम मनौतियाँ भी माँगती। दो दिन बाद सुंदरी की बारात आने वाली थी। तमाम रिश्ते-नाते के लोग और बच्चों से सुंदरी की माँ का घर भरा-पूरा था। किन्तु आश्चर्य। सुबह मुँह अँधेरे सुंदरी अपनी दो सहेलियों के साथ कुछ ही दूर नदी-तट के अपने खेतों की तरफ निकल गई। गोमती उस समय गाँव से दूध लेने गई थी।
गोमती जब घर लौटी, तो पता चला कि सुंदरी अब तक नहीं लौटी। सुनकर गोमती चीखं-पुकार मचायी हुई, उलटे पाँव नदी की ओर दौड़ पड़ी।
गाँव के तमाम लोग उस दुखिया माँ की गुहार पर उसके पीछे दौड़ते-भागते जब नदी के किनारे पहुँचे, तो वहाँ विचित्र दृश्य था। एक काला भुजंग सुंदरी के गले से लिपटा हुआ था। सुंदरी अपने बचाव के लिए चीख-पुकार रही थी। गोमती रोती हुई केवल यही कह रही थी-“सुंदरी बेटी क्या करूँ, तेरी माँ ने करेले खाए थे”।
कई साहसी तैराक नदी में कूदे भी, लेकिन उस भयानक नाग की फुफकारों से डरकर वे सुंदरी तक नहीं पहुँच पाए। नदी के इस पार भीषण कोहराम मचा हुआ था। साँप, सुंदरी को मंझधार के गहरे पानी में खींचे ले जा रहा था। देखते ही देखते सुंदरी उस नदी के गहरे पानी में डूब गई।
इसी हाहाकार और कोहराम में एक सजीला सलोना नवयुवक उस डूबी हुई सुंदरी की बांह पकड़े हुए पानी पर तैर आया। वह तैरता हुआ सुंदरी को नदी के इस पार गाँव वालों के पास ला रहा था।
नजदीक आने पर लोगों ने ध्यान से देखा सुंदरी के गले में लिपटा हुआ साँप, कहीं अदृश्य हो गया था। घाट पर पहुँचते ही कुछ लोग सुंदरी को होश में लाने का उपचार करने लगे। कुछ लोग हैरान थे कि वह अजनबी युवक कौन था? उस गहरे पानी में अचानक कैसे कहाँ से प्रकट हो गया?
“सुंदरी जिंदा है, गोमती। उठो, देखो तो” लोगों की आवाजें गोमती के कानों मे पड़ी। बहुत झकझोरने के बाद पहले माँ और फिर सुंदरी भी होश में आ गई। गाँव वाले देवी माई का जय-जयकार करने लगे। सुंदरी की जान बचाने वाले युवक को कुछ जवानों ने कधों पर उठा लिया। सभी हैरानी से उस युवक को देख रहे थे।
वह कहने लगा-“आज मैं उस तपस्वी के शाप से मुक्त हो गया। मैं भी पहले एक मनुष्य ही था। एक जंगल में अपने दो साथियों के साथ शिकार पर गया था। एक बूढ़ा तपस्वी वहाँ एक वट के वृक्ष के नीचे तप कर रहा था। पशु-पक्षियों के हाहाकार से जैसे ही उसके नेत्र खुले, मैं उसके सामने पड़ गया। मेरा तीर जिस हिरन को लगा था, वह उस तपस्वी के पास ही दम तोड़ रहा था।
“तपस्वी ने क्रोध में यह कहते हुए मुझे शाप दे दिया-‘अरे मूर्ख, तू निरीह प्राणियों का वध करता घूम रहा है, जबकि प्रकृति माँ ने तेरे लिए फल-फूल, साग-सब्जी और अनाज के भंडार भर दिये हैं। तू मानव धर्म के नाम पर बहुत बड़ा कलंक है। जा तू इन्हीं पशु-पक्षियों की योनियों में भटक, ताकि तुझे इनका दर्द महसूस हो’।
“मैं कटे हुए वृक्ष की तरह उस तपस्वी मुनि के पैरों पर पड़कर क्षमा-याचना करता रहा, गिड़गिड़ाता रहा। आखिर मुनि का क्रोध शांत हुआ। तब उन्होंने शाप से मुक्ति की यह भविष्यवाणी भी की-‘सर्प यानि से तेरी मुक्ति एक सुंदरी युवती के कारण होगी। वह सुंदरी और कोई नहीं तेरे पूर्व जन्म की पत्नी होगी। तब तू फिर मनुष्य बन जाएगा। उसी से तेरा विवाह भी होगा’।
फिर तो उन दोनों को फूल मालाएँ पहनाई गई। अगले दिन उनका विवाह हो गया।
Hindi Story- दो बूंद (कहानी न0-7)
अफ्रीका के किसी पर्वत पर डायना नाम की परी रहती थी। कहते है- परी के पास अमृत की कुछ बूदें थीं।
कांगो नदी के निकट कुछ गाँव थे। वहीं एंडीमियन नाम का गड़रिया रहता था। वह गरीब किसानों की मदद करता था। गाँव वाले उसे बहुत मानते थे। वह देवलोक में भी प्रसिध्द हो गया था। धीरे-धीरे देवताओं में उसके प्रति ईर्ष्या जाग उठी। वे कहते-‘एंडीमियन कभी भी देवता नहीं बन सकता’। पर देवलोक में रहने वाली नारियाँ उसे देवता की तरह मानती थीं। एक दिन उन्होंने देवताओं से कहा-“एंडीमियन को देवता बनने से कोई रोक नहीं सकता”।
“हम एंडीमियन को एक ऐसी जड़ी सुघा देंगे जिससे वह काफी दिनों के लिए बेहोश हो जाएगा”।– देवताओं ने कहा। फिर उन्होंने मिलकर एंडीमियन के खिलाफ साजिश रची।
एक देवता मौका मिलते ही जंगल में जा पहुँचा। एक जगह एंडीमियन आराम कर रहा था। देवता ने उसे बेहोशी की जड़ी सुंघा दी। वह बेहोश हो गया। देवता चला गया। तभी उधर से गाँव वाले गुजरे। उन्होंने एंडीमियन को देखा तो चौके। उन्होंने एंडीमियन को हिलाया-डुलाया। पर उसने कोई हरकत नहीं की। वे उसे मरा जान वहीं छोड़ गए।
एक दिन उधर से डायना परी निकली। उसने रास्ते में एंडीमियन को बेहोशी की हालत में देखा। परी ने भी उसके बारे में बहुत कुछ सुना था। तभी कुछ पक्षियों ने उसे घेर लिया। उन्होंने परी से कहा-“आप इसे जीवित कर दें”। डायना ने उनका कहा मान, अपना हाथ एंडीमियन के माथे पर रख दिया। सहसा वह उठ बैठा। उसने परी का धन्यबाद दिया और घर ओर चल दिया।
एंडीमियन घर पहुँचा, तो पूरे गाँव में खुशी की लहर दौड़ गई। अब वह पहले से भी अधिक परोपकार करने लगा।
यह खबर डायना को लगी। उसनें सोचा-“अब मुझे एंडीमियन को देवता बनाने में देर नहीं करनी चाहिए”। यह सोच डायना परी उसके पास आई। उसने एंडीमियन को अमृत की दों बूदें पिला दीं। वह अमर हो गया।
Hindi Story- चिड़िया की आवाज (कहानी न0-8)
बहुत वर्ष पहले अवध के एक छोटे-से राज्य में एक प्रतापी राजा राज्य करता था। वह प्रजा में अत्यंत लोकप्रिय था। उसे प्रकृति से बहुत प्रेम था। उसका बगीचा बहुत सुंदर था। दूर-दूर से वृक्ष मंगाकर उस अपने उपवन को नंदन वन-सा बना रखा था। उसके बाग में एक बबूल का वृक्ष था। इधर कुछ दिनों से उस पर एक नन्हीं चिड़िया आकर बैठती थी। रात के प्रथम प्रहर से अंतिम प्रहर तक वह कुछ पंक्तियों को बार-बार दोहराती थी। राजा पक्षियों की बोली समझता था। रात के प्रथम प्रहर मे चिड़िया कहती-“अरे किस मुख में दूध डालूँ। अरे, आकर मुझे कोई बताए न?”
रात के दूसरे प्रहर में वह बार-बार कहती-‘इस जैसा कहीं नहीं देखा’। रात के तीसरे प्रहर में दुखी और उदास स्वर में कहती-‘अब हम क्या करें? बताओ न हम क्या करें?’
राजा हर रात चिड़िया की बातें सुन-सुनकर चिंताग्रस्त हो गया। वह हर पल उन बातों का अर्थ निकालने का प्रयास करता। एक नन्हीं सी चिड़िया ने उसके मन की शांति छीन ली थी। एक दिन उसने अपने कुल पुरोहित को बुलवाया जो कि अत्यधिक विद्वान थे। राजा ने उन्हें उस निन्हीं चिड़िया के सारे वाक्य सुनाए। कहा कि वह उनका अर्थ समझाएँ। पुरोहित जी भी चकित हो गए। उन्होंने महाराज से चौबीस घन्टे का समय माँगा और घर चले आए।
पुरोहित जी को उदास मुँह लौटते हुए देखकर उनकी पत्नी चिंतित हो उठीं। वह तो जब भी राजमहल से लौटते, बड़ी उमंग और उत्साह में होते थे। राजा की इन पर विशेष कृपा थी। उनके पास महल, दास-दासियाँ, हीरे-जवाहरात, सभी कुछ तो था। पत्नी ने उनसे पूछा-“क्या बात है? आज आप उदास क्यों हैं? राजमहल में सब आनन्द से तो है न?”
“विपत्ति आने वाली है। महल, वैभव, धन-सम्पत्ति सब कुछ छिन जाएगा, मैं राजा के प्रश्नों का उत्तर न दे सकूँगा”।–पुरोहित जी ने परेशान हो कहा।
“ऐसे कौन से प्रश्न हैं जिनका उत्तर देने में आप असमर्थ हैं। मुझे भी बताएँ। शायद मैं कोई हल खोज सकूँ”।–पुरोहित की पत्नी शांति ने कहा।
पुरोहित जी ने विस्तार से सब कुछ बताया। उस नन्हीं चिड़िया की बातों का क्या अर्थ निकलता है, यह कोई भी नहीं जान पा रहा है। शांति ने उन्हें आश्वासन दिया-“महाराज से कहिएगा कि कल राजसभा में उन प्रश्नों का उत्तर मेरी पत्नी देंगी। महाराज बिल्कुल चिंता न करें”।
दूसरे दिन पुरोहित जी महाराज को अपनी पत्नी का संदेश दिया। राजा ने शांति को बुलाने के लिये पालकी भेजी। राजदरबार में राज के समय एक विशेष सभा का आयोजन किया गया। एक पर्दे की आड़ में पुरोहित जी की पत्नी के बैठने की व्यवस्था की गई।
रात के प्रथम प्रहर में चिड़िया ने कहना प्रारंभ किया-“किस मुख में दूध डालूं?” महाराज ने इसका अर्थ पूछा तो शांति ने कहा-“महाराज, यह चिड़िया आधी बात ही कहती है। पूरी बात यह है कि रावण के दस सिर थे। उसकी माँ जब अपने पुत्र के दस सिर देखती तो चिंता में पड़ जाती। कहती-‘कौन से मुख में दूध डालूं?’ राजा पुरोहित जी की पत्नी शांति की बात सुनकर अत्यंत प्रसन्न हुआ। उत्तर ठीक था।
अब रात के दूसरे प्रहर में चिड़िया ने फिर बोलना शुरु किया-‘ऐसा कहीं नहीं देखा’। शांति ने बताया-“यह चिड़िया सभी दिशाओं में भ्रमण करती है। बहुत-से स्थानों पर यह घूमकर आई है लेकिन इसका कहना है कि सम्पूर्ण विश्व में एक जम्बूव्दीप ही ऐसा है, जहाँ समृध्दि, सुख और शांति है। यहाँ मनुष्य को किसी प्रकार की चिंता नहीं सताती। ऐसा इसने कहीं नहीं देखा”। राजा को शांति की दूसरी बात पर भी विश्वास हो गया।
तीसरे प्रहर में चिड़िया ने कहा-‘अब हम क्या करें?’ यह सुन शांति बोली-“महाराज, हमारे यहाँ छोटी उम्र की लड़कियों को विवाह बड़ी उम्र के आदमियों से कर दिया जाता है। ऐसे विवाहों को देखकर ही यह चिड़िया कहती है-‘अब हम क्या करें’।
यह सुन, राजा स्तब्ध रह गया। सचमुच बहुत-से परिवारों में ऐसा ही होता है। राजा शांति के अद्भुत ज्ञान से बहुत प्रभावित हुआ।
राजसभा में भी सब उसकी प्रशंसा कर रहे थे। रात बीत चुकी थी। राजा को उस बुध्दिमान चिड़िया के प्रश्नों का उत्तर चतुर पुरोहितानी द्वारा मुल गया था। वह उससे अत्यंत प्रभावित था। अथाह धन-दौलत और सम्मान के साथ उसने पुरोहित और उसकी पत्नी शांति को विदा किया।
Hindi Story- पेड़ बन जाओ (कहानी न0-9)
काशी के विश्वनाथ मंदिर में भारत मुनि नाम के परम सिध्द महात्मा रहते थे। एक दिन उन्हें तपोवन सीमा में स्थित देवताओं के दर्शन की इच्छा हुई। वह सुबह भ्रमण को निकल गए।
दोपहर में उन्हें थकान का अनुभव हुआ। पास ही बेर के दो वृक्ष थे। उन्हीं की छाया में वह विश्राम करने लगे। एक वृक्ष के नीचे उन्होंने सिर रखा और दूसरे की जड़ में पैर टिका दिए। थोड़ी देर विश्राम के बाद तरस्वी वहाँ से चले गए। बेर के दोनों वृक्ष एक सप्ताह के भीतर सुख गए।
सूखने के बाद दोनों वृक्ष एक ब्राह्मण के घर दो कन्याओं के रूप में पैदा हुए। जन्म के कुछ वर्ष बाद भरत मुनि ब्राह्मण के घर के सामने से निकले। उन्हें देखते ही दोनों लड़कियाँ उनके चरणों में गिर गई। बोली-“महात्मा जी, आपकी कृपा से हमारा उध्दार हुआ है। हमने पेड़ का जीवन त्याग मनुष्य देह प्राप्त की है”।
मुनि की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। उन्होंने विस्मय से पूछा-“पुत्रियों, मैंने कब, किस तरह तुम पर कृपा की? मुझे तो इस विषय में कुछ पता नहीं है”।
यह सुन, दोनों लड़कियों ने कहा-“पहले हम दोनों देवराज इंद्र की अप्सराएँ थीं। गोदावरी नदीं के तट पर छिन्नपाप नामक पवित्र तीर्थ है। वहाँ सत्यतापा मुनि कठोर तपस्या कर रहे थे। इंद्र उनकी तपस्या से विचलित हो गए। हमें आदेश दिया कि मुनि की तपस्या में विघ्न डालें।
“बस, हम दोनों वहाँ जाकर नृत्य करने लगीं। इससे मुनि का ध्यान भंग हो गया। वह क्रोधित हो उठे। उन्होंने शाप दिया-‘तुम दोनों पेड़ बन जाओ’। इस पर हम उनसे क्षमा माँगने लगीं।
“महात्मा जी का हृदय पसीज गया। उन्होंने कहा-“मैं तुम्हें शाप मुक्ति का रास्ता बताता हूँ। शाप भरत मुनि के आने तक रहेगा। उसके बाद तुम नारी रूप में जन्म लेगी और बाद में देवलोक जा सकोगी”।
लड़कियों की बाद सुनकर भरत मुनि ने उन्हें आशीर्वाद दिया और अपनी राह चले गए। दोनों कन्याएँ कुछ समय बाद देवलोक चली गई।
Hindi Story- हीरा ने कान पकड़े (कहानी न0-10)
चंद्रपुर के महाराज महीपाल बड़े प्रतापी थे। उनके राज्य में सभी सुख-शांति से रहते थे। राज्य में हरियाली एवं भरपूर धन-धान्य था। चंद्रपुर के लोग दिन-रात मेहनत करते और अपने राज्य के विकास में लगे रहते।
उन्हें महाराजा महीपाल से बहुत स्नेह था। वे महाराज का बड़ा आदर-सत्कार करते थे। इसका कारण यह था कि महाराज भी बड़े दयालु थे। मनुष्य तो मनुष्य, वह पशु-पक्षियों तक के प्रति किए गए किसी भी तरह के अन्याय को सहन नही करते थे। उनके राज्य में एक किसान था। नाम था हीरा। हीरा के पास एक बैल था। बैल बड़ा बलवान था। हीरा उसे खिलाता भी बहुत था और उसे बेहद प्यार करता था।
सुबह होती। हीरा बैल को अपने साथ खेत पर ले जाता। उसे हल में जोतकर खेतों की बुवाई करता। फसल कटने का समय आता, तो वह उपज को बैलगाड़ी में लाद, उसे बेचने शहर ले जाता।
वैसे तो हीरा में कोई बुराई नहीं थी। सादा जीवन उसका स्वभाव था। पर उसमें एक बुरी आदत थी। जिससे वह जितना ही ज्यादा प्यार करता, उसे उतना ही ज्यादा बुरा-भला कहता। जब सुबह होती और वह बैल को हांककर खेतों में ले जाने को होता, तो कहता-“चल वे फिसड्डी । चल उठ। खा-खाकर मोटा होता जा रहा है। कुछ काम-वाम भी किया कर। निखट्टू कहीं का। चल उठ”।
बैल यह सुनकर हमेशा ही मन मसोसकर रह जाता है। वह सोचता-‘हीरा की मैं कितनी सेवा करता हूँ। फिर भी मुझे सेवा का यह फल मिलता है’। पर वह कर भी क्या सकता था। बुरा-भला कहने से उसका बैल चिढ़ता है, यह हीरा बखूबी समझता था।
एक दिन तंग आकर बैल ने महाराजा के पास शिकायत कर दी। महाराज ने हीरा को बुलाया और पूछा-“क्यों जी, क्या तुम इस बैल को बुरा-भला कहते हो?”
पहले तो हीरा कुछ समझ न पाया, पर जब उसे यह लगा कि बैल ने उसकी शिकायत राजा से कर दी है, तो उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। वह हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। बोला-“महाराज। मुझे क्षमा कर दें। मैं झूठ नहीं बोलूँगा। मुझसे अनजाने में गलती हो गई है। मैं तो इसे प्यार में आकर ऐसा कहता था। अगर इसे बुरा लगता है, तो मैं आज के बाद इससे कुछ नहीं कहूँगा। यह गलती अब मुझसे दोबारा कभी नहीं होगी”।
“ठीक है। इस बार हम तुम्हें छोड़ देते हैं। फिर कभी ऐसा हुआ, तो तुम्हें कठोर दंड दिया जाएगा”।–राजा ने उसे चेतावनी दी और छोड़ दिया।
हीरा की जान बची। उसने बैल को लिया और घर की ओर चल दिया। राह में उसने बैल से कहा-“तुम मेरी बातों का बुरा क्यों मान जाते हो? मैं तो तुम्हें प्यार से ऐसा कहता हूँ”।
बैल ने कहा-“जब तुम्हें पता है कि गलत बात सुनते ही मैं अपना आपा खो देता हूँ, तो तुम मुझसे ऐसी बातें क्यों कहते हो?”
“ठीक है। अब नहीं कहूँगा”।–हीरा ने कहा। दोनों घर आ गए।
सुबह हुई। हीरा उठा। उठके उसने प्यार से बैल को पुचकारा। उसे लेकर खेतों पर चला गया। इसी तरह कई दिन बीत गए।
चंद्रपुर राज्य का वार्षिक उत्सव आने वाला था। इस अवसर पर तरह-तरह के खेल भी होते थे। बैलगाड़ियों की दौड़ मुख्य आकर्षण थी। हीरा कई सालों से उसमें भाग लेता आ रहा था। अपने बलिष्ठ बैल की वजह से ही वह पिछले दो सालों से इस दौड़ को जीत रहा था।
इस बार भी उसे पक्का विश्वास था कि वह दौड़ अवश्य जीतेगा।
दौड़ का दिन आ गया। राज्य के हर कोने से लोग अपनी बैलगाड़ियों लेकर आए। उन्होंने बैलगाड़ियों को तरह-तरह सो सजा रखा था।
दौड़ शुरु हुई। बैल सरपट भागने लगे। हीरा का बैल भी भागने को ही था कि हीरा ने बैल को पुचकारा और कहा-“चल बे फिसड्डी, चल भाग। खा-खाकर मोटा होता जा रहा है। निखट्टू कहीं का चल भाग”।
यह सुनते ही उसका बैल तुनक गया। वह तेजी से तो भागा लेकिन थोड़ी ही दूर जाकर रुक गया। हीरा ने उसे बहुत धमकाया, गालियाँ तक दीं और मारा भी, पर बैल टस से मस न हुआ।
हीरा दौड़ हार गया। उसे बड़ा मलाल हुआ। उसने बैल को बहुत कोसा। उसे घसीटता हुआ घर वापस आ गया।
एक दिन हीरा ने अपने बैल से पूछा-“दौड़ में उस वक्त तुम रुक क्यों गए थे?”-“मैं क्या करता। तुमने अपना वायदा जो तोड़ा था। तुमने मुझे उलटा-सीधा कहा था?”
हीरा को बहुत पछतावा हुआ। उसने सोचा-‘अगर मैं बैल को गाली न देता, तो यह दौड़ जीतकर बहुत सारे इनाम पा जाता’।
बैल ने कहा-“घबराओ नही। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा। दो महीने बाद राजकुमार का राज्याभिषेक है। उस अवसर पर भी उत्सव होगें ही। खेल होगें तो बैलगाड़ियों की दौड़ भी होगी। तब मैं तुम्हें जिता दूँगा। लेकिन हाँ…..”
वह अपनी बात पूरी भी न कर पाया था कि हीरा बोला-“हाँ, समझ गया। अब मैं तुम्हारी बातों का ध्यान रखूँगा”।
राज्याभिषेक का दिन आ गया। यह वास्तव में राज्य के लिए एक उत्सव का दिन था। सारा नगर दुल्हन की तरह सजाया गया था। जगह-जगह तोरण व्दार सजे थे। सड़के और गलियाँ तक फूलों से महक रहे थे। ऐसा लगता था, जैसे यह चंद्रपुर न होकर, कोई फूलपुर हो। राज्याभिषेक के बाद राजकुमार की शोभा-यात्रा सारे नगर में निकलनी थी। फिर राजकुमार को खेलों का शुभारंभ करना था।
ठीक समय पर सब कुछ हो गया। दौड़ शुरु हुई। बैलगाड़ियों में बंधी घंटियों की आवाज से सारा वातावरण गूंज उठा। बैलों के सरपट भागने से उठ रही धूल चारों दिशाओं में फैल गई।
हीरा के बैल ने जो कुलांचें भरीं तो वह शुरु से ही सबसे आगे निकल गया। जैसे-जैसे दौड़ में गति आती गई, हीरा की बैलगाड़ी और दूसरी बैलगाड़ियों के बीच दूरी बढ़ती गई।
हीरा की बैलगाड़ी को कोई भी पकड़ न सका। हीरा जीत गया। उसे भरपूर इनाम मिले राजकुमार के राज्याभिषेक के शुभ अवसर पर आयोजित इस दौड़ को जीत लेने पर उसे पूरा एक गाँव इनाम में दिया गया।
हीरा बहुत खुश था। उसने अपने बैल को चूम लिया। बैल के शरीर में सिहरन सी हुई। पर तभी हीरा बोला-“घबराओ नहीं। अब मैं कभी भी तुमसे गलत बात नहीं कहूँगा। लो, मैंने अपने कान पकड़े”।
और ऐसा लगा, जैसे बैल देखकर मुस्करा रहा हो।
Hindi Story- हीरा ने कान पकड़े (कहानी न0-11)
एक छोटे-से राज्य में विलासपुर नाम का कसबा था। पूरे कसबे में बच्चों के पढ़ने के लिए एक ही स्कूल था ‘विद्या मंदिर’। इसमें अमीर हो या गरीब, सभी प्रकार के बच्चे पढ़ने आते थे। इसकी ख्याति इतनी थी कि आसपास के गांवों या कसबों से भी बच्चें पढ़ने आते थे। इस विद्यालय का नाम ऊँचा उठाने में मास्टर आदर्श नारायणजी का बहुत बड़ा हाथ था। वह सही मायने में एक आदर्श शिक्षक थे।
वह बड़ी लगन से मेहनत से बच्चों को पढ़ाते। उन्हें प्यार भी बहुत करते थे। इस कारण स्कूल में सभी उनकी बहुत इज्जत करते थे। लेकिन इधर कुछ दिनों मास्टर आदर्श कुछ परेशान से थे। उनकी कक्षा में एक नया छात्र आया था। उसका नाम था ‘नवीन’। वह अभिवादन करना तो दूर, कक्षा में मास्टर जी के प्रवेश करने पर भी अकड़ व शान से अपनी सीट पर बैठा रहता। अन्य छात्रों पर भी अपनी हेकड़ी जमाता। उसके कपड़े व जूते भी काफी कीमती दिखते थे।
नवीन के बारे में उन्होंने प्रधानाचार्य से पता किया, तो मालूम हुआ कि वह पास के गाँव के एक बहुत बड़े जमींदार चौधरी मगनसिंह का इकलौता बेटा है। वह जमींदार भी बहुत गुस्सैल और अड़ियल था। अत: प्रधानाचार्य ने मास्टर आदर्श नारायण से कहा-“मास्टर जी। इस लड़के के साथ सावधानी से पेश आएँ और इसकी शरारतों को नजर अंदाज कर दिया करें। इसके पिता की पहुँच बहुत ऊपर तक है”।
लेकिन मास्टर आदर्श को यह मंजूर नहीं था, उन्होंने कहा-“यह विद्या मंदिर है। यहाँ कोई अमीर या गरीब नहीं। यहाँ सब छात्र बराबर हैं। यदि वह अपने शिक्षक की इज्जत नहीं करेगा तो शिक्षा कैसे प्राप्त करेगा?”
अगले दिन उनके कक्षा में प्रवेश करने पर नवीन उसी प्रकार ढीठ होकर बैठा रहा, जबकि अन्य छात्र उठ खड़े हुए। मास्टर जी ने कहा-“बेटे नवीन, तुम भी अपने दोस्तों की तरह खड़े हो जाओं”।
लकिन नवीन वैसे ही बैठा रहा और बोला-“मास्टर जी। आप जानते नहीं, मैं कौन हूँ? यहाँ के सबसे बड़े जमींदार का बेटा हूँ। लोग मुझे देखकर खड़े हो जाते है। आप अपना काम करें”। नवीन की बात पर मास्टर का चेहरा तमतमा गया। उन्होंने उसे जबरन उठाकर कक्षा से बाहर कर दिया।
नवीन गुस्से में पाँव पटकता हुआ कक्षा के बाहर निकल गया। अगले दिन प्रधानाचार्य गिरीश बाबू ने मास्टरजी को बुलाया। घबराते हुए कहा-“मास्टर जी, गजब हो गया। अपने शेर की मांद में हाथ डालकर बहुत बुरा किया। मैंने आपको पहले ही आगाह किया था। चौधरी साहब बहुत गुस्से में है। उन्होंने कहा है कि वह आपको बर्बाद कर देंगे”।
मास्टर को गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन वह खून का घूंट पीकर रह गया। आखिर प्रधानाचार्य जी द्वारा खूब मिन्नते करने पर मास्टर जी किसी प्रकार नवीन की उद्दंडता को अनदेखी करने को मान गए। लेकिन बात यहीं तक नहीं थी। नवीन मास्टर जी की पढ़ाई गई बातों पर ध्यान भी नहीं देता था। न ही पुस्तक पढ़ता। न कापी में कुछ लिखता। मास्टरजी कुछ पूछते तो हँसता रहता। परीक्षा के दिन आ गए। नवीन ने कापी में कुछ नहीं लिखा था। मास्टर जी ने प्रधानाचार्य जी के मना करने पर भी उसे फेल कर दिया। अगले ही दिन स्कूल में चौधरी साहब गुस्से से फुफकारते हुए आए और मास्टर जी को खूब फटकारा। लेकिन मास्टर जी निर्भीक व शांत खड़े रहे। उन्होंने इतना ही कहा-“मैंने अपना कर्तव्य किया है। आप चाहे जो करें”।
बाद में चौधरी साहब ने स्कूल के प्रधानाचार्य से अकेले में कुछ बातें कीं।
एक-दो दिन तक नवीन कक्षा में नहीं आया। तीसरे दिन पता चला कि प्रधानाचार्य द्वारा नवीन को जबरन पास कर दिया गया है और मास्टर जी को स्कूल से निकाला जा रहा है। सभी सकतें में आ गए पर मास्टर जी शांत थे। उन्हें कोई पछतावा नहीं था। उन्हें केवल दु:ख इस बात का था कि प्रधानाचार्य किसी के दबाब व धमकी के डर से गलत काम करने को मजबूर हो गए।
अगले दिन मास्टर जी चुपचाप स्कूल आतें और पढ़कर चले जाते। पूरे स्कूल में मास्टर जी के चले जाने की बात को लेकर दु:ख का वातावरण फैला हुआ था। आज अंतिम दिन था। सभी बच्चे व शिक्षक उदास थे। लेकिन मास्टर जी स्थिर व शांत थे। हाँ, उनमे उत्साह नहीं था। वह रोज का तरह आज भी चुपचाप स्कूल आए।
शाम के वक्त उनकी विदाई का कार्यक्रम था। बच्चे उपहार स्वरूप अपने प्रिय शिक्षक को देने के लिए कुछ न कुछ भेंट लाए थे। मास्टर जी तन्मयता से पढ़ाने में जुटे थे। हालांकि बच्चों मन नहीं लग रहा था, फिर भी वे मास्टर जी द्वारा पढ़ाई गई बातों का ध्यान से सुन व लिख रहे थे। सिर्फ नवीन सदा की तरह कक्षा में ढीठ की तरह बैठा, अपनी मेज पर कंचे खेल रहा था।
पढ़ाई चल रही थी कि अचानक बाहर कुछ शोर सुनाई दिया। स्कूल के परुसर में घोड़ों की टापों की आवाज भी आने लगी। कुछ समझ में आता कि कई डाकू कक्षा में घुस आए और बन्दूक तानकर खड़े हो गए। डाकुओं के सरदार के सिर पर लाल रंग का रूमाल बंधा था। डाकू माखन सिंह की यही पहचान थी। वह इस इलाके का खूंख्वार डाकू था।
मास्टर जी ने उसका हुलिया देखकर उसे पहचान लिया था लेकिन वह डरे नहीं। उन्होंने कहा-“माखन सिंह, यहाँ क्यों आए है? यह तो विद्या मंदिर है। यहाँ धन नहीं विद्या का भंडार है”।
डाकू हंसकर बोला-“ठीक पहचाना मास्टर, मै डाकू माखनसिंह हूँ। यहाँ धन लूटने आया हूँ। यह रहा हमारा करोड़ों का धन”। यह कहकर उसने लपककर नवीन को पकड़ लिया और उस पर बंदूक तानकर कहा-“मैं इसे अगवा करके ले जा रहा हूँ इसका बाप बहुत पैसे वाला है। उससे कहना कल तक 50 लाख रुपए पीछे के जंगल में लेकर, रात के बारह बजे तक पहुँच जाए. वरना उसका बेटा मौत के घाट उतार दिया जाएगा”।
मास्टर जी सकते में आ गए। अचानक उन्होंने कुछ सोचा और बिजली की फुर्ती से सरदार की ओर जा खड़े हुए-“ठहरो”।–मास्टर जी ने गरजते हुए कहा-“मैं इस लड़के का शिक्षक हूँ। कम से कम आज तक इसकी जिम्मेदारी मेरे ऊपर है। अपने शिष्य की रक्षा करना मेरा फर्ज है। तुम मेरे जीते जी इसे नहीं ले जा सकते”।
डाकू ने हंसते हुए कहा-“मास्टर, तू मेरा रास्ता रोकने का साहस कर रहा है। तुझे कलम पकड़ना आता है, तलवार नहीं। तू अपनी पढ़ाई देख और खैर मना”।
“चाहे मेरी जान चली जाए पर आज मैं इसे ले जाने नहीं दूँगा”।–यह कहते ही मासेटर जी ने सामने मेज पर रखा लोहे के मूठ वाला भारी डंडा उठाककर डाकू के सिर पर दे मारा। यह सब इतना अचानक हुआ कि सरदार भौचक्का रह गया और धड़ाम से नीचे गिर पड़ा। उसके हाथ से बंदूक छूट गई। उसे मास्टर से ऐसी उम्मीद नहीं थी। उसके दो साथियों ने बंदूक उठाकर मास्टर जी पर गोली चलाई। चूँकि ऐन मौके पर मास्टर जी झुककर अपना डंडा उठाने लगे, अत: निशाना चूक गया।
इससे डाकू बौखला गए। मास्टर जी ने कराहते सरदार पर एक और डंडा जमा दिया जिससे उसका सिर फट गया। सरदार को बेहोश होते देख, उसके साथी भागने लगे। जाते-जाते उन्होंने मास्टर जी पर गोली दागी। मास्टर जी के हाथ में गोली लगी। वह गिर पड़े। तब तक स्कूल के अन्य शिक्षक भी दौड़े-दौड़े आए और डाकू-डाकू चिल्लाने लगे। बच्चे घबराकर रोने लगे। किसी ने पास के पुलिस थाने में खबर कर दी। पुलिस भी आ गई। घायल भागते सरदार को पकड़ लिया। मास्टर जी को अस्पताल ले जाया गया।
शाम को सभी बच्चे, उनके माता-पिता, शिक्षक आदि मास्टर जी को आंसू भरी आँखों से देखने गए। मास्टर जी की मरहम-पट्टी हुई थी और वह थके-थके, कमजोर से बिस्तर पर लेटे हुए थे। उन्होंने सभी बच्चों को देखा औक कहा-“नवीन ठीक तो है?” उनका यह कहना था कि दरवाजे की ओट में छिपा नवीन दौड़कर आया और मास्टर जी के पैरों पर गिर पड़ा। रो-रोकर कहने लगा-“मुझे माफ कर दीजिए मास्टर जी, मैंने आपका बहुत अपमान किया है”। मास्टर जी ने उसे उठाकर गले से लगा लिया। कहा-“नवीन। आज मैं जा रहा हूँ। मैं तुमसे गुरु दक्षिणा के रूप में एक ही चीज माँगता हूँ”।
“बोलिए मास्टर जी, आपको क्या चाहिए? मैं आपके कदमों में धन-सम्पत्ति का ढेर लगा दूँगा”।–नवीन ने कह।
“पगले। मैं धन नहीं चाहता। बस, आज से तुम पढ़ने-लिखने में ध्यान लगाओ। शिक्षा को खेल न समझो। सांसारिक धन तो पल भर का होता है, लेकिन विद्या तो जीवनभर साथ रहती है। यही सबसे बड़ा धन है”।–मास्टर जी बोले।
“मास्टर जी, आज से मैं यही करुँगा, लेकिन मेरी भी एक शर्त है। आप स्कूल छोड़कर कहीं नहीं जायेंगे”।–नवीन ने कहा।
“नवीन ठीक कह रहा है मास्टर जी आप इसी स्कूल में रहेंगे”।–कहते हुए हाथ जोड़े हुए चौधरी साहब ने प्रवेश किया। साथ में प्रधानाचार्य जी भी थे।
“हमारी गलतियों के लिए हमें क्षमा करें। अपने प्राणों की बाजी लगाकर हमें गुरु के महत्व को समझा दिया। आज हमारी आँखे खुल गई है। आप स्कूल छोड़कर कहीं नहीं जायेंगे, यह हमारी विनती है”।–इस पर मास्टर जी निरुत्तर हो गए। सभी बच्चों के चेहरे खुशी से चमक उठे।
Hindi Story- अनोखा बाग (कहानी न0-12)
गंगा नदी के तट पर एक राज्य था-श्यामपुर। एक दिन वहाँ के राजा वीरभद्र का दरवार लगा था। राजा सोने के सिंहासन पर एवं उनके मंत्री चांदी के आसन पर बैठे थे। राजा के पीछे खड़ी दासियाँ चंवर डुला रही थीं। राज्य की समस्याओं पर विचार करने के बाद राजा वीरभद्र ने अपने मंत्री से पूछा-“मंत्रिवर, तीनो लोको में सबसे सुंदर बाग किसने लगवाया है?”
“राजन्, इंद्रलोक में नंदन-कानन नामक बाग तीनों लोकों में सबसे सुंदर है। वहाँ सभी देवी-देवता भ्रमण करने के लिए आते है”।–मंत्री ने बताया।
राजा ने आदेश दिया-“मंत्रिवर, मैं अपने राज्य में नंदन-कानन से भी सुंदर एक बाग लगाया चहता हूँ। आप लोग एक अनुपम बाग लगाने का प्रबंध कीजिए”।
राजा की आज्ञा के अनुसार देश-विदेश से पौधे मंगवाकर लगवाए गए। उनकी सुरक्षा के लिए कंटीली बाड़ लगवा दीं लेकिन आश्चर्य, शाम को पौधे लगवाए गए और सुबह तक सारे पौधे लापता हो गए। कंटीली बाड़ ज्यों की त्यों लगी रही। क्रोध में आकर राजा ने अपने गुप्तचरों को इसका पता लगाने के लिए कहा, लेकिन पौधों के गायब होने का रहस्य कोई नहीं जान सका। राजा ने कई बार बाग लगवाने के प्रयास किए, पर बाग नहीं लगा। राजा मन ही मन उदास रहने लगे।
राजा वीरभद्र के चार पुत्र थे। अपने पिता की उदासी का कारण जानकर उनके तीन पुत्र भानुप्रताप, चंद्रप्रताप और सुरेन्द्र प्रताप ने बारी-बारी से बाग लगाने के प्रयास किए लेकिन नतीजा कुछ न निकला। शाम को पौधे लगवाए गए और वे सुबह तक गायब हो गए। अंत में सबसे छोटे राजकुमार उदयप्रताप ने कहा-“पिताजी, मुझे भी एक मौका दीजिए। मैं एक बार प्रयास करना चाहता हूँ”।
राजा वीरभद्र ने उदास स्वर में कहा-“जिस काम को मैं और तुम्हारें बड़े भाई नहीं कर सकें, उसे तुम कैसे पूरा करोगे?”
मंत्री की सलाह मानकर राजा ने उसे आज्ञा दी-“जाओ, एक बार तुम भी प्रयास करके देख लो”।
छोटे राजकुमार उदयप्रताप ने देखा था कि उसके पिता और बड़े भाई बाग की सुरक्षा का भार सिपाहियों को सौंपकर स्वयं महल में चैन की नींद सो जाते थे। उसने सबसे पहले सिपाहियों की छुट्टी कर दी और स्वयं बाग की रखवाली करने की योजना बनाई। बाग में पौधे लगवाकर उसने एक छोटी-सी झोंप़ड़ी बनवाई और रात में उसमें स्वयं छिपकर बैठ गया। बाहर उसने जल भरी एक नांद रखवा दी। काफी रात बीतने पर उसे थोड़ी झपकी आने लगी। उसने बाहर निकलकर अपनी आँखो पर ठंड़े पानी के छीटें मारे, फिर अंदर जाकर बैठ गया।
ठीक आधी रात के समय आंधी जैसी सांय-सांय की आवाज सुनकर उसके कान चौकन्ने हो गए। उसने कौतूहलवश झोंपड़ी के बाहर झांका। हवा एकदम शांत थी। आकाश में चांद-तारे चमक रहे थे। स्वच्छ चांदनी में उसने अचानक देखा कि दो पंखों वाला घोड़ा धीरे-धीरे आसमान से नीचे उतर रहा है। बाग की धरती पर पैर रखे बिना ही उसने ऊपर ही ऊपर पौधों को चट करना शुरु कर दिया। पौधों का सफाया करने के बाद एक नांद में पानी देखकर घोड़े का मन ललचाया। उसने पानी पीकर अपनी प्यास बुझाई। खा-पीकर मस्त होनें के बाद घोड़े ने सोचा-‘अभी तो आधी रात बाकी है, क्यों न थोड़ी देर विश्राम कर लूँ? सुबह होने से पहले उड़ जाऊँगा’।
यही सोचकर घोड़ा जमीन पर उतरा और खड़े-खड़े झपकी लेने लगा। छोटा राजकुमार छिपकर घोड़े की हर गतिविधि को देख रहा था। घोड़े को ऊंघता हुआ देखकर वह सधे कदमों से आगे बढ़ा और उछलकर घोड़े की पीठ पर सवार हो गया। ज्यों ही राजकुमार ने घोड़े के अयाल को कसकर पकड़ लिया। घोड़ा रात भर आसमान में चक्कर काटता रहा और राजकुमार भी उसकी पीठ से चिपका रहा। जब पूरब के आकाश में सूरज की लाली छाने लगी, तो घोड़े ने कहा-“भाई दया करके मेरी पीठ से उतर जाओ। सुबह होने से पहले यदि मैं अपने अस्तबल में नहीं लौट सका, तो मुझे कड़ी सजा मिलेगी”।
छोटे राजकुमार ने कहा-“पहले बताओ कि तुम कौन हो और मेरे बाग को क्यों नष्ट करते हो?”
घोड़े ने बताया-“मैं इंद्रलोक का काला घोड़ा हूँ। मुझे पता चला कि राजा वीरभद्र मृत्युलोक में नंदन कानन से भी सुंदर बाग लगाना चाहते है। वह बाग लगाने में सफल हो जाते, तो देवराज इंद्र का अपमान हो जाता, इसलिए मैं तुम्हारे बाग को नष्ट कर देता था”।
छोटे राजकुमार ने कहा-“तुम बड़े दुष्ट हो। मैं तुम्हें अपने अस्तबल में बाँधकर रखूँगा”।
घोड़े ने कहा-“यदि तुम मुझे छोड़ दोगे, तो मैं तुम्हारी दो मनोकामनाएँ पूरी कर दूँगा”।
छोटे राजकुमार ने कहा-“ऐसी बात है तो नंदन कानन से सुंदर न सही, परंतु मेरे बाग को तुम रातों-रात नंदन-कानन जैसा बना तो। मेरी दूसरी कामना है कि जब मैं बुलाऊँ, तो तुम आकर मेरी मदद करो”।
घोड़े ने कहा-“ऐसा ही होगा। तुम्हें मेरी केवल एक शर्त माननी पड़ेगी। यदि तुमने मेरा रहस्य किसी को बता दिया, तो मैं फिर कभी नहीं आऊँगा”।
छोटे राजकुमार ने घोड़े की शर्त मान ली। घोड़े ने राजकुमार को बाग में उतारा और वह तेजी से आसमान की ओर उड़ गया। छोटे राजकुमार ने अपना बाग देखा, तो उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। ऐसा बाग न तो उसने कहीं देखा था और न ही इसके बारे में कहीं सुना था। बाग में आम, अमरूद, कटहल, बेर, सेब, नारियल, केला, पपीता हर तरह के पेड़ लगे थे। पेड़ो पर हर मौसम के फल लगे थे। कुछ फल कच्चे, कुछ पके और कुछ भूमि पर पड़े थे। गिलहरियाँ पके फलों को कुतर-कुतरकर खा रही थीं।
एक ओर गेंदा, गुलाब, चंपा, गंधराज, हरिसिंगार, बेली, जूही, चमेली और राजनीगंधा के फूल खिले थे। फूलों पर रंग-बिरंगी तितलियाँ मंडरा रही थी। भौरे गुंजार कर रहे थे। बाड़ पर अंगूर की लताएँ छाई थीं। तालाब में कमल के फूलों के बीच हंसों के जोड़े तैर रहे थे।
छोटे राजकुमार ने घूम-घूमकर बाग देखा और सूरज निकलने से पहले अपने महल में जाकर सो गया। उसने बाग के बारे में किसी से कुछ नहीं कहा। सुबह भ्रमण के लिए निकले लोगों ने बाग देखा, तो उनकी आँखे फटी रह गई। लोगों ने पहले छककर फल खाए, तब जाकर राजा को इस बात की सूचना दी। राजा को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। उन्होंने स्वयं आकर बाग देखा, तो वह आँखे मलते रह गए।
राजा वीरभद्र छोटे राजकुमार के इस काम से इतने प्रसन्न हे कि उन्होंने उसे राजगद्दी सौंपने की घोषणा कर दी। राजा की घोषणा सुनकर तीनों बड़े राजकुमारों ने राज्य छोड़ने का फैसला कर लिया। छोटे राजकुमार को इस बात का पता चला, तो उसे बहुत दु:ख हुआ। उसने अपने पिता से जाकर कहा-“पिताजी, नियम के अनुसार तो सबसे बड़े भाई को ही राजा बनने का अधिकार मिलना चाहिए”।
राजा ने कहा-“नही बेटे, सबसे योग्य व्यक्ति को ही राजा बनने का अधिकार मिलना चाहिए। तुमने अद्भुत बाग लगाकर अपनी योग्यता सिध्द कर दी है”।
छोटा राजकुमार बोला-“पिताजी, यह सब तो काले घोड़े का चमत्कार है”।
असावधानी में घोड़े का नाम बेलकर छोटे राजकुमार को अपनी भूल का एहसास हुआ। वह फूट-फूटकर रोने लगा। राजा ने उससे रोने का कारण पूछा, तो उसने सुबकते हुए बताया-“पिताजी, मैं शर्त हार गया। अब काला घोड़ा कभी नहीं आएगा”।
इसके बाद राजकुमार उदयप्रताप ने अपने पिता को काले घोड़े की पूरी कहानी सुनाई। दरबार में बैठे मंत्री ने भी कहानी सुनी। पूरी कहानी सुनकर मंत्री ने कहा-“राजकुमार, काले घोड़े का न आना ही ठीक है। जो लोग हमेशा दूसरों का मुँह ताकते हैं, वे आलसी हो जाते हैं। आपने देखा कि महाराज और आपके बड़े भाई दूसरों के भसरों के भरोसे पौधों के गायब होने का रहस्य नहीं जान सके, जबकि आपने अपने बल पर सफलता प्राप्त कर ली। इसी प्रकार भविष्य में भी आपको सफलताएँ मिलेंगी”।
मंत्री ने समझाने से छोटा राजकुमार प्रसन्न हो गया। अंत में उसने राजा से कहा-“पिताजी, इस कहानी से मेरे भाईयों को भी अपना काम स्वयं करने की शिक्षा मिल गई होगी। अब आप बड़े भाई को राज सिंहासन पर बैठने की आज्ञा देने की कृपा करें। मैं सब प्रकार से उनकी मदद करूँगा”। छोटे राजकुमार की बुध्दि एवं भाईयों के प्रति उसके मन में प्रेम भाव देखकर राजा वीरभद्र अत्यंत प्रसन्न हुए। राजा वीरभद्र ने छोटे राजकुमार की सलाह के अनुसार सबसे बड़े राजकुमार भानुप्रताप को राजा बनाने की घोषणा कर दी। छोटे राजकुमार के व्यवहार से चारों भाईयों का परस्पर प्रेम और बढ़ गया।
Hindi Story- इधर- उधर (कहानी न0-13)
एक बार नारद मुनि घूमते हुए भगवान विष्णु के पास पहुँचे। विष्णुजी शेषशय्या पर आराम कर रहे थे। नारद ने विष्णुजी को प्रणाम किया। विष्णुजी ने उन्हें अपने पास बैठाया। बोले-“कहो मुनिवर। यहाँ कैसे आना हुआ?
नारद मुनि बोले-“प्रभो, आप मुझे भ्रमरी देवी की कथा सुनाने का कष्ट करें”। यह सुन, विष्णुजी बोले-“ठीक है मुनिवर मैं आपको भ्रमरी देवी की कथा सुनाता हूँ-बहुत समय पहले अरुण नाम का एक दैत्य था। वह परम शक्तिशाली होकर देवताओं को जीतना चाहता था। अत: वह हिमालय पर जाकर गायत्री मंत्र का जाप करने लगा। वर्षो तक निराहार रहकर उसने जाप किया। जाप के प्रभाव से उसका शरीर तेजस्वी हो गया। उसका तेज पूरे संसार में फैल गया। उसके परम तेज से देवता डर गए। वे आपस में विचार-विमर्श कर ब्रम्हाजी के पास पहुँचे। इंद्र ने ब्रम्हाजी से प्रार्थना की-‘प्रभो हमे दैत्यराज अरुण के तेज से डर लग रहा है। कृपया हमारे भय के दूर करें’।
“ब्रम्हाजी ने देवताओं को आश्वासन देकर विदा किया। देवता लौट गए। ब्रम्हाजी दैत्यराज अरुण के सम्मुख प्रकट हुए। उनकी आहट पाकर दैत्यराज की आँखे खुल गई। अपने सामने ब्रम्हाजी को देख वह हर्ष से झूम उठा। उसने ब्रम्हाजी को प्रणाम किया। ब्रम्हाजी बोले-“दैत्यराज, मैं तुम्हारी तपस्या से बहुत प्रसन्न हूँ। बोलो, मैं तुम्हें क्या वर दूँ?” यह सुनते हू दैत्यराज ने कहा-‘प्रभो मैं कभी न मरुँ आप ऐसा वरदान देने की कृपा करें’।
“ब्रम्हाजी मुसकराकर बोले-‘दैत्यराज मैं तुम्हें यह वरदान देने में असमर्थ हूँ। मैं ही नहीं बल्कि विष्णुजी और शंकरजी भी ऐसा वर देने में असमर्थ हैं, क्योंकि जो पैदा होता है, वह मरता अवश्य है। अत: तुम कोई दूसरा वर माँगो’। दैत्यराज ने कहा-‘प्रभो मैं अस्त्र-शस्त्र से न मरुँ। स्त्री-पुरुष और पशु-पक्षी भी मुझे न मार सकें, आप ऐसा वर देने का कष्ट करें’।
“ब्रम्हाजी ने ‘तथास्तु’ कहा और अंतर्ध्यान हो गए। दैत्य खुशी से झूमता हुआ पाताल लोक पहुँचा। उसने ब्रम्हाजी से मिले वरदान के बारे में अपने दरबारी दैत्यों को बताया। दैत्यों ने कहा-“दैत्यराज अब आप जल्दी ही देवताओं पर आक्रमण कर दें। देवताओं की हार निश्चित है’। दैत्यराज को यह सलाह अच्छी लगी। उसने दूत को बुलाया। दूत को एक पत्र दिया। कहा-‘दूत, तुम यह पत्र जल्दी ही इंद्र को दैत्यराज का पत्र दिया। पत्र पढ़कर इंद्र घबरा गये। दूत चला गया, तो देवताओं ने पत्र के बारे में पूछा।
“इंद्र बोले-‘दैत्यराज, अरुण ने हम पर आक्रमण की धमकी दी है। हम उसके सामने टिक नहीं पायेंगे। क्योंकि ब्रम्हाजी के वरदान से वह परम शक्तिशाली हो गया है। हमें तुरंत ब्रम्हा, विष्णु और शंकरजी की शरण में चलना चाहिए। वे ही हमें बचा सकते है’। यह सोच, सभी देवता भगवान शंकर से मिलने चल दिए। इसी बीच दैत्यराज ने स्वर्गलोक पर हमला कर सूर्य, चद्र, अग्नि और यम को परास्त कर दिया। अब उसका स्वर्गलोक पर अधिकार हो गया।
“उधर देवता भगवान शंकर की शरण में बैठे थे। तभी आकाशवाणी हुई-‘यदि दैत्यराज अरुण किसी उपाय से गायत्री मंत्र का जाप त्याग दे और देवता ईशानी की पूजा करें, तो दैत्यराज से मुक्ति मिल सकती है’। आकाशवाणी सुन शंकरजी बोले-‘देवराज इंद्र, अब आप वैसा ही करें, जैसी आकाशवाणी हुई है। आप सबका कष्ट दूर हो जाएगा’।
देवता प्रसन्न हो गए। देवराज इंद्र ने आचार्य बृहस्पति से मंत्रणा की। बृहस्पति उनकी बात मानकर देत्यराज अरुण के सम्मुख जा पहुँचे।
“दैत्यराज अरुण अपने सामने बृहस्पति को देख हैरान था। वह फिर बोला-‘आचार्य बृहस्पति,मै आपका शत्रु हूँ, फिर भी आप यहाँ पधारे। यहाँ आने का क्या प्रयोजन है?’ बृहस्पति ने कहा-‘दैत्यराज, जो देवी निरंतर हम देवताओं की सेवा में लगी रहती हैं, तुम उन देवी की आराधना करते हो। इस तरह तुम हमारे मित्र हुए न कि शत्रु’।
यह सुनते ही दैत्यराज का माथा ठनका। उसका गायत्री मंत्र से विश्वास डगमगा गया। इसी बीच माया ने दैत्यराज को अपने वश में कर लिया। उसने गायत्री मंत्र का जाप त्याग दिया। जाप छोड़ते ही दैत्यराज तेज रहित हो गया।
“उधर देवताओं ने ईशानी का ध्यान किया। देवी प्रसन्न हो गई। वह देवताओं के सम्मुख प्रकट हुई। देवताओं ने देवी को प्रणाम कर कहा-‘देवी, आप भ्रमरों(भौरों) से युक्त हैं। अत: आप संसार में आज से भ्रमरी देवी के नाम से प्रसिध्द होंगी। आप दैत्यराज अरुण का वध कर, हमें उसके भय से मुक्त करने का कष्ट करें’।
देवी बोलीं-“देवगण मैं जल्दी ही आप सबको कष्ट से मुक्त कर दूँगी। आप चिंता न करें’।
इतना कहते ही चमत्कार हो गया। देवी के चमत्कार से चारों तरफ भ्रमर ही भ्रमर दिखाई देने लगे। दैत्यों की सेना खुशी से झूम रही थी। तभी भ्रमरी देवी ने ढेर सारे भ्रमरों के साथ दैत्यों पर हमला कर दिया। इस आक्रमण से दैत्यों में खलबली मच गई। दैत्यराज अरुण को कुछ भी सोचने-समझने का समय नहीं मिला। भ्रमर उसके शरीर से चिपट गये और उसे काटने लगे। दैत्यराज चीखने-चिल्लाने लगा और इधर-उधर भागने लगा। भ्रमरों ने काट-काटकर उसे बेदम कर दिया। दैत्यराज जमींन पर गिरते ही मर गया। उसकी सेना भी भाग खड़ी हुई।
“यह समाचार मिलते ही देवताओं में खुशी की लहर दौड़ गई”।– कहते हुए भगवान विष्णु ने कथा पूरी की। कथा सुनकर नारद गद्गद् हो गए।
Hindi Story- भूखा पड़ोसी (कहानी न0-14)
एक बार एक राजा वेश बदलकर रात में नगर का भ्रमण कर रहा था। अचानक वर्षा होने लगी। उसने एक-मकान का दरवाजा खटखटाया।
अंदर जाकर राजा ने गृहस्वामी से कहा-“मैं कई दिनों से भूखा हूँ।भूख के मारे मेरे प्राण निकल रहे है। जो कुछ हो, मुझे तुरन्त खाने को दे दो”।
गृहस्वामी स्वयं अपनी पत्नी व बच्चों सहित तीन दिन से भूखा था। घर में अन्न का एक दाना तक न था। वह बड़े धर्म-संकट में पड़ गया कि अपने भूखे अतिथि को कहाँ से भोजन कराएँ? तभी उसके मन में एक विचार आया। वह घर से बाहर निकला और सामने एक दुकान से दो मुठ्ठी चावल चुरा लाया। पत्नी ने उन्हें पकाकर अतिथि को खिलाने के लिए कहा।
अगले दिन दुकानदार ने राजा से पड़ोसी की शिकायत की। कहा कि उसने दुकान से चावल चुराएँ है। राजा ने तत्काल उस व्यक्ति को बुलवाया। चावलों की चोरी के बारे में पूछा। उस व्यक्ति ने अपना अपराध स्वीकार करते हुए बीती रात की पूरी घटना सुना दी। हाथ जोड़कर कहा-“महाराज, मेरा स्वयं का परिवार तीन दिन से भूखा था। मैंने अपने लिए चोरी नहीं की और न ही कभी करता, चाहे प्राण निकल जाते, परन्तु आधी रात मे घर पर आए अतिथि को भूखा नहीं देख सकता था”।
राजा यह सुनकर बहुत दुखी हुआ। उसने बताया कु अतिथि वह स्वयं था।
फिर उसने उस दुकानदार को बुलवाया। पूछा कि क्या उसने अपनी दुकान से पड़ोसी को रात में चावल चुराते हुए देखा था? दुकानदार के हाँ कहने पर राजा ने कहा-“इस घटना के लिए प्रथम दोषी तो मैं स्वयं हूँ। दूसरा दोषी यह दुकानदार है जिसने रात में पड़ोसी को चावल चुराते देख लिया, परन्तु तीन दिन तक पड़ोसी को परिवार सहित भूखा रहते नहीं देखा। इसने अपना पड़ोस धर्म नहीं निभाया”।
Hindi Story- बोलती टोपी (कहानी न0-15)
एक गरीब किसान अपनी बीमार माँ के साथ रहता था। उसका नाम तोरोकु था। तोरोकु दिन भर खेत पर काम करता। फिर भी अपने और बीमार माँ के लिए खाना न जुटा पाता था। इसलिए वह दूसरों के खेत में भी मजदूरी करता और लोगों का बोझा ढोता।
एक दिन बहुत तूफान तथा बारिश आने की आशंका थी। उसी दिन तोरोकु को अपने गाँव के बढ़ई के घर से दूसरे गाँव के मुखिया के यहाँ एक बक्सा पहुँचाना था। मुखिया की बेटी की शादी थी। वह बक्सा उसी के लिए बनवाया गया था।
तोरोकु को बीमार माँ ने ऐसे मौसम में घर से बाहर जाने से मना किया, लेकिन उसने एक न मानी। उसकी जिद देखकर माँ ने उसे एक पुरानी टोपी निकालकर देते हुए कहा-“बेटा, यह तुम्हारे पिताजी की एकमात्र निशानी है। इसे पहनकर जाओ। शायद यह इस तूफान और बरसात में तुम्हारी मदद कर सकें”।
तोरोकु ने उसे टोपी को पहना और बक्से को पीठ पर लादकर चल दिया। रास्ते में उसे थोड़ी थकान महसूस हुई। बक्से को पीठ से उतार, वह एक पेड़ के नीचे सुस्तान लगा। अचानक उसे किसी की बातें करने की आवाज सुनाई देने लगीं।
“ये आवाजें कहाँ से आ रही हैं? कोई दिखता क्यों नहीं?”-उसने चिल्लाकर कहा और झुंझलाहट में अपनी टोपी सिर से उतार दी। अब उसे बातें सुनाई देना बंद हो गई। थोड़ी देर बाद जब तोरोकु ने फिर से टोपी पहनी, तो उसे बातें फिर सुनाई देने लगीं।
‘कमाल है, चोपी पहनते ही मैं चिडियों, पेड़ों, नदी-पहाड़ो की बातें सुन सकता हूँ और समझ भी सकता हूँ’।–सोचते हुए वह बक्सा पीठ पर लादकर मुखिया के गाँव की ओर चल पड़ा।
“देखो न, तोरोकु जिस लड़की का बक्सा पहुँचाने जो रहा है, वह बहुत दिनों से बीमार है। उसका पिता बहुत चिंतित है। उसके ब्याह की तारीख भी नजदीक आ रही है। बहुत इलाज कराने के बाद भी उसकी हालत दिन पर दिन बिगड़ती ही जा रही है”।–एक चिडिया बोली। तोरोकु धीमी गति से चलता ध्यान से चिड़ियों की बातें सुनने लगा।
“हाँ, लेकिन मुखिया के बगीचे में एक कपूर का पेड़ है। लड़की को ठीक करने का इलाज इस कपूर के पेड़ के पास है। लेकिन पेड़ो की बातें भला मनुष्य कहाँ समझ पायेंगे?”-दूसरी चिड़िया ने कहा।
यह सुनकर तोरोकु के मुँह से निकला-“मैं, मैं समझूँगा”। लेकिन काश, चिड़िया तोरोकु के उत्साह को समझ सकतीं। उन्हें न तो मनुष्य की भाषा आती थी और न ही उनके पास तोरोकु जैसी चमत्कारी टोपी थी। इस तरह तोरोकु नदी, पहाड़, पेड़, चिड़ियों की बातें सुनता, मस्ती से मुखिया के घर पहुँचा। तोरोकु ने मुखिया को बताया कि अगर वह उसे एक दिन अपने घर ठहरने की इजाजत दे, तो वह उसकी बेटी की बीमारी दूर कर सकता है।
तोरोकु मुखिया के घर ठहरा और रात होने का बेताबी से इंतजार करन लगा। आखिर रात को ही तो वह पेड़ों की बाते सुन सकता था। लोगों का ऐसा मानना था कि आधी रात में ही पेड़ आपस में बातें करते हैं। तोरोकु पीछे के बगीचे में कपूर के पेड़ के पास जाकर अपनी टोपी पहनकर चुपचाप बैठ गया। कुछ देर बाद उसे लगा कि पेड़ आपस में बातें कर रहे हैं। एक पेड़ बोला-“देखो, हमारा दोस्त कपूर का पेड़ अब थोड़े ही दिनो में मर जाएगा”।
दूसरा बोलो-“बेचारा दिन-प्रतिदिन सूखता जा रहा है”।
“जब से मुखिया ने पीछे की पहाड़ी पर बड़ा-सा पत्थर लगाकर पानी को रोका है, तब से ही यह हुआ है”।–तीसरा बोला।
चौथा पेड़ जो इतनी देर से चुपचाप सबकी बातें सुन रहा था, बोला-“अरे, मुखिया बहुत धूर्त है। उसने सारा पानी धान के खेत में डाल दिया है”।
“वह मूर्ख यह नहीं जानता कि कपूर के पेड़ के सूखने की वजह से ही उसकी बेटी बीमार है”।–पाँचवां बोला।
“हाँ, एक दिन कपूर के पेड़ की तरह हम भी सूखकर मर जायेंगे। लेकिन हमारी कोई नहीं सुनेगा। कौन करेगा हमारी देखभाल?”-उनमें से एक बुजुर्ग पेड़ भारी स्वर में गहरी साँसे लेते हुए बोला।
तोरोकु जो इतनी देर से पेड़ो की बातें सुन रहा था, तुरन्त बोल पड़ा-“मैं करूँगा, मैं करूँगा तुम लोगों की देखभाल”।
सुबह की लालिमा पूरब की पहाड़ी से छिटकने लगी थी। तोरोकु उटकर पेड़ों की बताई गई पहाड़ी की तरफ चल पड़ा। वहाँ जाकर उसने देखा कि सचमुच वहाँ पर एक बड़ा-सा पत्थर पानी को बगीचे में जाने से रोक रहा था। तोरोकु पत्थर हटाने की कोशिश करने लगा। लेकिन पत्थर इतना बड़ा था कि हिलने का नाम तक न लिया। तोरोकु अपनी ओर से पूरा जोर लगाकर पत्थर को हटाने की कोशिश करता रहा। इसी बाच मुखिया उसे ढूँढ़ते-ढूँढ़ते वहाँ आ पहुँचा। तोरोकु को पत्थर हटाते देख, वह गुस्से से बोला-“अबे मूर्ख, यह क्या कर रहा है? इससे मेरे सारे खेत सूख जायेंगे”। यह कहकर वह तोरोकु को वहाँ से हटाने लगा, परन्तु तोरोकु कहाँ मानने वाला था? जिद्दी तो वह थी ही। उसने पूरा जोर लगाया और पत्थर दूसरी ओर ढलान से लुढ़कता हुआ दूर जा गिरा। बगीचे की तरफ पानी बहने लगा। पानी का बहाव इतना तेज था कि मुखिया, उसके साथ बगीचे ततक बहता चला गया। मुखिया को काफी चोट आई।
कुछ ही दिनो में कपूर का पेड़ लहलहाने लगा और उसके साथ के पेड़ भी हरे-भरे हो गए। कपूर के पेड़ की खुशबू वातावरण में दूर-दूर तक फैलाने लगी। मुखिया की बेटी भी ठीक हो गई। तोरोकु एक दिन अपनी माँ को घुमाते हुए वहाँ ले आया। हरियाली देखकर तोरोकु की माँ भी स्वस्थ होने लगी।
मुखिया को इस बात की काफी खुशी थी कि तोरोकु की वजह से उसकी बेटी स्वस्थ होकर अपने ससुराल जा चुकी थी। वह समझ चुका था कि पानी की जरूरत केवल फसल को ही नहीं, बल्कि अन्य पेड़-पौधों को भी है। तोरोकु को उसने ढेर सारे रुपए इनाम में दिए। अब तोरोकु को न दूसरों के खेत पर काम करने की जरूरत थी और न ही बोझा ढ़ोने की। उसने अपने लिए खेत खरीदे। ढेर सारे पेड़ लगाए। तोरोकु अब दिन भर अपने खेत में काम करता। जब थक जाता तो पेड़ो की छाया में अपने पिता की चमत्कारी बोलती टोपी पहन, पेड़ों की चिड़ियों की, नदी-नालों की बातें सुनता। कहते हैं, तोरोकु के गाँव में फिर कभी पानी की कमी नही हुई।