मध्ययुगीन यूरोपीय सभ्यता के निर्माण और विकास में जितने तत्वों ने काम किया उनमें एक विशेष तत्व है- ‘सामन्तवाद’ यूरोपवासियों के जीवन के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक पक्षों को सामन्तवाद ने न केवल प्रभावित किया अपितु अपने उत्त्रोत्तर विकास के लिये वे इस पर आधारित भी थे।
सामन्तवाद का अर्थ एवं परिभाषा
सामन्तवाद क्या हैᣛ? अथवा सामन्तवाद की परिभाषा क्या है? की एक पूर्णतया निश्चित परिभाषा देना कठिन है क्योंकि यूरोप के प्रत्येक देश में इसका स्वरूप भिन्न–भिन्न था फिर भी इतना निश्चित है कि यह भूमि वितरण पर आधारित एक सामाजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था थी। इस व्यवस्था के अन्तर्गत समाज के विभिन्न वर्ग के लोग एक निश्चित पारस्परिक सम्बन्ध में स्वयं को बॉध लेते थे। यह सम्बंध प्रतिरक्षा और सेवा पर आधारित होता था। समाज का शक्तिशाली वर्ग कमजोर वर्ग के लोगों की रक्षा करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेता था। तथा कमजोर वर्ग शक्तिशाली वर्ग की सेवा करना स्वीकार करते थे। इस विषय में बीच का कथन है- “प्रत्येक व्यक्ति को अपने से नीचे वर्ग वाले का शोषण करने का अधिकार प्राप्त था और साथ-साथ अपने से ऊपर वाले व्यक्ति से शोषित होने का भी”।
डॉ. वीरोत्तम ने सामन्तवाद की परिभाषा देते हुए लिखा है, “संक्षेप में सामन्तवाद वैयक्तिक शासन, एक विशिष्ट भूमि-व्यवस्था और व्यक्तिगत निर्भरता का मिश्रित रूप था”।
इस प्रकार सामन्तवाद सामाजिक संगठन की वह व्यवस्था थी जिसके तहत् प्रत्येक व्यक्ति के अधिकारों एवं कर्तव्यों का निर्धारण उसके भूमि पर अधिकारों के आधार पर होता था। इसके अन्तर्गत बड़े-बड़े भूमिपति उन प्रशासनिक अधिकारों का उपयोग करते थे, जिन पर पहले राजाओं का अधिकार था तथा किसानों को अपने उत्पादन का एक हिस्सा सामन्तों को देना होता था।
यहाँ हमें सामन्तवाद के तीन लक्षण दिखाई देते हैं- जागीर, संरक्षण, सम्प्रभुता। जागीर साधारण भूमि थी। संरक्षण का अर्थ था, भूमिदाता तथा भूमि पाने वाले के मध्य निकट सम्बंध। सम्प्रभुता का अर्थ था- अपने क्षेत्र में भू-स्वामी का पूर्ण या आंशिक स्वामित्व। इस संगठन के शीर्घ पर राजा एवं कृषि, दास को छोडकर इस पिरामिडनुमा संगठन में प्रत्येक सामन्त अपने से नीचे व्यक्तियों के स्वामी थे और ऊपर के व्यक्तियों के सेवक होते थे। कानूनी रूप से समस्त भूमि राजा की थी। किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से सभी भूतिपति अपनी-अपनी भूमि में प्रभुता सम्पन्न था। राजा से इनका इतना ही प्रत्यक्ष सम्बंध था कि आवश्यकता पड़ने पर ये राजा क सैनिक सहायता करते थे। सामन्तों के भी सामन्त हुआ करते थे। निर्बल और सामान्य लोगों ने भी अपनी स्वतंत्रता का परित्याग कर अपनी रक्षार्थ शक्तिशाली सामन्तों की अधीनता स्वीकार कर ली थी। जागीरों में जामीरदार शान्ति एवं सुरक्षा बनाए रखने कर वसूलने एवं न्याय प्रदान करने के लिये उत्तरदायी थे।
यूरोप में सामन्तीय व्यवस्था का उदय
यूरोप में सामन्तीय व्यवस्था का आरम्भ पाँचवी शताब्दी से माना जाता है। यूरोप मे सामन्तीय व्यवस्था 5वीं शताब्दी तक रही। यह यूरोपीय इतिहास का मध्ययुग कहलाता है। किन्तु 15वीं शताब्दी तक यह प्रथा काफी निर्बल हो गई और जल्द ही सारे यूरोप में सामन्तीय व्यवस्था का अन्त हो गया।
सामन्तीय व्यवस्था का निर्माण किसी विचारधारा के फलस्वरूप नहीं हुआ था। वक्त की जरूरत के रूप में ही सामंतवाद का उदय हुआ था। रोमन साम्राज्य के पतन के बाद यूरोप मे अराजकता ने जन्म ले लिया। जगह-जगह लूटमार व रक्तपात होने लगे थे। ऐसी स्थिति में यूरोप महाद्वीप का सामान्य जीवन प्रत्येक क्षेत्र में दुरुह-सा होने लगा। आतंकवाद के इसी प्रकार के विस्तार को देखकर लोगों ने अपनी जानमाल की रक्षा के लिये एक ऐसे व्यक्ति की अधीनता स्वीकार कर ली जो उसकी इन अत्याचारों से रक्षा कर सकें। ऐसे सभी लोगों को उस अत्याचार युग में सामन्त की संज्ञा दी गई। यूरोपियनों ने जिन शक्तिशाली व्यक्ति (सरकारें या सामन्त) का आश्रय प्राप्त किया था वही कालान्तर में एक विशाल भू-भाग के स्वामी बनकर तथा सशक्त एवं सम्पन्न होकर शरणागत व्यक्तियों की सुरक्षा का प्रबंध करने लगें। इन अधीनस्थ व्यक्तियों के सुव्यवस्थित जीवन का भार भी इन्ही सामन्तों पर आ गया। इस प्रकार से सामन्त यूरोप के इतिहास से अपना महत्वपूर्ण स्थान रखने लगे।
सामन्तवाद का स्वरूप या विशेषताएँ
सामन्तवाद प्रथा एक मिश्रित सामाजिक-आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक संगठन व्यवस्था थी। सामन्तवादी प्रथा की प्रमुख विशेषताएँ या स्वरूप निम्नलिखित हैं-
- राजा सर्वोच्च सत्ताधारी- इस प्रथा के अनुसार राजा समाज में सर्वोपरि स्थान प्राप्त करता था और उसके अधीनस्थ अन्य छोटे-छोटे सामन्त थे जो राजा की सहायता करते थे। सामन्तों की अधीनता में कृषक वर्ग कार्य करता था।
- राजा के सहायक सामन्त- सामन्तों के पास जागीरें हुआ करती थी जिनकों वह कृषकों में बाँट दिया करते थे। सामन्त राजा को सैनिक सहायता भी देते थे। वे अपने क्षेत्रों के निरंकुश शासक होते थे तथा दासों से बेगार लेते थे सामन्तों की अपने क्षेत्र मे न्याय के अधिकार भी प्राप्त थे।
- द्विवर्गीय समाज- सामन्तशाही प्रथा ने समाज को दो वर्गो में विभाजित कर दिया था। भूमिपति वर्ग तथा निर्धन कृषक वर्ग। कृषकों से उनकी भूमि की उपज या पर्याप्त अंश सामन्त ले लिया करते थे और कृषक या दास वर्ग दरिद्र जीवन ही व्यतीत करता था।
- दास प्रथा- सामन्त दासों से बेगार लेते थे। दासों को अपने स्वामी के सम्मुख प्रतिज्ञा करनी पडती थी कि प्राप्त भू-भाग के लिये मैं आपका सेवक हूँ और सदैव सद्भाव से आपकी सेवा करूँगा। इस प्रकार भूदान के प्रतिरूप में सेवा की प्रतिज्ञा सामन्तवाद की एक विशेषता थी। ये सेवक दास ही होते थे।
- जागीरदारी प्रथा- राजा अपनी सारी भूमि शक्तिशाली सामन्तों में वितरित कर देता था और ये सामन्त उसे कृषकों को खेती के लिये दे दिया करते थे। समाज में सामन्तों की स्थिति बहुत ही सुदृढ़ होती थी।
मध्यकाल में यूरोप का सामाजिक स्वरूप
सामन्तवाद यूरोपीय मध्ययुगीन जीवन का मूलाधार था। यूरोपीय व्यवस्था सामन्त वादी थी यह राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक कार्यो में कार्य करती थी।
रोमन साम्राज्य के पतन के पश्चात इस व्यवस्था का रूप कायम हुआ। धीरे-धीरे समस्त यूरोप मे सामन्ती व्यवस्था फैल गई। धीरे-धीरे सामन्तों ने सभी प्रकार के अधिकार प्राप्त कर लिये। क्योंकि सामन्तवाद के माध्यम से बाहरी हमलों और आन्तरिक सुरक्षा के कार्य, खेती विकास न्याय व्यवस्था होती थी। सामन्तों की प्रधानता और कृषकों की निर्धनता के कारण उन्होनें अपने कार्यो को भुला दिया। अब वे किसानों पर अत्याचारों को देख रहे थे। वे उनके विशेष अधिकारों को कम करना चाहते थे। धीरे-धीरे यह संस्था अभिशाप बन गई।
सामन्तवादी व्यवस्था के कारण समाज दो भागों में बँट गया।
(1) अधिकारों से युक्त राजा व सामन्त।
(2) अधिकारों से वंचित दास व किसान सदियों से सामन्ती प्रधानता चली आ रही थी। किसान अत्याचार सहन कर रहे थे। मध्ययुग में कला और व्यापार की उन्नति हुई। नये-नये नगरों का जन्म हुआ।
सम्पन्न नगरों के कारण मध्यम वर्ग का जन्म हुआ। नई राजनैतिक जागृति आई। धीरे-धीरे सामन्तवाद समाप्त हो गया।
सामन्तवाद के पतन के कारण
अपने प्रारम्भिक काल से सामन्तवाद ने स्थानीय सुरक्षा, कृषि और न्याय की समुचित व्यवस्था करके समाज की सराहनीय सेवा की किन्त्ुा कालान्तर में अपनी व्यवस्था के कुछ निम्नलिखित दोषों के कारण एवं सामाजिक परिस्थिातियों के कारण सामन्तवाद का पतन हो गया।
- युद्ध-प्रियता को प्रोत्साहन- व्यक्तिगत युद्धों की प्रथा का जन्म सामन्तवाद के कारण हुआ था। इससे जनसाधारण वर्ग में युद्ध-प्रियता को प्रोत्साहन मिला जिसके फलस्वरूप युद्ध-प्रिय लोगों ने प्रभुता सम्पन्न सामन्तों का समूल विनाश कर दिया।
- सामाजिक अशान्ति- व्यक्तिगत युद्धों की परम्परा ने धीरे-धीरे सामाजिक शांति को निर्विघ्न रहने दिया। इसके अतिरिक्त सामन्तों का दुर्व्यवहार भी अशांति का कारण बना जिससे सामन्त प्रथा का अन्त हो गया।
- व्यक्तिगत स्वार्थो की पूर्ति- सामन्त लोग राष्ट्रीय उन्नति तथा समाज कल्याण आदि के कार्यो से प्राय: उदासीन रहते थे। उनका एकमात्र उद्देश्य व्यक्तिगत स्वार्थो की पूर्ति मात्र करना था। अतएव जनता के सजग होने पर स्वार्थ की नींव पर स्थित सामन्तवाद का महल ढह गया।
- बारूद का आविष्कार- आधुनिक युग के आरम्भ में गोला, बारूद का आविष्कार हुआ और इसने मनुष्यों के हाथ में विशेष शक्ति केन्द्रित कर दी जिसके कारण वे शक्तिशाली सामन्तों से भी लोहा लेने में समर्थ हुए।
- यूरोप में नवजागरण एवं राष्ट्रीयता का उदय- पुनर्जागरण के कारण यूरोपीय में राष्ट्रीयता या देश-प्रेम की भावनाए फैल गयी। अत: वे राष्ट्रीय संगठन के लिये सामन्तों का विनाश आवश्यक समझने लगे।
- सामन्तों का विलासितापूर्ण जीवन- सैनिक एव आर्थिक शक्तियाँ प्राप्त कर इस युग में सामन्त वर्ग विलासमय जीवन व्यतीत करने लगा था। दासों में बेगार ली जाती थी, कृषकों से कृषि का उत्पादित भाग लिया जाता था और इन सबसे विलासिता की वस्तुएँ एकत्रित की जाती थी। नवजागरण काल मे जनता ने इन विलासी सामन्तों का सफाया कर दिया।
- रोमन सम्राटों का प्रयास- एक हजार ईसवीं के लगभग पश्चिमी यूरोप में पवित्र रोमन साम्राज्य की स्थापना हुई। सम्राट सामन्ती प्रथा के बाहर थे और वे एक शक्तशाली केन्द्र की स्थापना के पक्षपाती थे। अत: उन्होनें अपने प्रभुत्व काल में सामन्तों की बढ़ती हुई शक्ति को अंकुश लगाकर रखा था। सामन्तों में सम्राटों से लोहा लेने क शक्ति नहीं थी।
- छापखाने का आविष्कार- धर्म युद्धों के क्रम में अरबों के साथ सम्पर्क के कारण यूरोप मे छापखाने का प्रयोग शुरू हुआ। इस प्रकार बड़ी संख्या मे सस्ती पुस्तकें सुलभ हो गई। परिणामस्वरूप यूरोप में नये विचारों का तेजी से प्रचलन हुआ और अन्धविश्वासों में कमी आई। इस नई चेतना ने लोगों की आँखें खोल दी और लोग सामन्तवाद की बुराइयों से परिचित हो गए। लोग जल्द से जल्द इस व्यवस्था से मुक्ति पाने के लिये लालायित हो उठे।
- चर्च का प्रभाव- मध्यकाल में यूरोप के जन-जीवन पर चर्च का गहरा प्रभाव था। चर्च तथा पोप की आज्ञाओं का उल्लंघन राजा भी नहीं कर सकते थे। जब पोप ने अनुभव किया कि यूरोप को धन-जन की अपार क्षति उठानी पड रही है तो उसने इस दिशा में आवश्यक कदम उठाये। सामन्तों को पोप द्वारा अपनी प्रजा पर अत्याचार न करने की सलाह दी गई। चर्च तथा पोप के इन कार्यो ने प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सामन्तों की शक्ति को सीमित किया।
- मध्यम वर्ग का उत्कर्ष- शिक्षा की प्रगति छापखाने का आविष्कार, वाणिज्य व्यवसाह की उन्नति तथा शहरों की स्थापना के कारण यूरोप के विभिन्न देशों में एक प्रभावशाली मध्यम वर्ग का उत्कर्ष हुआ। शहरों में रहने वाले लोग स्वतंत्र विचारों के पोषक होते थे। जागृत मध्यम वर्ग के लोग कब तक सामन्तों की अधीनता को सहते। ये लोग शांति चाहते थे ताकि उद्योग-धन्धों तथा व्यापार का विकास हो। दूसरों ओर सामन्त युद्धप्रिय थे। अत: मध्यम वर्ग के लोग शीघ्र की सामन्तो के चंगुल से मुक्ति चाहते थे। यही वजह थी कि इस वर्ग के लोगों ने राजा को आर्थिक सहायता देकर स्थाई सेवा में रखने के लिये प्रोत्साहन किया। इस प्रकार राजा और मध्यम वर्ग ने मिलकर कालान्तर में सामन्तों क शक्ति का दमन किया।
- किसानों में असन्तोष- सामन्तवादी व्यवस्था मे किसानों का बेहद शोषण होता था, जिससे धीरे-धीरे सामन्तों व किसानों के बीच असन्तोष की भावना प्रबल होती गई और अन्त में इस भावना ने सामन्तों के विरूद्ध विद्रोहों को जन्म दिया। 1381 ई. मे इस प्रकार का एक भनायक विद्रोह इंग्लैण्ड में हुआ। 1358 ई. में फ्रांस में भी किसानों का भंयकर विद्रोह हुआ था। ये विद्रोह सामन्दवाद के लिये प्राणघातक सिद्ध हुआ।
- मुद्रा का प्रचलन- मुद्रा के प्रचलन से आर्थिक व्यवस्था मे आमूल परिवर्तन आया। विनिमय की सामन्त प्रथा का अन्त हो गया। वस्तुओं को खरीदने के लिये सामन्तों को भी अब मुद्रा की आवश्यकता हुई। अब पैसे लेकर उन्होनें अपनी कम्पनियों को भी स्वतंत्र करना शुरू कर दिया। इससे उनका प्रभाव घटता गया। दूसरी ओर इससे राजा को सहूलियत हुई। वह वेतन देकर स्थायी सेना रखने लगा और सामन्तों के नियन्त्रण से मुक्त हो गया।
निष्कर्ष- वस्तुत: सामन्तवाद की आवश्यकता अस्थाई काल के लिये थी। जिन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये इसकी स्थापना की गई थी, उनकी प्राप्ति के बाद इसका कोई महत्व नहीं रह गया था। बाद में तो यह व्यवस्था समाज तथा देश के लिये अत्यन्त हानिकारक हो गई। समुचित सुधार और परिवर्तनों के द्वारा इसे लाभदायक बनाया जा सकता था किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। ठीक इसके विपरीत सामन्तों की युद्ध प्रवृत्ति एवं उनके अत्याचारों ने कुछ ऐसी शक्तियों को जन्म दिया जिनके चलते अन्त में यूरोप में सामन्तवाद का अन्त हो गया।
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