रामायण की घटना है। श्रीराम का राज्याभिषेक होना था। श्रीराम भी ये बात जानते थे। घोषणा दशरथ ने की थी तो इसके बदलने की संभावनाएं भी नहीं थीं। सबकुछ ठीक था।
राज्याभिषेक से पहले वाली रात कैकयी ने मंथरा की संगत की। मंथरा ने अपनी बातों में कैकयी को उलझा लिया, भरत को राजपाठ देने और राम को वनवास भेजने के लिए तैयार कर लिया। कैकयी ने दशरथ से ये दो वर मांग लिए और अपनी इच्छाएं पूरी करवा लीं।
दशरथ ने जब राम को बुलवाया और ये बातें बताईं तो वे धैर्य के साथ सारी बातें सुनते रहे। पिता के वचन को पूरा करने के लिए राम वनवास जाने के लिए वहां से चल दिए।
उस समय दशरथ ने कैकयी से कहा, ‘तुम राम को वनवास जाने से रोक लो। इसने जीवन में कभी भी धैर्य नहीं खोया है। ये हर काम शांति से ही करता है। अगर तुम ये सोच रही हो कि वनवास भेजकर राम को कोई सजा दे रही हो तो ये सोच गलत है। राम किसी से कोई शिकायत नहीं करेगा और चुपचाप वन में चला जाएगा। राम जैसे लोग कभी विचलित नहीं होते हैं। ये बात मैं इसलिए नहीं कह रहा हूं कि मैं इसका पिता हूं। बल्कि, मैं राम को बहुत अच्छी तरह जानता हूं, इसलिए ये बातें कह रहा हूं।’ हुआ भी ऐसा ही, राम पूरी सहजता के साथ वनवास चले गए।
सीख – यहां श्रीराम ने ये सीख दी है कि ऐसा जरूरी नहीं कि जो हम सोचते हैं, वैसा ही हो। कभी-कभी जैसी हमारी सोच होती है, वैसा नहीं होता, बल्कि उल्टा ही हो जाता है। ऐसे हालात में भी धैर्य और शांति बनाए रखनी चाहिए। यही धैर्यवान इंसान की निशानी है।