एक दिन रामकृष्ण परमहंस किसी संत के साथ बैठे हुए थे। ठंड के दिन थे। शाम हो गई थी। तब संत ने ठंड से बचने के लिए कुछ लकड़ियां एकट्ठा कीं और धूनी जला दी। दोनों संत धर्म और अध्यात्म पर चर्चा कर रहे थे।
इनसे कुछ दूर एक गरीब व्यक्ति भी बैठा हुआ। उसे भी ठंड लगी तो उसने भी कुछ लकड़ियां एकट्ठा कर लीं। अब लकड़ी जलाने के लिए उसे आग की जरूरत थी। वह तुरंत ही दोनों संतों के पास पहुंचा और धूनी से जलती हुई लकड़ी का एक टुकड़ा उठा लिया।
एक व्यक्ति ने संत द्वारा जलाई गई धूनी को छू लिया तो संत गुस्सा हो गए। वे उसे मारने लगे। संत ने कहा कि तू पूजा-पाठ नहीं करता है, भगवान का ध्यान नहीं करता, तेरी हिम्मत कैसे हुई, तूने मेरे द्वारा जलाई गई धूनी को छू लिया।
रामकृष्ण परमहंस ये सब देखकर मुस्कुराने लगे। जब संत ने परमहंसजी को प्रसन्न देखा तो उन्हें और गुस्सा आ गया। उन्होंने परमहंसजी से कहा, ‘आप इतना प्रसन्न क्यों हैं? ये व्यक्ति अपवित्र है, इसने गंदे हाथों से मेरे द्वारा जलाई गई अग्नि को छू लिया है तो क्या मुझे गुस्सा नहीं होना चाहिए?’
परमहंसजी ने कहा, ‘मुझे नहीं मालूम था कि कोई चीज छूने से अपवित्र हो जाती है। अभी आप ही कह रहे थे कि ये सभी इंसानों में परमात्मा का वास है। और थोड़ी ही देर बाद आप ये बात खुद ही भूल गए।’ उन्होंने आगे कहा, ‘दरअसल इसमें आपकी गलती नहीं है। आपका शत्रु आपके अंदर ही है, वह है अहंकार। घमंड की वजह से हमारा सारा ज्ञान व्यर्थ हो जाता है। इस बुराई पर काबू पाना बहुत मुश्किल है।’
सीख- इस कथा की सीख यह है कि जो लोग घमंड करते हैं, उनके दूसरे सभी गुणों का महत्व खत्म हो जाता है। इस बुराई की वजह से सबकुछ बर्बाद हो सकता है। इसीलिए अहंकार से बचना चाहिए।