राजा कृष्णदेव राय का दरबार लगा था। तभी कुछ व्यक्तियों ने राज-दरबार में प्रवेश किया। उनके हाथों में सोने का बहुमूल्य हीरों से जड़ा हंस था।
वे सीधे महाराज के पास आए और बोले – ” महाराज हमारा न्याय कीजिए।”
“न्याय… किस बात का न्याय चाहते हो तुम लोग पूरी बात बताओ। आखिर झगड़ा किस बात का है?” राज ने पूछा।
“महाराज, हम दोनों झगड़ा नहीं कर रहे। हम तो मित्र हैं। हुआ यह महाराज कि तंगी की हालत में मेरे मित्र ने मेरी मदद की। उसने अपनी जमीन में से थोडी-सी जमीन मुझे दे दी। उसी जमीन पर जब मैं एक दिन हल चला रहा था तो मुझे यह सोने का हंस मिला। मैं इस हंस को अपने दोस्त को लौटाने गया तो वह इसे लेने से इन्कार कर रहा है।” उन दोनों में से एक ने कहा।
“महाराज, जब मैंने वह जमीन अपने मित्र को दे दी तो उसमें से निकलने वाला सोने का हंस इसी का तो हुआ। मैं इस हंस को कैसे ले सकता हूँ?” दूसरा मित्र बोला।
दोनों की स्पष्टवादिता देखकर व सुनकर, राजा कृष्णदेवराय चकरा गए। उनके सामने ऐसा अनोखा मुकदमा पहली बार आया था। उन्होंने दरबारियों से पूछा – “अब आप लोग ही बताइए, इनका क्या किया जाए और कौन-सा उचित होगा?
“सोने का हंस दो हिस्सों में बांट दिया जाए और दोनों को एक-एक हिस्सा दे दिया जाएं” मंत्री का सुझाव था।
लेकिन दोनों मित्रों ने इस फैसले को स्वीकार नहीं किया। तब एक दरबारी ने एक और सुझाव प्रस्तुत किया कि सोने के हंस की नीलामी कर दी जाए। बदले में जो भी धन प्राप्त हो, उसे ये दोनों मित्र, आपस में आधा-आधा बांट लें।
तभी दोनों मित्र एक साथ बोल उठे – “नहीं महाराज, हमें यह धन भी नहीं चाहिए।”
“महाराज, मेरा मतलब है कि इसका मूल्य दान-पुण्य के कामों में लगा देना चाहिए।” राज-पुरोहित ने अपनी गोटी बिठाते हुए कहा।
कोषाधिकारी का सोने का हंस राजकोष में जमा करने का सुझाव भी उचित नहीं लगा।
तभी तेनालीराम जो अब तक चुप बठा सबकी सुन रहा था, बोला- “क्षमा करें महाराज, मेरा निवदन है कि इस सोने के हंस को बेचकर जो धन प्राप्त हो, उससे इन दोनों अनोखी मित्रता की याद में एक सुनहरी हंस उद्यान का निर्माण हो। उस उद्यान में छायादार पेड़ हों। बीच में स्वच्छ जल का मनोरम सरोवर हो, जिसमें पंख फैलाए संगमरमर के दो उजले हंस हों। दूर-दूर से आए पथिक इस उद्यान की शीतल छाया में विश्राम करेंगे और मित्रता का पाठ पढ़ेंगे।”
तेनालीराम का यह सुझाव सुनकर राजा कृष्णदेव राय मुस्कुराए और बोले- “तेनालीराम, तुम्हारा सुझाव बहुत अच्छा है। हम यही फैसला करते हैं, जो तेनालीराम ने सुझाया है।”
तेनालीराम के इस अनोखे सुझाव से राजा कृष्णदेव राय अत्यन्त प्रसन्न हुए।
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