मेरी बचपन की याद –  होलिका दहन (लेख-अजीत गौतम)

मेरी बचपन की याद – होलिका दहन (लेख-अजीत गौतम)

अब पहले जैसी होलिका दहन वाली बात नहीं रही। अब शहरों में ऐसे कई परिवार हैं, जिन्हें होलिका दहन से कोई वास्ता ही नहीं रह गया है। बदलते समय के साथ लोग अपने तीज-त्योहारों को भी भूलते जा रहे हैं।

हाँ, टीवी सीरियल्स में होलिका दहन कहीं-कहीं देखने को अवश्य मिल जाता है। आज की पीढ़ी को होलिका दहन के कार्यक्रम में कोई रुचि नहीं है। उनका अधिकतर समय मोबाइल में ही बीतता है। मोबाइल के कुचक्र में अब बड़े भी आ गए हैं। वे भी दिनभर मोबाइल पर उंगलियाँ घुमाने में ही व्यस्त रहते हैं। जैसा कि मैं कह रहा था, आज की पीढ़ी में होलिका को लेकर कोई उत्साह नहीं बचा है।

वे सिर्फ होलिका दहन को छुट्टी का एक सामान्य दिन मानकर अगले दिन का इंतजार करते हैं कि अपने अंदर भरे फूहड़पन को कैसे निकाला जाए। इसके साथ ही, वामपंथी विचारधारा के लोग हिन्दू त्योहारों के आते ही समाज की किसी न किसी बुराई से उस त्योहार को जोड़कर प्रस्तुत करते हैं, जिससे हिंदुओं में अपने धर्म के प्रति जो उल्लास है, वह कमजोर हो जाए। फिलहाल, यह कोई राजनीतिक लेख नहीं है, इसलिए वामपंथी ऐसा क्यों कर रहे हैं, इस पर अधिक चर्चा नहीं करेंगे। आप स्वयं चाहें तो इंटरनेट की इस दुनिया में इससे जुड़ी कोई न कोई जानकारी खोजकर पढ़ सकते हैं और उनके मानसिक दिवालियेपन से अवगत हो सकते हैं।

आज होलिका दहन की शाम है। मैं पूरे रीवा में घूम आया, लेकिन गरीब या सामान्य तबके के लोगों की बस्ती के अलावा कहीं भी होलिका का नामो-निशान नहीं था। सिर्फ उन्हीं गरीब बस्तियों में होलिका उत्सव का उल्लास देखने को मिला। गोबर से लिपी हुई ज़मीन का एक भाग, जिसके ऊपर लकड़ी और झाड़ियों का ढेर रखा था। बीच-बीच में कंडों का भी प्रयोग किया गया था। चारों तरफ लकड़ी के खंभे ज़मीन में गाड़कर उन पर रंग-बिरंगे कागज़ों को धागे से बाँधकर होलिका प्रांगण को सजाया गया था। किसी घर से पंजीरी भूंजे जाने की खुशबू आ रही थी तो किसी घर से गुझिया तले जाने की महक।

यह देखकर मुझे अपने बचपन की कुछ यादें, जो होलिका दहन से जुड़ी हुई थीं, याद आ गईं। जब मैं 7-8वीं कक्षा में पढ़ रहा था, तब हमारा कुछ लड़कों का समूह था, जिसमें कुछ लड़के हमसे उम्र में 3-4 वर्ष बड़े थे। वे होलिका दहन के कार्यक्रम के लिए चंदा इकट्ठा करने और होलिका निर्माण की व्यवस्था करने के दिशा-निर्देश देते थे, और हम छोटे बच्चे वानर सेना की तरह काम में जुट जाया करते थे। ये यादें सेंट्रल जेल की कॉलोनी की हैं।

मैं यहाँ बताना चाहूँगा कि उस समय होलिका बनाने का कार्य बहुत ही उत्साह के साथ किया जाता था, जबकि अब तो दो फुट ऊँची होलिका भी मुश्किल से बनती है। उस समय एक कॉलोनी में चार से पाँच होलिकाएँ बनाई जाती थीं, और उनमें यह स्पर्धा होती थी कि किसकी होलिका सबसे ऊँची है, किसकी होलिका कितनी देर तक जलती है, और किसकी होलिका सबसे सुंदर सजाई गई है। इसके साथ ही, कार्यकर्ताओं और होलिका तापने आने वालों के मनोरंजन के लिए विशेष प्रबंध किए जाते थे। वीसीआर किराए पर लाया जाता था, और उस समय जो फिल्में लोकप्रिय होतीं, उन्हें वीसीआर पर दिखाया जाता था। इसके साथ ही गाने भी बजाए जाते थे, जिसके लिए एम्पलीफायर और चोंगे (लाउडस्पीकर) का इस्तेमाल किया जाता था। गाना बजते ही मोहल्ले के लड़के होलिका दहन के प्रांगण में आ जाते और टेढ़ा-मेढ़ा नाचने लगते, जिससे माहौल खुशनुमा हो जाता था।

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इन खर्चों के लिए महीने भर पहले से ही चंदा इकट्ठा करना शुरू हो जाता था। कुछ लोग खुशी-खुशी चंदा दे देते, तो कुछ लोग बहाने बनाते, लेकिन हम भी कम ढीठ नहीं थे—रोज उन्हें टोकते, और अंत में वे हार मानकर चंदा देने को मजबूर हो जाते। कुछ ऐसे भी लोग थे, जिनसे चंदा माँगने की जरूरत नहीं पड़ती, वे खुद ही आकर चंदा दे देते और हमारे किए जा रहे प्रबंधों का जायजा लेकर जरूरत पड़ने पर सलाह भी देते।

हमारी कॉलोनी में हर वर्ष की तरह इस बार भी पाँच होलिकाएँ बनी थीं, जिनमें से एक हमारी थी। हमने लगभग 10 फीट ऊँची होलिका का निर्माण किया था। साथ ही, गाने के लिए लाउडस्पीकर की व्यवस्था भी की गई थी। परंतु अभी तक रोमांच नहीं था। रोमांच हमेशा रात 9 बजे के बाद शुरू होता था, जब हम कॉलोनी के लोगों के घरों के बाहरी फाटक (लॉन में लगा बांस का छोटा गेट) को चोरी-छिपे निकालते थे। मज़े की बात यह थी कि कॉलोनी के लोगों को पता होता था कि आज उनका गेट नहीं बचेगा, इसलिए वे भी अपने फाटकों पर नज़र बनाए रखते थे। परंतु जीत हमेशा हमारी ही होती थी।

हमारी मंडली यह ध्यान रखती थी कि केवल उन्हीं फाटकों को निकाला जाए जो बांस के बने हों और पहले से ही खराब हालत में हों। यही कारण था कि जिन लोगों के घरों में टूटे-फूटे फाटक लगे होते, उन्हें पूरा विश्वास होता था कि आज उनका फाटक नहीं बचेगा। कई लोग तो चाहते भी थे कि उनका गेट चोरी हो जाए ताकि उनके घर में नया फाटक लग सके। हमारी मंडली के एक मित्र ने तो हमारे लीडर से विशेष आग्रह किया था कि उसका फाटक भी निकाला जाए, जिससे उनके घर में नया फाटक लग सके।

होलिका दहन की रात हमने देखा कि एक अंकल के घर के बाहर लगा गेट बहुत ही खराब हालत में था और उसकी लकड़ी पूरी तरह सड़ चुकी थी। तब हमने तय किया कि इस बार यह गेट भी होलिका में जाएगा। गेट सड़ा हुआ था, परंतु काफी बड़ा था, जिससे वह देर तक जलता। हमने उसे निकालने की पूरी तैयारी की और अपने साथ प्लास (प्लायर) और एक आरी ले गए। इसके बाद गेट निकालने की प्रक्रिया शुरू हुई। कुछ ही देर में गेट हमारे हाथों में था, और तभी अंकल भी दरवाज़ा खोलकर बाहर आ गए।

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हम गेट लेकर दौड़ पड़े, गेट बड़ा तो था पर हल्का था, दो लोगो ने गेट पकड़ के सरपट दौड़ लगा दी, हम छोटे बच्चो का झुंड भी पपीछे-पीछे दौड़ लगा दिया। और अंकल हमारा पीछा करने लगे, हमने जहां होलिका बनायी थी, उसके बगल मे एक मंदिर था, हमने गेट को मंदिर के अंदर फेक दिया और वापस अपने होलिका वाले स्थान मे आ गए थे।

अंकल भी हमारी होलिका मे आ कर लड़को की पहचान करने लगे की किसने उनका फाटक चुराया हैं, चुकी हमने उनका फाटक मंदिर मे फेक दिया था, इसलिए हमे पता था की हम नहीं फसेंगे और रात होने की वजह से वो हमे नहीं पहचान पाये होंगे सो हम लोग आंगे आकार उनसे कहा-“अंकल यहाँ पर आप का गेट नहीं हैं और हमारी होलिका तो वैसे ही बहुत ऊंची हैं, तो हमे और लकड़ी या झाड की आवश्यकता नहीं हैं, हो सकता हैं की दूसरे लोगो ने आपके गेट को निकाला हो, जा कर उनके होलिका मे पता करिए और अगर आपको शंका हो तो आप हमारी होलिका का मुआइना कर सकते हैं”

अंकल मुआइना कर के चले गए, उन्हे यहाँ कुछ नहीं मिला, हम जल्दी मंदिर से उनका गेट लेके आए और तोड़ कर उसे अपने होलिका मे अंदर छिपा दिया, हमारी होलिका मे प्रसाद भी विशेष था केले, लाई, फूटा, नारियल, पंजीरी और बूंदी के लड्डू थे। साथ मे होलिका दहन के दौरान एक दूसरे को रंग गुलाल लगाने की प्रथा हैं, सो खूब सारे रंग गुलाल की व्यवस्था थी। और जब होलिका दहन होता था तो वहाँ पर होलिका तापने आए लोग होलिका तापने से ज्यादा अपने फाटक पहचानने मे मसगूल रहते थे और अगले दिन जब मंदिर मे होली उत्सव मनाया जाता था, तो लोग अपने फाटक के चोरी होने की और उनका गेट कालोनी के किस होलिका मे जलता हुया पाया गया, बता-बता कर हंसा करते थे।

पर अब यह सब हमारी आने वाली और वर्तमान पीढ़ी के लिए सपने हैं क्यूंकी न ही मोबाइल और कम्प्युटर से फुर्सत हैं और न ही उन्हे अपने त्योहारो से अब कोई लगाव रहा। बस पश्चिम के बनाए गए बकवास अर्थ हीन दिवसो को मानना जानते हैं,

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आज भटकते-भटकते मैं अपनी उस पुरानी कॉलोनी में गया, पर वहाँ आज गहरा अंधेरा है और चंद्रमा की चांदनी का हल्का प्रकाश फैला हुआ है। लोग अपने घरों में हैं, खाना खाकर सो चुके हैं। मैं अपने वर्तमान घर में वापस आकर, घर के सामने लकड़ियों के ढेर को जलाकर उसकी परिक्रमा कर रहा हूँ। राई, नमक और आटे का उपयोग कर बुरी नजर उतार रहा हूँ और होलिका की परिक्रमा कर रहा हूँ। कहीं दूर भी एक और आग जलती दिखाई दे रही है—शायद वहाँ भी कोई एक छोटी होलिका बनाकर उसकी गरमाहट का आनंद ले रहा है।

होलिका दहन के अगले दिन, हम कागज के बने पैकेट में प्रसाद पैक कर घर-घर बांटते थे। जब प्रसाद बंट जाता, तो यह संकेत होता कि अब होली (धुलेंडी) आरंभ की जाए। लेकिन अब यह सब इतिहास बन चुका है और एक सपना मात्र रह गया है। यह स्मृति मेरी तब की है जब मैं 7-8वीं कक्षा में था। यदि आपकी भी होलिका से जुड़ी कोई स्मृति या यादें हैं, तो आप हमें भेज सकते हैं, हम उन्हें प्रकाशित करेंगे।

आप सभी को होलिका और होली की शुभकामनाएँ।

– अजीत गौतम