अटल बिहारी वाजपेयी की जीवनी
श्री अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म मध्य प्रदेश के ग्वालियर जिले के शिदे की छावनी में 25 दिसम्बर सन् 1924ई० को हुआ था। श्री वाजपेयी के पिता पण्डित कृष्ण बिहारी वाजपेयी संस्कृत के जाने-माने विद्वान थे। उनके चार पुत्र अवध बिहारी, सदा बिहारी वाजपेयी, प्रेम बिहारी वाजपेयी एवं अटल बिहारी वाजपेयी हुए तथा तीन पुत्रियाँ विमला वाजपेयी, कमला वाजपेयी एवं उर्मिला वाजपेयी हुई ;
शैक्षणिक परिचय
अटल जी की बी०ए० तक की शिक्षा ग्वालियर में ही हुई। वहाँ के विक्टोरिया कॉलेज से उन्होंने , उच्च श्रेणी में बी०ए० उत्तीर्ण किया। वे विक्टोरिया कॉलेज के छात्रसंघ के मंत्री और उपाध्यक्ष भी रहे। उन दिनों छात्र संघ का अध्यक्ष कोई प्राध्यापक बनाया जाता था। अटल बिहारी वाजपेयी जी हमेशा वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भाग लेते थे।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आयोजित राष्ट्रीय स्तर की वाद-विवाद प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए उन्हें विक्टोरिया कॉलेज से भेजा गया। दूर का सफ़र होने की वजह से उन्हे देर हो गया। जब वाजपेयी जी म्योर हॉल में पहुँचे तो प्रतियोगिता समाप्त हो चुकी थी। निर्णायक मण्डल अपना निर्णय तैयार करने में व्यस्त थे। सभी लोग निर्णय की घोषणा की प्रतीक्षा कर रहे थे। तभी धूलि-धूसरित अटल जी मंच पर चढ़ गये और “अध्यक्ष महोदय!” कहकर क्षमायाचना करते हुए अपना भाषण प्रारम्भ कर दिया। भाषण में ऐसा सम्मोहन था कि सभी श्रोता मंत्रमुग्ध! निर्णायक मण्डल भी स्तम्भित भाव से भाषण सुनने लगा। हर दो मिनट बाद तालियों से अटल जी का स्वागत होने लगा। परिणाम यह हुआ कि उन्हें प्रथम पुरस्कार प्रदान किया गया। कविश्रेष्ठ डॉ० हरिवंशराय बच्चन निर्णायक मण्डल के एक सदस्य थे।
ग्वालियर से अटल जी उत्तर प्रदेश की व्यावसायिक नगरी कानपुर के प्रसिद्ध शिक्षा केन्द्र डी०ए०वी० केलिज आए। राजनीतिशास्त्र से प्रथम श्रेणी में एम०ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की लेकिन एल०एल०बी० की पढ़ाई को बीच में ही विराम देकर देश की सेवा के लिए उन्होने संघ के साथ जुड़ गए और देश की एकता और अखंडता के व्रत के साथ संघ मे काम करने लगे।
राष्ट्रीय स्वय सेवक संघ में प्रवेश
पं० श्याम प्रसाद मुखर्जी की प्रेरणा से एल०एल०बी० की पढ़ाई छोड़कर संघ के पूर्णकालिक प्रचारक के रूप में अटल जी संघ और देश कार्य में लग गए। राष्ट्र और समाज को जीवन समर्पित करने वाले अटल जी ने अविवाहित रहकर सेवा-धर्म को स्वीकार किया | पं० श्यामा प्रसाद मुखर्जी और पं० दीनदयाल उपाध्याय के निकट संपर्क में रहकर अटल जी ने उनके निर्देशन में सकारात्मक राजनीति की शिक्षा ग्रहण की।
पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादन
अटल जी ने सन् 1946 में लड्डुओं के नगर सण्डीला में संघ के विस्तारक के रूप में कार्य किया था। सन् 1992 में उसी सण्डीला में एक विशाल जनसभा को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा था – “सेवा की पुस्तक का पहला पाठ मैंने सण्डीला में ही पढ़ा था। यहाँ के चौराहे की चाय की दुकान को मैं कभी नहीं भूल सकता! कुछ मास यहाँ रहने के पश्चात् वे लखनऊ में ‘राष्ट्रधर्म’ के प्रथम संपादक नियुक्त किए गए। उनके परिश्रम और कुशल संपादन से ‘राष्ट्रधर्म’ ने कुछ ही समय में अपना राष्ट्रीय स्वरूप बना लिया। लखनऊ के साहित्यकारों में अपनी पहचान बनाने में उन्हें अधिक समय नहीं लगा। एक ओर उनके प्रशंसकों की संख्या बढ़ने लगी तो दूसरी ओर लाल देशों के समर्थन वामपंथियों के लिए अवरोधक बने। अटल जी निर्भयतापूर्वक निष्कम्प दीपज्योति की भाँति वामपंथी विचारों का जमकर सामना करते रहे।यहाँ की साहित्यिक संगोष्ठियों के वे नायक बन गए। उनके संपादकीय को पढ़कर पं० श्री नारायण चतुर्वेदी, अमृतलाल नागर, डॉ० रामकुमार वर्मा और महीयषी महादेवी वर्मा आदि वरिष्ठ एवं लब्ध-प्रतिष्ठ रचनाकार प्रशंसा करने लगे।
“पांचजन्य’ का प्रकाशन प्रारम्म हुआ और अटल जी को ही उसका सम्पादक नियुक्त किया गया। “पांचजन्य’ के प्रथम अंक की चारों ओर भूरि-भूरि प्रशंसा हुई। ‘राष्ट्रर्म’ के कार्यालय को सन् १६४८ में शासनादेश से ‘सील’ कर दिया गया। प्रेस के कर्मचारी बंदी बनाकर जेल में दूँस दिए गये किन्तु अटल जी सबकी आँखों में धूल झोंककर तिड़ी हो गये। कुछ दिन लुक-छिपकर इलाहाबाद में रहे। न्यायालय के आदेश से मई, १६४८ में “राष्ट्रधर्म’ का ताला खुल गया।
इलाहाबाद से अटल जी ने दैनिक पत्र ‘स्वदेश’ का सम्पादन प्रारम्भ कर दिया। पत्र के सात अंक ही निकल पाये थे कि कार्यालय को पुनः सील कर दिया गया। यहाँ से अटल जी काशी चले गए और वहाँ साप्ताहिक ‘चेतना’ का सम्पादन करने लगे। प्रखर राष्ट्रवादी चिन्तक और सम्पादक के रूप में समूचे देश में अटल जी की कीर्ति फैल गई। अनेक पूँजीपति उन्हें अपने पत्रों का सम्पादक बनाना चाहते थे, पर अटल जी ने तो हिन्दू, हिन्दी, हिन्दुस्तान के लिए अपना जीवन दान दे दिया था। मातृभूमि की एक मुट्ठी रज उनके लिए किसी सेठ की तिजोरी से अधिक थी । मातृभूमि का सेवक – प्रहरी “कहीं किसी का चाकर कहाँ बन सकता था?”
स्वतंत्रता आन्दोलन के सजग प्रहरी
बचपन से ही अटल जी की सार्वजनिक कार्यों में विशेष रुचि थी। उन दिनों ग्वालियर रियासत दोहरी गुलामी में थी। राजतंत्र के प्रति जनमानस में आक्रोश था। सत्ता के विरुद्ध आंदोलन चलते रहते थे ।
सन् १942 में जब गांधी जी ने ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ का नारा दिया तो ग्वालियर भी अगस्त क्रान्ति की लपटों में आ गया। छात्र वर्ग ने उग्र रूप धारण कर लिया तो आंदोलनकारियों की धड़-पकड़ होने लगी । कोतवाल, जो उनके पिता श्री कृष्ण बिहारी से परिचित थे, ने पिता जी को बताया कि आपके चिरंजीव कारागार जाने की तैयारी कर रहे हैं। पिता जी को अटल जी के कारागार की तो चिन्ता नहीं थी किन्तु अपनी नौकरी जाने की चिन्ता जरूर थी। इसलिए उन्होंने अपने पुत्र को अपने पैतृक गाँव बटेश्वर भेज दिया, वहाँ भी क्रान्ति की आग धधक रही थी। अटल जी के बड़े भाई श्री प्रेम बिहारी उन पर नज़र रखने के लिए भेज गये थे। अटल जी पुलिस की लपेट में आ गए। उस समय वे नाबालिग थे। इसलिए उन्हें आगरा जेल के बच्चा – बैरक में रखा गया। इस दौरान उन्हे चौबीस दिनों की तक जेल की कारावास की सजा भुगतनी पड़ी।
भारतीय जनसंघ के संस्थापक के रूप में
जनसंघ के एक संस्थापक सदस्य के नाते अटल जी के कंधों पर अब काफी भार आ गया। भारतीय मनीषा के आचार्य, राष्ट्रीय मान-सम्मान के संरक्षक पूज्य डॉ० श्यामा प्रसाद मुखर्जी को एक ऐसे कर्मठ, निष्ठावान और भारतीय संस्कृति के ज्ञाता को अपने निजी सचिव के रूप में रखने की आवश्यकता प्रतीत हुई। उन्होंने उन सभी गुणों और संभावनाओं को तरुण अटल जी में भाँप लिया और अपने निजी सचिव के रूप में रख लिया। वे महान् नेता डॉ० श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ छाया की तरह लगे रहे। उनके व्याख्यानों के आयोजन का प्रबंध अटल जी ही करते थे। डॉ० मुखर्जी की सभाओं में जनता का मेला उमड़ता था। अटल जी भी इन सभाओं को संबोधित करते थे। इनके व्याख्यानों की शैली डॉ० मुखर्जी को अत्यन्त प्रिय थी। अपना एक हाथ उठाकर विनोदपूर्ण शैली में जब अटल जी चुटीला व्यंग्य करते थें, तो तालियों की गड़गड़ाहट से सभास्थल गूंज उठता था। अब अटल जी की पहचान राष्ट्रीय स्तर पर बन गई।
भारतीय राजनीति में प्रवेश
सन् 1955 में श्रीमती विजयलक्ष्मी पण्डित ने लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। वे लखनऊ से सांसद थीं। चुनाव की तिथि घोषित हुई अटल जी जनसंघ के प्रत्याशी के रूप में चुनाव मैदान में कूद पड़े, किन्तु साधहीनता के कारण वे विजयी न हो सकें, इससे उनके उत्साह में कमी नहीं आई, मनोबल ऊँचा ही हुआ, क्योंकि उनके चुनाव- भाषणों में श्रोताओं, विशेषकर युवकों की भीड़ अधिक रहती थी।
केन्द्रीय राजनीति में योगदान
सन् 1957ई० में द्वितीय आम चुनाव हुआ। अटल जी बलरामपुर (जनपद गोण्डा, उ०प्र०) से संसद के लिए जनसंघ के प्रत्याशी थे। इस चुनाव में हिन्दू मतदाताओं के साथ मुसलमान मतदाताओं ने भी उन्हें अपना ‘मत’ दिया। उनकी सभाओं की भीड़ देखकर विरोधी दलों के छक्के छूटने लगे। प्रतिद्वंद्वी दलों का एक न एक राष्ट्रीय नेता अटल जी को पराजित करने के लिए वहाँ चुनाव- सभा करता रहा; किन्तु विजयश्री ने अटल जी का ही वरण किया।
अपनी विजय पर अटल जी ने अपार जनसमूह की सभा में कहा था- “यह विजय मेरी नहीं, यह बलरामपुर क्षेत्र के समस्त नागरिकों की है। आपने मुझे प्यार-दुलार दिया। मैं वचन देता हूँ कि एक सांसद के रूप में इस क्षेत्र की सेवा एक राष्ट्रभक्त सेवक के रूप में करूँगा।”
धोती, कुर्ता, और सदरी पहने, भरे-भरे गोल चेहरे वाले गौर वर्णी अटल जी संसद में अपना प्रथम भाषण देने जब उठे तो सभी दृष्टियाँ उन्हीं पर टिक गई। लोग हिन्दी में उन्हे नही सुनना चाहते थे; किन्तु वे क्यों मानते। उन्होने तो राष्ट्रभाषा की सेवा का व्रत ही ले रखा था। उनका सम्बोधन हिन्दी में सुनकर अनेक सांसद उठकर बाहर चले गये पर अटल जी अबाध रुप से बोलते रहे। ये दिन उनके धैर्य और संयम के थे। उन्होने हिन्दी के अलावा अंग्रेजी में न बोलने का दृढ़ संकल्प ले लिया था, एक दिन ऐसा आया कि संसद सदस्यों ने उनकी भाषण – शैली और तथ्य प्रस्तुती कला की प्रशंसा करना शुरु कर दिया। अब तो अटल जी का भाषण सुनने के लिए सांसद दौड़-दौड़कर संसद कक्ष में पहुँचते थे।
संसदीय दल के नेता
- सन् 1957 से 1977 तक अटल जी जनसंघ के संसदीय दल के नेता रहे । सन् 1962 में वे राज्यसभा के सदस्य चुने गये ।
- चौथी लोकसभा में सन् 1967 में वे पुनः सांसद चुने गये ।
- सन् 1968 से 1973 तक वे भारतीय जनसंघ के राष्ट्रिय अध्यक्ष के गौरवमय पद पर आसीन रहे।
- सन् 1971 में वे लोकसभा (पंचम) में पुनः सांसद निर्वाचित हुए । सन् 1977 के छठें लोकसभा में वे विजयी होकर संसद में आये।
विदेश मंत्री के रूप में
आपातकाल के बाद सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में ‘जनता पार्टी’ का गठन किया गया। कांग्रेस और साम्यवादी दलों को छोड़कर शेष सभी दल जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़े। अटल जी अस्वस्थ रहने के बावजूद दिल्ली से भारी बहुमत से विजयी हुए। जनता पार्टी की सरकार बनी और अटल जी विदेश मंत्री बनाए गए।
प्रारम्भ में कानाफूसी होने लगी कि अटल जी के विदेश मंत्री होने से संसार के मुस्लिम देशों से भारत के सम्बन्ध खराब हो जाएँगे; किन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ । अपितु अन्य मुस्लिम देशों की तो बात ही नहीं, पाकिस्तान तक से भारत के सम्बन्ध इतने अच्छे हो गए, जितने कि कभी नहीं रहे और न बाद में हुए। पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जियाउल हक से भी उन्होंने भेंट की थी। अटल जी ने अपने विदेश मंत्री के कार्यकाल में विदेशों में सदैव दुभाषिये की सहायता से हिन्दी में ही बातचीत की
भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष
6 अप्रैल, 1980 का दिन अटल जी के जीवन में विशेष महत्वपूर्ण रहा। इसी दिन बम्बई में भारतीय जनता पार्टी का जन्म हुआ और अटल जी उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए गए। इस महाधिवेशन में उनका जो भव्य स्वागत किया गया वह ऐतिहासिक था।
शोभायात्रा में देश के कोने-कोने से आए पच्चीस हजार से अधिक लोगों ने अपने जननायक को अभूतपूर्व सम्मान प्रदान किया। इस अवसर पर उन्होंनें जो व्याख्यान दिया वह देश की राजनीति को नई दिशा देने वाला था ।
जागरूक संसदीय प्रतिनिधि
सन् 1980 में अटल जी सातवीं लोकसभा का चुनाव दिल्ली से लड़े और विजयी हुए। भारतीय जनता पार्टी के सांसदों ने उन्हें लोकसभा में अपने दल का नेता बनाया। सन् 1986 में उन्हें राज्यसभा के लिए निर्वाचित किया गया। पार्टी ने उन्हें अपने दल का नेता चुना।
सन् 1991 में उन्हें लखनऊ और विदिशा दोनों लोकसभा क्षेत्रों से विजयश्री प्राप्त हुई । जनता के मनोभावों का, एक राष्ट्रीय नेता के लिए इससे बड़ा उपहार क्या हो सकता है? उन्होंने विदिशा की सीट से त्यागपत्र दे दिया और लक्ष्मणपुर का प्रतिनिधित्व करना स्वीकार किया
सर्वश्रेष्ठ सांसद से सम्मानित
25 जनवरी, 1992 को उन्हें पद्मविभूषण से अलंकृत किया गया। 20 अप्रैल, 1993 को उन्हें कानपुर विश्वविद्यालय ने मानद डी. लिट की उपाधि प्रदान की। 28 सितम्बर, 1992 को उन्हें उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने ‘हिन्दी गौरव’ के सम्मान से सम्मानित किया ओर 51 हजार रुपए की धनराशि सादर भेंट की गई। इस धनराशि को उन्होने तुरंत उसी समय अपनी ओर से संस्था के विकास के लिए संस्था को ही अर्पित कर दी।
भारत रत्न पंडित गोविन्द वल्लभ पंत सर्वश्रेष्ठ सांसद पुरस्कार
श्री अटल बिहारी वाजपेयी 1957 से करीब 37 वर्ष से संसद सदस्य है। भारतीय राजनीति के एक शीर्ष सितारे और पद्मभूषण से सम्मानित और अपने नाम को सार्थक करने वाले, अटल जी एक प्रख्यात राष्ट्रीय नेता, विनम्र राजनेता, निस्वार्थ समाज सेवक, प्रखर वक्ता, कवि और लेखक, पत्रकार तथा बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। अपनी वक्तृत्व कला और खास शैली के लिए विख्यात अटल जी अपने भाषणों में जनता की आकांक्षाओं को सबसे प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करते थे। वह संसदीय परंपराओं के कट्टर समर्थक थे।
संसद की गरिमा और व्यवस्था बनाये रखने में उनका योगदान उल्लेखनीय है। चाहे विदेश मंत्री के रूप में या सदन में विपक्ष के नेता के रूप में या फिर संसद सदस्य के रूप में। उनके शब्दों में हमेश राष्ट्रवाद के प्रति पूरी प्रतिबद्धता दिखी। उनके लिए राजनीति, राजनीतिक दल और सार्वजनिक पद स्वयं की स्वार्थपूर्ति का नहीं बल्कि आम जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने का माध्यम थी है। वह कई संसदीय समितियों के अध्यक्ष थे। सभी राष्ट्रीय नेता उनके मैत्री पूर्ण और मधुर व्यवहार के कारण उनका सम्मान करते थे।
संसदीय दल के नेता
- सन् 1957 से 77 तक अटल जी जनसंघ के संसदीय दल के नेता रहे सन् 1962 में वे राज्यसभा के सदस्य चुने गये।
- चौथी लोकसभा में सन् 1967 में ये पुनः सांसद चुने गये।
- सन् 1968 से 1973 तक वे भारतीय जनसंघ के राष्ट्रिय अध्यक्ष के गौरवमय पद पर आसीन
- सन् 1971 में वे लोकसभा (पंचम) में पुनः सांसद निर्वाचित हुए।
- सन् 1977 के छठे लोकसभा में वे विजयी होकर संसद में आये।
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