अजीत मिश्रा जी पिछले 12 वर्षो से शिक्षा जगत से जुड़े हुये हैं,वो शहर की एक बड़ी शिक्षण संस्था में व्याख्यान के लिए जाते हैं। इसके अलावा वो श्यामा नन्द किशोर फाउंडेशन के अध्यक्ष रहे हैं, उनकी छवि एक ईमानदार व्यक्तित्व की हैं। उनके अध्यक्षीय कार्यकाल में संस्था ने पर्यावरण और गरीब लोगो के भोजन वितरण कार्यक्रम में बढचढ़ का हिस्सा लिया। संस्था में उनके कार्यशैली अभी तक के किसी भी अध्यक्ष में देखने को नहीं मिली हैं। विश्व इतिहास शिक्षा मंच में पीछे 2 वर्षो से सदस्य के रूप में कार्य कर रहे हैं, इस दौरान इन्होने इतिहास के लिए कई आयोजनो को करने का वीणा उठाया हैं, इतिहास पर इनकी दो किताबें, कम्प्युटर विषय पर 3 किताबें प्रकाशित हैं। वो बघेली हिन्दी शब्दकोश के निर्माण में लगे हुये हैं। हल ही में विश्व इतिहास शिक्षा मंच में उन्हे बोलने का मौका मिला, जहां पर उन्होने भारतीय ज्ञान परंपरा पर अपने विचार रखे, जिसे लेख के रूप में नीचे दर्शाया जा रहा हैं।
भारतीय ज्ञान परंपरा और राष्ट्रीय शिक्षा नीति
भारत की ज्ञान परंपरा एक गहरी और समृद्ध धरोहर है, जो हजारों वर्षों से हमारे समाज का आधार रही है। यह परंपरा केवल ज्ञान और शिक्षा के माध्यम से नहीं, बल्कि सांस्कृतिक, दार्शनिक, धार्मिक और सामाजिक क्षेत्रों में भी उभरी है। यह परंपरा प्राचीन समय से आधुनिक काल तक भारतीय समाज के सभी पहलुओं को गहराई से प्रभावित करती आई है। अजीत मिश्रा, जो इतिहास के एक प्रख्यात विद्वान हैं, ने अपने हाल के व्याख्यान में इसी परंपरा और राष्ट्रीय शिक्षा नीति के संबंधों पर प्रकाश डाला।
प्राचीन भारत में ज्ञान की परंपरा
प्राचीन भारत में शिक्षा की शुरुआत गुरु-शिष्य परंपरा से हुई थी, जहाँ गुरुकुल व्यवस्था का व्यापक प्रसार था। इस व्यवस्था में शिक्षा केवल अकादमिक ज्ञान तक सीमित नहीं थी, बल्कि जीवन की समग्रता को सीखने पर ध्यान केंद्रित किया जाता था। ऋग्वेद, उपनिषद, महाभारत और रामायण जैसी ग्रंथों में निहित ज्ञान ने भारतीय समाज को नैतिकता, धर्म, और सामाजिक आचरण के मूल्यों की ओर अग्रसर किया। इन ग्रंथों में जीवन के विभिन्न पक्षों का गहन विश्लेषण किया गया है, जिनमें शिक्षा का उद्देश्य केवल रोजगार प्राप्त करना नहीं था, बल्कि संपूर्ण जीवन की दिशा और दृष्टि तय करना था।
मिश्रा जी ने अपने व्याख्यान में बताया कि भारत की प्राचीन शिक्षा व्यवस्था मानवता को संपूर्णता में देखती थी। तक्षशिला और नालंदा जैसे महान विश्वविद्यालयों ने उस समय वैश्विक शिक्षा का केंद्र बनने का गौरव प्राप्त किया। यहाँ सिर्फ भारतीय छात्र ही नहीं, बल्कि विदेशी विद्वान भी अध्ययन के लिए आते थे। इन केंद्रों में न केवल विज्ञान, गणित और ज्योतिष जैसे विषयों पर बल दिया जाता था, बल्कि समाजशास्त्र, राजनीति, और दर्शनशास्त्र पर भी गहन अध्ययन किया जाता था। इस तरह की व्यापक और समग्र शिक्षा ने भारतीय समाज को एक समृद्ध सांस्कृतिक, बौद्धिक और दार्शनिक नींव प्रदान की।
मध्यकालीन भारत की चुनौतियाँ
हालांकि, मध्यकाल में भारतीय शिक्षा व्यवस्था ने कई चुनौतियों का सामना किया। विदेशी आक्रमणों के दौर में गुरुकुल जैसी संस्थाओं का ह्रास हुआ। इसके बावजूद, भारतीय ज्ञान परंपरा ने खुद को बचाए रखा। संत परंपराओं के माध्यम से ज्ञान का प्रसार हुआ और भारतीय दर्शन और संस्कृति का संरक्षण हुआ। मिश्रा जी ने इस बात पर भी जोर दिया कि मुगल काल में अकबर और दारा शिकोह जैसे शासकों ने भारतीय दर्शन और ज्ञान के प्रति आदर भाव रखा और इसे विकसित करने में सहयोग दिया।
औपनिवेशिक काल और शिक्षा का ढाँचा
औपनिवेशिक काल में भारतीय शिक्षा व्यवस्था पर एक भारी संकट आया। ब्रिटिश शासन ने भारतीय शिक्षा प्रणाली को पीछे धकेलते हुए पश्चिमी शिक्षा को थोपने का प्रयास किया। मैकाले की शिक्षा नीति का उद्देश्य भारतीय समाज को उनकी संस्कृति और ज्ञान परंपरा से दूर करना था। इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से में अपनी सांस्कृतिक धरोहर के प्रति हीन भावना उत्पन्न हो गई। हालाँकि, इस दौर में भी स्वामी विवेकानंद, राजा राममोहन राय, और महात्मा गांधी जैसे महान नेताओं ने भारतीय ज्ञान परंपरा को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया। उन्होंने भारतीय शिक्षा को उसकी जड़ों से जोड़ने पर जोर दिया, जिससे समाज में आत्मगौरव की भावना का पुनर्जागरण हो।
स्वतंत्रता के बाद की शिक्षा प्रणाली
स्वतंत्रता के बाद भारतीय शिक्षा प्रणाली ने एक नए युग में प्रवेश किया। हालांकि भारतीय संविधान ने सभी नागरिकों को शिक्षा का अधिकार दिया, परंतु पश्चिमी ढाँचे पर आधारित शिक्षा प्रणाली ने देश की सांस्कृतिक धरोहर को पर्याप्त सम्मान नहीं दिया। मिश्रा जी ने कहा कि पिछले कई दशकों में भारतीय शिक्षा प्रणाली ने रोजगार और कौशल विकास पर जोर दिया, परंतु यह हमारी प्राचीन ज्ञान परंपरा और सांस्कृतिक जड़ों से अलग होती गई।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति और भारतीय ज्ञान परंपरा का पुनरुद्धार
हाल ही में घोषित राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 ने भारतीय ज्ञान परंपरा को पुनः शिक्षा के केंद्र में लाने का प्रयास किया है। इस नीति का उद्देश्य है कि शिक्षा केवल रोजगार परक न हो, बल्कि छात्रों को सांस्कृतिक, नैतिक और आध्यात्मिक रूप से भी सशक्त बनाए। अजीत मिश्रा जी के अनुसार, यह नीति भारतीय शिक्षा व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकती है।
नीति में भारतीय भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाने की दिशा में ठोस कदम उठाए गए हैं। यह निर्णय न केवल छात्रों की समझ को बढ़ाएगा, बल्कि भारतीय संस्कृति और परंपरा के संरक्षण में भी सहायक होगा। इस नीति में भारतीय साहित्य, संगीत, कला और शिल्प को भी शिक्षा का अभिन्न अंग बनाने पर जोर दिया गया है, जो कि हमारी प्राचीन शिक्षा व्यवस्था की विशेषता थी।
भारतीय ज्ञान परंपरा के प्रमुख तत्व
मिश्रा जी ने अपने व्याख्यान में यह भी उल्लेख किया कि भारतीय ज्ञान परंपरा के प्रमुख तत्व, जैसे योग, आयुर्वेद, और ध्यान, न केवल शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण हैं, बल्कि जीवन के समग्र दृष्टिकोण को विकसित करने में भी सहायक हैं। इन परंपराओं को शिक्षा में शामिल करना आज की शिक्षा प्रणाली को अधिक व्यापक और समृद्ध बनाएगा।
अजीत मिश्रा ने अपने व्याख्यान में भारतीय ज्ञान परंपरा और राष्ट्रीय शिक्षा नीति के बीच गहरे संबंधों पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि यदि हम अपनी शिक्षा प्रणाली को अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ते हैं, तो यह न केवल हमारी सांस्कृतिक धरोहर को बचाएगा, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों को भी एक समृद्ध और सशक्त जीवन प्रदान करेगा। भारतीय ज्ञान परंपरा केवल प्राचीन इतिहास का हिस्सा नहीं है, बल्कि यह आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 ने इस दिशा में एक बड़ा कदम उठाया है, और यदि इसे सही तरीके से लागू किया गया, तो भारत एक बार फिर वैश्विक शिक्षा में अग्रणी भूमिका नि