हुमायूँ (Humayun) के पराजय और असफलता के मुख्य कारण
हुमायूँ (Humayun) को जब राज्य मिला, तब उसे बाबर के द्वारा जीता साम्राज्य तो मिला लेकिन यह साम्राज्य संगठित नहीं था और हुमायूँ (Humayun) भी इसे संगठित और व्यवस्थित नहीं कर पाया। उसे उतराधिकार के रूप मे उसे खाली खजाना मिला। हुमायूँ (Humayun) ने न तो बुद्धिमानी से काम लिया और न ही धैर्य से काम किया। इनहि कारणो से उसे पराजय का सामना करना पड़ा। हुमायूँ (Humayun) अदूरदर्शी होने के कारण तथा कुछ भूलो के कारण उसकी समस्यायें लगातार बढ़ती गई और अंत मे उसे अपना साम्राज्य छोड़ा कर भागने पर विवश होना पड़ा।
आक्रांता हुमायूँ (Humayun) के दुर्गति और पराजय के कई कारण हैं। आज इस लेख के माध्यम से हम उन कारणो मे से कुछ पर चर्चा करेंगे।
साम्राज्य का बँटवारा –
हुमायूँ (Humayun) ने अपने पिता बाबर के इच्छा अनुसार विराशत मे मिले साम्राज्य को अपने चारो भाइयो के साथ बाट दिया, जिस समय पूरे साम्राज्य को एक कर के संगठित करने की आवश्यकता थी, उसी समय हुमायूँ (Humayun) ने साम्राज्य का बंटवारा कर दिया। हुमायूँ (Humayun) के इस कदम से साम्राज्य कमजोर हो गया।
जनता का सहयोग न मिलना –
हुमायूँ (Humayun) और उसके पिता विदेशी आक्रांता थे, इस लिए भारतीय जनता ने हुमायूँ (Humayun) को सहयोग नहीं दिया, तथा उसे विदेशी और डकैत के रूप मे ही देखते थे। इसलिए जनता उस के खिलाफ थी। उसने जनता को विश्वास मे लेने का प्रयास नहीं किया और न ही उसने प्रशानिक सुधार को प्राथमिकता दी।
शेरशाह की शक्ति को कम सझना –
हुमायूं ने शेरशाह की बढ़ती हुई ताकत को नजर अंदाज किया और हुमायूं इस भ्रम में रहा की जब वह चाहेगा, तब वह आसानी से शेरशाह को हराकर, उस पर विजय प्राप्त कर लेगा। यही सोच हुमायूं की उस पर भारी पड़ी और उसके जीवन की सबसे बड़ी भूल मानी गई।
शेरशाह की योग्यता
शेरशाह में हुमायूं से कहीं अधिक राजनीतिक समझ थी। शेरशाह हुमायूं की तुलना में ज्यादा दूरदर्शी था। शेरशाह ने बंगाल के खजाने की रक्षा हुमायूँ (Humayun) से सफलतापूर्वक की और उसे चौसा के युद्ध में हराकर अपनी योग्यता को खुद ही प्रमाणित कर दिया। शेरशाह सूरी ने हुमायूं को हराने के लिए बल के साथ साथ कूटनीति का भी इस्तेमाल किया।
खस्ताहाल गुप्तचर व्यवस्था
हुमायूं के शासनकाल में उसकी गुप्तचर व्यवस्था बिल्कुल ठप हो गई थी। हुमायूं का गुप्तचर व्यवस्था पर नियंत्रण ना होने की वजह से उसे गुप्त जानकारियों के बारे में कोई भी भनक नहीं लग रही थी और उसकी हार का एक कारण गुप्तचर व्यवस्था का ठप होना भी है।
भाइयों से सहयोग ना मिलना
हुमायूं के भाई हुमायूं से बैर रखते थे तथा उसके विरोधी थे और उन्होंने हुमायूं को किसी भी प्रकार का सहयोग नहीं दिया था। हुमायूं के सभी भाइयों में कामरान हुमायूं का सबसे कट्टर विरोधी था और वह खुद दिल्ली की गद्दी पर बैठने के सपने देख रहा था। यह भी एक कारण है, हुमायूं के असफल होने का।
अफ़गानों का तोपखाना
बाबर जैसे अक्रांता इसलिए भारत को जीत पाए, क्योंकि बाबर के तोपखाने का सामना भारत में मौजूद कोई भी सेना नहीं कर सकी थी। लेकिन समय के साथ साथ भारत पर शासन कर रहे अफगानी लोगों के पास भी उच्च कोटि के तोपखाने आ गए थे और हुमायूं के खिलाफ इन्हीं ऊंचे दर्जे के तोप खानो का इस्तेमाल किया गया, जिसके सामने हुमायूं और उनकी सेना चरमरा के धाराशाही हो गई।
शेरशाह और बहादुर शाह का संयुक्त मोर्चा
हिमायू की पराजय का एक कारण यह भी था की हुमायूं के खिलाफ शेरशाह और बहादुर शाह ने संयुक्त मोर्चा खोल दिया था। दोनों ही उस समय के शक्तिशाली शासकों में से एक थे। हुमायूं अकेले दोनों का सामना नहीं कर सकता था, इसलिए उसे जिल्लत भरी हार का सामना करना पड़ा।
राजकोष का अधिक खर्च होना
हुमायूं शासक तो बन गया लेकिन शासन करने की नीति उसके अंदर नहीं थी। उसे सब कुछ विरासत में आसानी से मिल गया था, इसलिए ना तो उसे प्रशासन आया और ना ही अर्थव्यवस्था की समझ थी। हुमायूं शासक बनने के बाद खाली हो चुके राजकोष की ओर कभी भी ध्यान नहीं दिया तथा भारी मात्रा में लगातार खर्च बढ़ाता ही गया। जिसकी वजह से उस के शासनकाल में आर्थिक स्थिति कमजोर हो गई।
व्यक्तिगत कमजोरियां
हुमायूं व्यक्तिगत रूप से भी एक कमजोर व्यक्तित्व वाला शासक था, वह स्वभाव से नशे मे रहने वाला और विलासी स्वभाव का व्यक्ति था। लेनपुल नाम के इतिहासकार ने लिखा है की “हुमायूं जमकर काम करने वाला व्यक्ति नहीं था। छोटी सी विजय पर ही वह उल्लास और विलासिता में डूब जाता था तथा अफीम का सेवन करके नशे की दुनिया में खो जाया करता था।” हुमायूं जिस समय शासक बना और जिन परिस्थितियों में शासक बना उन परिस्थितियों में विलासिता जीवन व्यतीत करना उसके शासन को समाप्त करने के लिए पर्याप्त कारण था। और उसकी पराजय और जिल्लत भरी हार का कारण, उसके खुद की व्यक्तिगत कमजोरियां भी थी।
हुमायूं का दुर्भाग्य
बाबर ने अपने पुत्र का नाम हुमायूं रखा था। हुमायूं का अर्थ भाग्यवान होता है लेकिन हुमायूं अपने पूरे जीवन काल में एक भाग्यहीन व्यक्ति के रूप में ही जीवन जीता रहा है। उसके पूरे जीवन काल में ऐसे अनेक अवसर आए हैं जब उसके भाग्य ने उसका साथ नहीं दिया था और उनमें से एक उसकी पराजय भी है।
भारत की प्रजा का विरोध
भारत की जनता हुमायूं के पक्ष में नहीं थी, क्योंकि भारत की जनता पहले से ही आए विदेशियों से परेशान थे कि अब यह मुग़ल नाम के विदेशी आ गए थे, मुगल लूट के साथ साथ निर्मम हत्यायें भी कर रहे थे। इसलिए भारत की जनता ने हुमायूं का सहयोग नहीं दिया। भारत के सभी राजपूतों ने रतन सिंह के नेतृत्व में मिलकर हुमायूँ (Humayun) के खिलाफ विद्रोह किया हुआ था। दूसरी तरफ अफगान शेरशाह भी राजपुते के साथ मिलकर अपनी अपनी शक्ति को संगठित करके हुमायूं को हराकर उसे भगा देने का निश्चय कर लिया था।
हुमायूं का भारत में फिर से आकर उत्तरी क्षेत्र में सत्ता स्थापित करना
शेरशाह ने जब हुमायूं को भारत से हराकर एवं लज्जित कर के भगा दिया, तब शेरशाह ने भारत में एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना की थी। शेरशाह की मृत्यु 1545 में हुई उसकी मृत्यु के बाद हुमायूं जो डर के छिपा हुआ था, उसके अंदर फिर से हिम्मत जागी और वह भारत मे अपने खोये हुये सत्ता को पाने के लिए आया। पहले उसने सिंध नदी को पार करके वहां पर स्थित रोहतास के किले को अपने अधिकार में कर लिया। इसके बाद लाहौर और पंजाब के कुछ भागों पर भी उसने कत्लेआम करके, अपने अधिकार को स्थापित किया।
अंत में 15 मई 1555 को मच्छीबारा में हुए युद्ध में, हुमायूं जीत गया और इस जीत के साथ पूरे पंजाब में हुमायूं का अधिकार हो गया। 22 जून 1555 को हुमायूं ने सिकंदर सूर से युद्ध किया। और उसे इस युद्ध में पराजित कर दिया। इसके बाद हुमायूं दिल्ली, आगरा, संभल और इसी के आसपास के क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया। इस तरह से हुमायूं फिर से भारत के उत्तरी क्षेत्र पर अपने अधिकार को वापस लेने में सफल हो गया और 15 वर्ष बाद 23 जुलाई 1555 को दिल्ली पहुंच कर, वह राजसिंहासन मे दोबारा बैठ गया।
हुमायूं की मृत्यु कब हुई थी
1555 में फिर से दिल्ली के आसपास के क्षेत्र को जीतकर, भारत के उत्तरी क्षेत्र का शासक बनने के बाद, उसके संकट के दिन समाप्त हो गए थे। क्योंकि जिस क्षेत्र में उसने अपना अधिकार किया था, उस क्षेत्र में अब उसका कोई भी प्रतिद्वंदी नहीं था। हुमायूं जब भारत वापस आया तो उसे शेरशाह के द्वारा बनाई गई, उच्च कोटि की प्रशासनिक व्यवस्था विरासत में मिल गई। इसलिए वह नशे मे डूबा रहने वाला सहजादा जब दुबारा राजा बना तो इस बार उसे प्रशासनिक व्यवस्था पर ज्यादा चिंता करने की आवश्यकता नहीं पड़ी और हुमायूं सुखद एवं शांतिमय ढंग से अपना जीवन व्यतीत करने लगा। 24 जनवरी 1556 को यानी शासन करते हुए उसे अभी 6 महीने भी नहीं हुए थे कि एक दिन वह नशे की हालत मे पुस्तकालय की सीढ़ी से गिर कर मर गया। हुमायूं के मरने के विषय पर इतिहासकार लेनपुल लिखते हैं कि “हुमायूं जीवन भर ठोकरें खाता रहा और ठोकर से ही उसके जीवन का अंत हुआ।”