गीतांजली की कहानी – ठग का हृदय परिवर्तन

गीतांजली की कहानी – ठग का हृदय परिवर्तन

एक बार बीरू काशी के विश्वनाथ के दर्शन के लिए अपने नगर रीवा से काशी के लिए पैदल निकल पड़ा। अपने साथ अपना प्यारा घोड़ा पवन को भी अपने साथ ले चला तथा रास्ते मे खाने के लिए काफी राशन भी था जिससे उसने अपने घोड़े पवन के पीठ मे टांग रखा था। उसकी इच्छा थी की बाबा भोलेनाथ के दर्शन के लिए वह रीवा से पैदल ही जाएगा जबकि वापसी घोड़े मे करेगा। चलते चलते जब दिन ढलने लगता तो वह किसी मंदिर के आसपास अपना बसेरा लगाता था और आसपास से लकड़िया इकट्ठी कर उनमे आग लगा खाना पका कर और खा कर सो जाता था और अगली सुबह फिर यात्रा चालू कर देता था।

एसे ही बीरु अपनी यात्रा एक मंदिर से दूसरे मंदिर करता रहा, बीरु एक धार्मिक व्यक्ति था तथा वह रीवा से काशी भगवान विश्वनाथ के दर्शन करने जा रहा था। इस बीच वह रास्ते मे पड़ने वाले छोटे-बड़े मंदिरो के भी दर्शन कर रहा था। इसी दौरान बीरु इलाहाबाद की सीमा को पार कर एक बस्ती से गुजर रहा था। दिन भी ढल रहा देख बीरु उसी बस्ती के मंदिर के प्रगण मे एक पीपल के पेड़ के नीचे, मंदिर के पंडित जी की अनुमति ले अपना डेरा जमा लिया और रात के खाने की तैयारी करनी चालू कर दी। शाम हो चुकी थी तभी एक ठग की नजर बीरु पर पड़ी, उस ठग को लगा की इस राहगीर के पास काफी समान, राशन है तथा एक सुंदर घोडा भी है। अगर किसी तरह यह सभी चीजे इससे ले ली जाए तो अपनी चाँदी हो जाएगी। पर रात को चोरी करना मुश्किल था क्योंकि बस्ती के एक्का दुक्का साधू संत भी इसी पेड़ के नीचे विश्राम कर रहे थे।

तब ठग ने सोचा क्यो न इसका पीछा किया जाए और अगले बसेरे मे इसे लूट ले तभी उसे ख्याल आया की हो सकता है की यह राहगीर केवल वंही बसेरा लेता हो जहां कुछ लोग पहले से ही ठहरे होते हो। तब उसने राहगीर बीरु को दिन के समय मे लूटने का तय किया। उसने अगले दिन एक संत की वेषभूषा मे राहगीर बीरु से मिला तथा वह बीरु के साथ हो लिया, बीरु को भी लगा की संत भी विश्वनाथ के दर्शन के लिए जा रहे है तो अकेले यात्रा करने से अच्छा है की उनके साथ यात्रा करे। बातचीत मे सफर का पता नहीं चलेगा। अब दोनों ही लोग काशी की ओर निकल पड़े। ठग जो संत के रूप मे था वह मौका खोज रहा था की कब बीरु को लूट कर चंपत हो जाए, पर ठग को मौका नहीं मिल प रहा था।

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बीरु ठग को संत समझ पूरे रास्ते धर्म और ज्ञान की बात कर रहा था। नैतिकता के बारे मे चर्चा कर रहा था, ठग भी बीरु की बातो मे रुचि लेने का दिखावा कर रहा था जिससे बीरु को उस पर शंका न हो ऐसे करते करते दो दिन बीत गए। पर जल्द ही धीरे-धीरे ठग को बीरु के धार्मिक बातो मे रुचि जागने लगी और वह भी बचपन मे अपने पिता के द्वारा सुनाये गए नैतिक कहानियाँ, राम कहानियाँ आदि याद कर बीरु से इन पर चर्चा करने लगा।

ठग को अब इन चर्चाओ मे रुचि सी हो गई। बीरु अपना ठिकाना आमतौर पर किसी मंदिर मे करता था जिससे वहाँ के पंडितो से कुछ धर्माचार हो सके तथा भोजन बनाने के लिए पानी और ईधन भी सरलता से मिल सके। दूसरा उद्देश्य रात मे सुरक्षा की दृष्टि से मंदिर अच्छा स्थान होता है।

ऐसे करते करते दो दिन बीत गए पर ठग को कोई अनुकूल समय नहीं मिल पाया अब तो काशी मंदिर का समय भी तीन दिन का ही बचा था। ठग को कई बार लगता की ज़ोर जबरदस्ती कर वह समान और घोडा लेकर भाग जाए पर बीरु की कद काठी देख उसकी हिम्मत न होती इस लिए वह दूसरे अवसर की तलाश कर रहा था पर वह अवसर उसे नहीं मिल पा रहा था।

एक दिन की बात है दोपहर की पहर थी बीरु और ठग दोनों ही एक गाँव को पार कर निकल रहे थे रास्ते मे एक छोटा सा जंगल भी पड़ा वहाँ एक नदी भी बह रही थी। उसी समय बीरु को दीर्घशंका जाने की तीव्र इच्छा हुई। उसने संत से निवेदन किया की कुछ पल के लिए हम इस जगह विश्राम कर ले मुझे दीर्घशंका से मुक्त होना है तथा गर्मी ज्यादा होने की वजह से नदी मे स्नान भी कर लूँगा। ठग बस इसी मौके की तलाश मे था, उसने तुरंत बीरु के निवेदन को स्वीकार्य कर लिया तथा दोनों ने एक पीपल के नीचे शरण ली। ठग वही विश्राम का ढोंग करने लगा तथा बीरु अपना सामान, राशन आदि तथा घोडा वही संत की निगरानी मे छोड़ नदी की ओर चल पड़ा। बीरु के नदी की ओर जाते ही, ठग ने सभी सामान उठाया और घोड़े मे सवार होकर वहाँ से चंपत हो गया। वह बहुत ही खुश था और हवा की रफ्तार से वह अपने घर की ओर चल दिया जहां वह बीरु से संत के रूप मे मिला था।

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इधर बीरु जब नित्यकर्म और स्नान से फारिग हो वापस आया तो उसे नियत स्थान मे न अपना सामान मिला न ही संत का कुछ अता-पता था। बीरु को पूरा यकीन हो गया की वह संत नहीं बल्कि संत के रूप मे ठग था जो लूट करने के उद्देश्य से रूप बदल कर उसके साथ यात्रा कर रहा था। बीरु को यह विश्वास था की उस ठग को खोजना मुश्किल होगा क्योंकि बीरु इस समय पैदल है और वह ठग घोडे मे, थोड़ा बारीकी से देखने मे पता चला की घोड़े के खुरो के निशान जिस रास्ते से आए थे, उसी रास्ते की ओर गए हुये है, जिसका मतलब है ठग अपने ठिकाने की ओर वापस चला गया है।  हो न हो वह उसी बस्ती का होगा जिस बस्ती मे वह ठग संत के रूप मे मिला था।

बीरु ने वापस जाना सही नहीं समझा क्योंकि विश्वनाथ धाम अब दो या ढाई दिन की दूरी पर था। इसके अलावा बीरु अपने अंदुरूनी वस्त्र मे कुछ पैसे छिपाए हुआ था। जिससे बुरी समय मे उसका प्रयोग किया जा सके। सो बीरु ने ठग को बाद मे खोजने की सोच, अपनी यात्रा काशी की ओर जारी रखी।

इधर ठग अब बहुत खुश था वह रास्ते मे एक सराय मे रुका और उसने सोचा आज यहाँ रुक जाता हूँ घोडा भी आराम कर लेगा और मैं भी कुछ खा कर सो जाऊ, कल सुबह वापस जा कर घोड़े का सौदा भी करना है। उसने रसोइया को खाने का आदेश दे अपने स्थान पर इंतेजार कर रहा था, जल्द ही सरायवाले ने उसे गरमा गरम खाना परोस दिया।

ठग ने जैसे ही थाली से रोटी का एक निवाला तोड़ कर अपने मुख मे रखा तभी उसके हाथ वही ठिठक गए और वह यकायक बीरु राहगीर के बारे मे सोचने लगा – “मैंने उसका सारा राशन लेकर चंपत हो आया हूँ और मैं यहाँ गरमा गरम रोटी और सब्जी खा रहा हूँ पर बेचारा वह राहगीर आज मेरी वजह से भूखा होगा, हो सकता है मुझे खोजने के लिए यहाँ वहाँ  भटक रहा होगा।” ठग का दिल बीरु के प्रति संवेदना से भर गया तथा दया की भावना उसके अंदर जाग गई और वह खाना छोड़ तुरंत बीरु राहगीर की तलाश मे निकल पड़ा।

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आखिर घोड़े को लगातार भागाते रहने के कारण ठग बीरु को अगले दिन की संध्या मे एक मंदिर मे मिला उसने बीरु के पैर पकड़ अपने पापो पर प्राश्चित किया तथा बुरे कर्म छोड़ सन्यास ले, भगवान की भक्ति का निर्णय लिया।

और फिर बीरु और वह ठग साथ मे विश्वनाथ के दर्शन किए इसके बाद बीरु वापस रीवा आ गया और वह ठग सन्यास धारण कर वही से हरिद्वार को चल पड़ा।

शिक्षा – इस कहानी से हमे यह शिक्षा मिलती है की बुरे से बुरा आदमी भी सत्संग मे रहे तो उसकी सारी बुराई उसके शरीर को छोड़ भाग जाती है। क्योंकि हिन्दू धर्म मे व्याप्त नैतिक और धार्मिक कहानियाँ सही गलत के अलावा मन को दयालु और सच्चा बनाती हैं।