एक मोहल्ला था जिसमे कुछ घर थे। इनमे से एक घर में एक महिला रहती थी। उसका जीवन काफी आसान था। सुबह उठती और पूरे दिन का दाल चावल बना लेती। कपड़े-लत्ते जायदा न थे, उसपर भी उनका धोना कभी-कभार ही होता। छोटा सा चार लोगो का परिवार। अपने ये दैनिक कार्य जल्दी-जल्दी निपटाती क्यो कि इसके बाद उसे अपने सबसे महत्वपूर्ण कार्य पर लगना होता जिसमे की उसे कई-कई बार रात भी हो जाती।
ये कार्य थे आलोचना, निंदा और चुगली। वो सच में ही एक महान आलोचक, निंदक और चुगलखोर थी। मोहल्ले के लोगो की निंदा, आलोचना और चुगली करके ही उन्हें नींद आती। ऐसे महान चुगलखोर हर मोहल्ले गलियों में होते है। वो इस मोहल्ले की चुगलखोर है। यहाँ उनका प्रभुत्व है। वे यहाँ की महानायिका है। निंदा, आलोचना, चुगली कर के वे ऐसी प्रसन्न होती, उन्हें इतनी ख़ुशी होती मानो लड़का पैदा हुआ हो। उनकी बाते इतनी रसदार होती के धीरे-धीरे मोहल्ले की कुछ और घर की महिलाये भी इससे अछूती न रह सकी।
हलाकि अन्य महिलाओं के घर में ज्यादा कार्य होता सो वे बीच बीच में आ के इस रस का उपभोग करती। अच्छी बात यह थी की उनकी महानायिका हर वक़्त अपने घर के द्वार पर उपलब्ध होती। इन सभी महिलाओ के लिए निंदा रस अब सर्वोपरी था। जब तक वे नाक चढ़ाये मुह बनाये किसी भले मानुष के दोष उद्घाटन न करती, जी न बहलता। ऐसा न था के इन महिलाओं की टोली में एकता थी। वे आपस में भी एक दुसरे की चुगली और निंदा करती थी।
समाय बीतता गया, महानायिका को छोड़ दल की अन्य महिलाओं के घर में भी परेशानियों ने दस्तक दी। अब वे अपनी समस्याओ से दो चार हो रही थी पर समय निकाल कर वे वहा ज़रूर पहुचती। वहा अन्य घरो और लोगो की चुगली, निंदा, और आलोचना कर वे कुछ देर के लिए अपना गम भूलना चाहती। अब ये रस उनके लिए प्रसन्नता देने के बजाये सहानुभूति देने वाला हो गया। जो भी हो महानायिका के लिए उस रस का आनंद उसी प्रकार बरकरार था।
पर यह क्या, नियति ने ये कैसा खेल खेला। शायद रस की अधिकता हो जाने की वजह से महानायिका मधुमेह और उच्च-रक्तचाप की चपेट में आ गयी। अब महानायिका को अपनी फ़िक्र सताने लगी। अब दूसरो के घर की बाते करने में उसका मन कम ही लगता। उसका ज्यादातर वक़्त दरवाजे पर बैठने की जगह टहलने में जाता। पर मै जानता हु उनका चित्त उदास है, क्योकि उनके लिए मानो अब हर दिन उपवास है।