एक छोटे से कस्बे में एक व्यापारी था, जिसका नाम रमेश था। उसकी जिंदगी का सबसे बड़ा सपना था एक सफल व्यवसाय खोलना। मेहनत और लगन के साथ, उसने अपनी अगरबत्ती की दुकान शुरू की, जिसमें नाना प्रकार की सुगंधित अगरबत्तियां उपलब्ध थीं। ये अगरबत्तियां घरों, मंदिरों और पूजा स्थलों में अपनी खास महक के लिए जानी जाती थीं। दुकान की शुरुआत बहुत ही शानदार रही। दुकान के बाहर रमेश ने एक साइन बोर्ड लगाया, जिस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था, “यहाँ सुगंधित अगरबत्तियां मिलती हैं।”
दिन बीतते गए, और रमेश की दुकान तेजी से चलने लगी। उसकी मेहनत रंग ला रही थी, और ग्राहकों की भीड़ हर दिन बढ़ती जा रही थी। लेकिन एक दिन, एक अनजान ग्राहक, जो देखने में तो सभ्य लग रहा था, उसकी दुकान पर आया और बोला, “आपके बोर्ड पर जो लिखा है, उसमें एक विरोधाभास है। अगरबत्तियां तो स्वाभाविक रूप से सुगंधित होती हैं। ‘सुगंधित’ शब्द अनावश्यक है। इसे हटा दीजिए, नहीं तो लोग सोचेंगे कि आपको सही शब्दों की समझ नहीं है।”
रमेश को यह तर्क सही लगा। उसने तुरंत ‘सुगंधित’ शब्द को बोर्ड से मिटा दिया। अब बोर्ड पर सिर्फ इतना लिखा था, “यहाँ अगरबत्तियां मिलती हैं।”
कुछ दिन बीते ही थे कि एक और व्यक्ति दुकान में आया, और उसने रमेश को सलाह दी, “भाई, जब दुकान यहीं है, तो ‘यहाँ’ शब्द की कोई ज़रूरत नहीं। जाहिर है, अगर दुकान यहीं है, तो लोग देख ही लेंगे कि यहाँ क्या मिलता है। ‘यहाँ’ शब्द हटाइए।”
रमेश इस बार भी उसकी बात से सहमत हो गया। उसने ‘यहाँ’ शब्द हटा दिया। अब बोर्ड पर बस इतना लिखा था, “अगरबत्तियां मिलती हैं।”
समय बीतता गया और फिर एक तीसरा ग्राहक आया, जो अपने आप को बड़ा ज्ञानी मानता था। उसने रमेश से कहा, “भाई, जब आप दुकान में अगरबत्तियां बेच ही रहे हैं, तो ‘मिलती हैं’ लिखने की क्या जरूरत है? दुकान है तो लोग खुद ही समझ जाएंगे कि यहाँ अगरबत्तियां मिलती हैं। बस ‘अगरबत्ती’ लिखिए।”
रमेश ने फिर से मान लिया और अब बोर्ड पर सिर्फ ‘अगरबत्ती’ लिखा रह गया। कुछ दिन बाद, एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति, जो खुद को शिक्षित और बुद्धिमान समझता था, दुकान पर आया। उसने रमेश को सलाह दी, “भाई, जब लोग दुकान को देख सकते हैं और जानते हैं कि ये अगरबत्तियों की दुकान है, तो बोर्ड की क्या जरूरत? इसे हटा दो। लोग देख कर ही समझ जाएंगे।”
रमेश को यह सलाह भी सही लगी, और उसने बोर्ड को हटा दिया।
अब उसकी दुकान बिना किसी संकेत या साइन बोर्ड के रह गई। शुरुआत में रमेश ने सोचा कि लोग फिर भी आएंगे क्योंकि उसकी अगरबत्तियां काफी मशहूर थीं, लेकिन धीरे-धीरे दुकान पर ग्राहकों की संख्या घटने लगी। लोगों को पता ही नहीं चल रहा था कि वहाँ अगरबत्तियों की दुकान है। धीरे-धीरे उसकी बिक्री बिल्कुल ठप्प हो गई और रमेश चिंता में डूब गया।
दिन बीतते गए और रमेश की हालत बदतर होती गई। एक दिन उसका पुराना दोस्त श्यामलाल, जो बहुत वर्षों के बाद गाँव लौटा था, रमेश की दुकान पर आया। उसने रमेश को देखा तो उसकी चिंता छिपी नहीं रही। श्यामलाल ने पूछा, “क्या हुआ, रमेश? तुम्हारी दुकान तो पहले बहुत चलती थी, अब इतनी सुनसान क्यों है?”
रमेश ने उसे पूरी कहानी सुनाई—कैसे लोगों की सलाह पर उसने अपने बोर्ड से शब्द हटाने शुरू किए और अंत में उसे पूरी तरह से हटा दिया।
श्यामलाल ने गहरी सांस लेते हुए कहा, “रमेश, तुमने क्या कर दिया! तुमने अपनी दुकान की पहचान ही खो दी। लोगों की हर एक सलाह सुनकर तुमने अपना व्यापार बर्बाद कर लिया। वे लोग अगरबत्ती के विशेषज्ञ नहीं थे, फिर भी तुमने उनकी बात मानी।”
फिर श्यामलाल ने उसकी दुकान के बाहर एक नया साइन बोर्ड बनवाने का सुझाव दिया। उसने कहा, “तुम वही पुराना बोर्ड वापस लगाओ: ‘यहाँ सुगंधित अगरबत्तियां मिलती हैं।’ यही तुम्हारी दुकान की पहचान थी, यही तुम्हारा व्यापारिक चेहरा था। अगर तुमने इस बोर्ड को सुनने वालों की बातों में आकर हटाया, तो फिर अपनी असली पहचान खो दी।”
रमेश ने श्यामलाल की बात मानी और वही पुराना साइन बोर्ड फिर से लगा दिया। आश्चर्य की बात थी कि जैसे ही वह बोर्ड वापस लगा, धीरे-धीरे उसकी दुकान फिर से चलने लगी। पुराने ग्राहक लौट आए, और नए ग्राहक भी आने लगे। दुकान फिर से चहकने लगी।
रमेश ने इस घटना से एक गहरी सीख ली: हर किसी की सलाह मानने की ज़रूरत नहीं होती। अगर तुम अपनी बातों और काम पर विश्वास करते हो, तो उसे बिना किसी डर के करते रहो। लोगों की बातें सुनने के बजाय अपने अंतर्मन की आवाज़ सुनो। क्योंकि कोई भी तुम्हें तुम्हारे खुद के व्यवसाय या जीवन से बेहतर नहीं जानता।
इस प्रकार, रमेश की दुकान फिर से चल निकली, और वह अपने अनुभव से समझ गया कि जीवन में विशेषज्ञों की सलाह का महत्व है, लेकिन अज्ञानी लोगों की बातों में फंसने से जीवन की दिशा भटक सकती है।