एक लिप्टस का पेड़ था, वह बहुत ही ऊंचा, बड़ा और चौड़ा था। उस पेड़ के पास कुछ छोटे-छोटे झाड़ भी उगे हुए थे। एक बार एक साधु वहां से गुजरे तो उन्होंने उस पेड़ और झाड़ का कुशल मंगल पूछा और वहीं पर कुछ देर खड़े होकर, उस बड़े वृक्ष से और झाड़ से उन्होंने बातचीत की। इसके बाद साधु ने वृक्ष और झाड़ के बीच किस प्रकार के संबंध हैं, इसके बारे में भी उन दोनों से पूछा।
इस प्रश्न को सुनकर उस बड़े वृक्ष ने अपने बड़प्पन की विस्तार पूर्वक प्रशंसा की और अपने स्वभाव को सराहने लगा। साथ ही वह पड़ोसी झाड़ियों का उपहास भी उड़ाने लगा। झाड़ियों ने उत्तर में बहुत ज्यादा नहीं बोला और अपनी स्थिति पर संतोष व्यक्त करते हुए कहा कि वह जिस स्थिति में भी हैं वह प्रसन्न है, उन्होंने यह भी बताया कि बड़े प्राणियों को तो नहीं पर छोटे प्राणियों को वह भी छाया और आश्रय प्रदान करते है।
कुछ वर्ष बीत जाने के बाद एक बार फिर साधु उसी रास्ते से वापस लौटे, जब साधु वहां पर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि वहां पर, अब वह विशाल वृक्ष नहीं है, वह धराशाई हो चुका है लेकिन उन्होने यह भी देखा की झाड़ियों का विस्तार हो चुका था, साधु ने झाड़ियों से वहां का वृतांत पूछा कि आखिर यहां ऐसा क्या हुआ था? जिसकी वजह से वृक्ष धराशाई हो गया है।
तब झड़ियो ने बताया कि एक बार भयंकर तूफान आया था। उसकी चपेट में अनेक वृक्ष आए और यह लिप्टस का पेड़ भी उसी चक्रवात में धराशाई हो गया। यह सुनकर साधु दुखी हुआ साथ में उसने झाड़ियों से पूछा कि आप लोग उस चक्रवात से कैसे बच गए?
तब झाड़ियों ने उत्तर दिया हे साधु महाराज हमें अपनी तुच्छता का भान था, इसलिए तूफान आते ही सिर झुका लिया, तूफान ऊपर से निकल गया। लेकिन वृक्ष अकड़ कर खड़ा रहा और आंधी से टकराकर धराशाई हो गया।
अहंकार और नम्रता के अंतर पर विचार करते हुए साधु अपने रास्ते की ओर बढ़ गए।
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