काफी पुरानी बात है, विजयनगर में राजा विजयकान्त राज्य करते थे। उसी राजा के राज्य में ही एक बहुत बड़ा व्यापारी भी रहता था।
समन्द्री मार्ग से व्यापारी देश-विदेश के अन्दर बहुत सी कीमती वस्तुओं का व्यापार करता था। इस वजह से वह पूरे राज्य में सबसे ज्यादा धनी व्यक्ति था। सभी लोग इस बात को अच्छी प्रकार जानते थे कि उसका कारोबार उन सबसे बड़ा है।
मूल्यवान रत्नों से भरे हुए उसके बहुत सारे जहाज विशाल समुन्द्र की छाती पर इस देश से उस देश की यात्रा के लिए घूमते ही रहते थे। सभी लोग इस बात से वाकिफ थे।
लेकिन वह व्यापारी इतना अमीर होने पर भी एक नम्बर का कंजूस था। धर्म, कर्म और सामाजिक कार्यों में भी वह एक पैसा देना भी पसन्द नहीं करता था। पैसों के मामले में तो उसे किसी व्यक्ति पर भी विश्वास नहीं था। उसकी कंजूसी को लोग अच्छी तरह जानते थे।
वैसे तो उसके बहुत सारे नौकर चाकर थे। लेकिन उन नौकरों में एक नौकर बड़ा अच्छा था जिसका नाम था धन्ना। अपने मालिक का बड़ा वफादार था। हर समय वह साये की तरह अपने मालिक के आगे-पीछे घूमा करता था।
लेकिन वह सेठ उस वफादार नौकर का भी भरोसा नहीं करता था। फिर भी उसे सेठ के व्यापार की बहुत सारी बातें मालूम रहती थीं और नौकरी के अलावा सेठ उसके साथ थोड़ी-बहुत रहमदिली बरतता था और उसके साथ नम्रता से पेश आता था।
समय पर वेतन देने के अलावा वो उस नौकर को खुश करने के लिए ईनाम भी देता रहता था। कभी-कभी चोरी-चुपके से उसकी मदद भी कर दिया करता था।
उस सेठ की ज्यादातर जिन्दगी समुन्द्री सफर में ही गुजरा करती थी। लेकिन फिर भी वो तैरना नहीं जानता था। जब कभी भी उसका जहाज समुन्द्री तूफान में फंस जाता था, तब उस समय उसकी जिन्दगी मल्लाहों की दया और सहारे पर निर्भर हो जाती थी।
इसी प्रकार एक दिन की बात है, उसका जहाज भयंकर तूफान में से जैसे-तैसे ही बच सका। उस दिन वह मौत के मुंह से बाल-बाल ही बच पाये थे। जहाज पर सवार सभी लोग कह रहे थे कि आज उन्हें दूसरा जीवन भगवान ने दिया है।
लेकिन धन्ना को अपने जीवन से ज्यादा अपने मालिक के जीवन की फिक्र हो रही थी। जिस समय तूफान आ रहा था, उसक समय वह अपने मालिक के पास खड़ा होकर उनका साहस बढ़ा रहा था।
थोड़ी देर के बाद जब तूफान थमा तो धन्ना ने सेठजी से कहा- “सेठजी, आप हर वक्त समुद्र की लहरों के बीच रहते है। आपका जीवन हर वक्त समुन्द्र की लहरों से खेलता है। इसलिए आप तैरना जरूर सीख लीजिये। बुरा समय आते देर नहीं लगती। न जाने कब क्या हो जाए बुरे समय को आखिर कौन देख पाया है?”
धन्ना की बात सुनकर सेठजी हँसने लगे और बोले- “तुम ठीक कह रहे हो धन्ना। मगर तैराकी सीखने के लिये कम-से-कम दो सप्ताह का वक्त तो चाहिए। इतने वक्त में तो मुझे लाखों का घाटा हो जायेगा। मैं ये बिल्कुल नहीं चाहता।
“सेठजी, मैं आपको तीन दिन के अन्दर अच्छा तैराक बना सकता हूं। सिर्फ तीन दिन में!” धन्ना ने कहा।
“तीन दिन की बात करते हो, मुझे तीन घन्टे का समय नहीं मिलता है। इतने दिन मैं बेकार कैसे गंवा दूं? जिस काम से कुछ कमाई न हो तो ऐसे काम में मैं तीन मिनट भी नहीं लगा सकता?” सेठजी मारे गुस्से के झल्लाये।
बेचारा धन्ना खामोश हो गया। कहता भी तो क्या? लेकिन वह सेठ का आज्ञाकारी व वफादार नौकर जो था। इसलिए उसे दिन-रात सेठजी के जीवन की फिक्र रहने लगी। काफी सोच-विचार करने के पश्चात धन्ना को एक विचार सूझा।
एक दिन सही मौका देखकर उसने सेठजी से कहा- “सेठजी, आप अपने कीमती वक्त में से मुझे तीन दिन भी नहीं देना चाहते तो आपसे एक विनती है।”
“हां, हां, निसंकोच होकर कहो धन्ना। क्या कहना चाहते हो?” सेठजी बोले।
“आप दो खाली कनस्तर मुंह बन्द कराकर और उन्हें बीच में से रस्सी बांधकर हमेशा अपने कमरे में रखिये। वक्त-बेवक्त यह छोटा-सा जहाज आपको बड़ी मदद कर सकता है।” धन्ना ने अपने मालिक से विनती की।
सेठजी को भला इसमें क्या ऐतराज होता। उन्होंने धन्ना से कहा- “जैसी तुम्हारी मर्जी। तुम कनस्तर मेरी केबिन में रख देना।”
अब धन्ना खुश हो गया, उसने अपने दिल में ऐसा महसूस किया जैसे अपने मालिक को मौत के पंजे से छुड़ा लिया हो। वह दौड़ा-दौड़ा गया और दो कनस्तरों की नाव इच्छानुसार बनवाकर सेठजी के केबिन में रखवादी और निश्चिंत हो गया।
जिस घटना की धन्ना को हर समय फिक्र लगी रहती थी, आखिर एक दिन वही घटना सामने आ गई।
सेठजी का जहाज एक रोज समुद्र की भयंकर तूफानी लहरों में फंस गया। काफी कोशिश करने के बावजूद भी स्थिति मल्लाहों के नियन्त्रण के बाहर हो चुकी थी। यह देखकर मल्लाहों ने सभी लोगों को अपनी-अपनी जान बचाने के उपाय करने के लिए सुझाव दिया।
उस समय धन्ना भी वहीं था। वह अपनी जान की परवाह न करते हुए भागा हुआ सेठजी के केबिन में गया और अपनी बनवाई हुई कनस्तरों की नाव को उनके हाथों में देकर बोला- “सेठजी, आप इन कनस्तरों की नाव में बैठकर भगवान का नाम लेकर समुन्द्र में कूद जाओ। जहाज में चारों तरफ से तेजी के साथ पानी भर रहा है। अब इसका बचना मुझे नामुमकिन-सा लग रहा है।”
“वह तो मुझे भी दिखाई दे रहा है… लेकिन एक तरफ तो हीरे-जवाहरातों से भरे हुए चार सन्दूक हैं और दूसरी तरफ तुम्हारे ये दिये खाली कनस्तर हैं।”
“आप क्या कहना चाहते हैं सेठजी?” उसने आश्चर्य से पूछा।
“इन सन्दूकों को छोड़कर खाली कनस्तर को लेकर समुन्द्र में कूद जाना क्या बेवकूफी का काम नहीं है?” इतना कहकर सेठजी सबसे कीमती रत्नों से भरा सन्दूक लेकर समुन्द्र के अन्दर कूद पड़े। धन्ना यह सब देखता रह गया।
सेठजी की इस बेवकूफी से भरी हरकत को देखकर धन्ना ने अपना सिर पीट लिया। लेकिन अब क्या हो सकता था। जो होना था वो तो पहले ही हो चुका था।
उस भयंकर समुन्द्री तूफान में धन्ना को अपनी जान की भी परवाह थी। इसलिए वह इन कनस्तरों की नौका को लेकर खुद समुन्द्र में जान बचाने के लिए कुछ पड़ा।
उसके कूदते ही एक लहर की चपेट ऐसी आई कि जहाज संभल नहीं सका और समुन्द्र के विशाल उदर में समाता चला गया। उस कनस्तरों की नौका ने धन्ना की बड़ी सहायता की। उसने उस नाव को अपने शरीर से कसकर बांध लिया और समुन्द्र की लहरों के साथ लगातार चौबीस घन्टे इधर-उधर तैरता रहा।
अगले दिन वह उसी नाव के सहारे एक टापू पर जा पहुंचा। वहां पहुंचकर उसे थोड़ी राहत मिली। उसका शरीर थककर चूर हो चुका था। अब तूफान भी शान्त हो चुका था। समुन्द्र में लहरों की हलचल अब समाप्त हो गई थी।
उसने टापू पर पहुंचकर चैन की सांस ली और अपने शरीर को निढाल छोड़ दिया। फिर धूप में लेट गया।
दो-तीन घन्टे आराम के बाद उसे बड़े जोर से भूख लगने लगी। वह भोजन की तलाश में इधर-उधर देखने लगा। थोड़ी ही दूरी पर उसे समुन्द्र के किनारे एक बक्सा दिखाई दिया। वह भोजन की तलाश करते हुए उसी सन्दूक के पास जा पहुंचा।
सन्दूक के पास जाकर वह हैरान रह गया, यह वही सन्दूक था जिसे सेठजी लेकर समुन्द्र में कूदे थे। लहरों के थपेड़ों ने सेठजी को अपने गर्भ में छिपाकर कीमती रत्नों से भरे सन्दूक को बाहर उछाल दिया था।
धन्ना ने आगे बढ़कर उस कीमती रत्नों से भरे सन्दक को उठा लिया और उसे अपने घर ले जाकर आराम से रहने लगा।
प्यारे बच्चों! इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि इन्सान को लालच कभी नही करना चाहिए। कभी-कभी यह लालच इन्सान की जान भी ले लेता है।