Hindi Story : शहर से दो मील की दूरी पर नदी के किनारे हरे-भरे वृक्षों वाले एकलव्य आश्रम की मनमोहिनी छटा सचमुच देखते ही बनती थी। दूर-दूर तक एकांत और शांत वातावरण था। आश्रम में केवल उन्हीं बच्चों को प्रवेश दिया जाता, जो हर दृष्टि से योग्य होते थे। गुरु हरिप्रसाद जी आश्रम के संचालक थे, जिनका बच्चे बहुत सम्मान करते थे। वह आश्रम के परिसर में बने निवास में ही रहते और वहाँ की व्यवस्था का पूरा ध्यान रखते थे। उनकी धर्मपत्नी मधुलता एक विदुषी, पतिव्रता स्त्री थी। उनका इकलौता पुत्र सौरभ बहुत सुशील और होनहार था।
आश्रम में कुल पच्चीस विद्यर्थी थे, जिनमें उनका पुत्र भी शामिल था। जयंत उन सबका माँनिटर था। वह एक निर्धन परिवार से था। उसका पिता सेठ शोभाराम की दुकान पर मजदूरी करके अपने परिवार का पेट पाला करता था। सेठजी के लड़के विक्रम ने इसी आश्रम में प्रवेश ले रखा था। लेकिन उसमें एक कमी थी कि वह जयंत को सदा तिरस्कार की दृष्टि से देखा करता था।
एक रोज विक्रम ने गुरुजी से कहा कि उसकी जेब से किसी ने चाँदी का सिक्का चुरा लिया। पूछने पर उसने बताया कि उसका शक जयंत पर है।
गुरुजी जयंत पर बहुत स्नेह रखते थे। यही नहीं, उसे वह अपना सबसे अधिक विश्वासपात्र शिष्य भी समझते थे। उसका नाम सुनकर गुरुजी को बहुत पीड़ा हुई जो उन्हें अन्दर ही अन्दर दुख देने लगी। जब इस बारे में जयंत समेत सभी बालकों से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि उन्हें कुछ पता नहीं है।
गुरुजी इसके कारण बहुत परेशान रहने लगे। आज तक उनके आश्रम में ऐसी दुखद घटना पहले कभी नहीं हुई थी।
आखिर उन्हें एक तरकीब सूझी। शाम को भोजन के बाद उन्होंने सभी को बुलाकर कहा-“देखो बच्चो, विक्रम की जेब से इस तरह सिक्के की चोरी हो जाना इस आश्रम की प्रतिष्ठा पर गहरी चोट है। यह तो मानना ही पड़ेगा कि जिसने यह हरकत की है, वह कोई बाहर का नहीं है, बल्कि हम में से ही कोई है। खैर, जाने-अनजाने में जिससे भी यह गलती हुई हो, उससे मेरा यही कहना है कि वह तुरन्त अपनी गलती सुधारे और सुबह होने से पहले-पहले उस सिक्के को आश्रम की पत्र-मंजूषा में डाल दे। यदि ऐसा नहीं हुआ तो मुझे बहुत कष्ट होगा। इस स्थिति में सिक्के की कीमत मुझे अपनी ओर से अदा करनी होगी”।
गुरुजी के इस कथन पर एकदम सन्नाटा छा गया। सोने से पहले बालकों में काफी देर तक इसी बात की चर्चा होती रही। उनका हृदय बार-बार कचोट रहा था कि गुरुजी ने इस घटना से दुखी होकर यदि आश्रम छोड़ दिया, तो उन सबके लिए वह डूब मरने जैसी बात होगी।
गुरुजी भी देर रात तक सो नहीं पाए। दूसरी ओर चारपाई पर लेटे सौरभ की नजरें पिता पर लगी हुई थीं। वह भी बहुत दुखी था। कुछ देर के बाद जब सौरभ ने देखा कि पिताजी सो रहे हैं, तो वह चुपके से उठा और बिना किसी आहट के धीरे से बाहर निकल गया। गुरुजी सचमुच सोए नहीं थे, बल्कि आँखे मींचकर लेटे हुए थे। बेटे का इस तरह बाहर जाना उन्हें कुछ अजीब लगा। पर उस समय वह कुछ बोले नहीं।
सुबह जब पत्र-मंजूषा खोली गई, तो उसमें वह सिक्का मिल गया। गुरुजी समझ गए कि चोरी का यह घिनौना कार्य उनके ही लाड़ले सौरभ ने किया है। सुबह दुखी होकर उन्होंने विद्यार्थियों से कहा कि उन्हें इस बात की खुशी है कि विक्रम का सिक्का उसे मिल गया,किन्तु ऐसी ओछी हरकत करने वाला उनसे छिपा नहीं रह सका। वह उसे अच्छी तरह जान गए हैं। फिर भी चूँकि उसने अपनी गलती स्वीकार कर ली है, इसलिए आश्रम से निकालने के बजाए, वह केवल उसे तीन दिन लगातार निराहार रहने की सजा सुनाते हैं।
सभी बालक एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे। विक्रम पीछे की ओर शान्त खड़ा था। जयंत के चेहरे पर उदासी छाई हुई थी। सौरभ का सिर नीचे की ओर झुका था। गुरुजी कुछ देर रुककर फिर बोले-“अब आप सभी यह जानन चाहेंगे कि इस दंड का भागी कौन हैं? तो सुनिए। दोषी मेरा अपना बेटा सौरभ है”।
यह सुनते ही विक्रम जोर से चिल्लाया-“नहीं-नहीं यह पाप सौरभ से नहीं, मुझसे हुआ है”। दौड़कर वह गुरुजी के चरणों में गिर गया और गिड़गिड़ाते हुए बोला-“मुझे माफ कर दो गुरुजी, मुझे माफ कर दो। सौरभ का इसमें कोई दोष नहीं है। वह सिक्का किसी ने नहीं चुराया। इसे मैंने ही सौरभ को रखने के लिए दिया था। मैंने इसे कसम दिलाई थी कि इस बारे में वह किसी को कुछ नहीं बताएगा। इसीलिए वह इतने दिन चुप रहा”।
“तो फिर जयंत पर चोरी का झूठा इल्जाम क्यों लगाया? इसके पीछे तेरा क्या मकसद था?” -गुरुजी ने पूछा।
“जयंत से मन ही मन मुझे ईर्ष्या होने लगी थी, क्योंकि वह मेरी बराबरी कर रहा है। इसलिए मैं इसे अपमानित करके किसी तरह आश्रम से निकलवा देना चाहता था। सौरभ ने इस बात के लिए मुझे कोसा भी, लेकिन मैं अपने अहंकार में अकड़ा रहा। आज मुझे मालूम हुआ कि किसी की पहचान उसके पैसों से नहीं, गुणों से होती है”।–कहता हुआ वह फूट-फूटकर रोने लगा।
गुरुजी को लगा, विक्रम ने अपनी भूल स्वीकार करके आश्रम को अपवित्र होने बचा लिया है। उन्होंने उसे प्यार से गले लगा लिया।