सत्रहवीं शताब्दी के अन्त तक टर्की का साम्राज्य बहुत शक्तिशाली बना रहा। यह राज्य तीनों महाद्वीप-एशिया, अफ्रीका और यूरोप में फैला हुआ था। परंतु 18वीं तथा 19वीं शताब्दी में इस साम्राज्य का पतन होने लगा। 1874 में कुचुक कैनार्जी की संधि द्वारा टर्की के सुल्तान ने रूस को अजोफ का बन्दरगाह दे दिया तथा काले सागर में उसके व्यापारिक जहाजों के आने-जाने का अधिकार भी स्वीकार कर लिया गया। 1804 में सर्बिया के देश भक्तों ने टर्की के विरूद्ध विद्रोह कर दिया और 1830 में टर्की के सुल्तान को सर्बिया की आन्तरिक मामलों में स्वतंत्रता प्रदान कर दिया। इसी प्रकार यूनानियों ने टर्की साम्राज्य से स्वतंत्र होने के लिये 1821 में विद्रोह कर दिया। अन्त में 1829 की एड्रियानोपल की संधि के अनुसार यूनान में स्वतंत्रता स्वीकार कर ली गई।
पूर्वी समस्या का अर्थ
इतिहासकार मेरियट के अनुसार ‘जब रूस की गतिविधियों से आशंका होने लगी कि टर्की की वह बढ़ती हुई निर्बलता से लाभ उठाकर उसे हड़प लेगा तब इंग्लैण्ड, फ्रांस और व आस्ट्रिया अपने विभिन्न स्वार्थो से प्रेरित होकर उस ओर अधिक ध्यान देने लगे और समस्या अन्तराष्ट्रीय बन गई’। वह समस्या इतिहास में पूर्वी समस्या के नाम से प्रसिद्ध है। जान मार्ले का कथन है कि ‘परस्पर विरोधी जातियों, धर्मो एवं पृथक स्वार्थो के संघर्ष से उत्पन्न जटिल असाध्य तथा परिवर्तनशील समस्या को पूर्वी समस्या के नाम से जाना गया है। डॅा. मिलर के अनुसार, ‘यूरोप में टर्की के साम्राज्य के क्रमश: विघटन से उत्पन्न शून्यता को भरने की समस्या को निकट पूर्व की समस्या कहते हैं’। एक कूटनीतिज्ञ के अनुसार, ‘निकट पूर्व की समस्या गठिये की बीमारी के समान जो कभी हाथों को जकड लेती है तो कभी पैरों को।‘ साउथगेट का कथन है ‘डैन्यूब नदी से नील नदी तक फैलते हुए राज्यों और वहाँ बसने वाले लोगों की समस्याओं के समूह को पूर्वी समस्या कहा जाता है’।
पूर्वी समस्या पर यूरोपीय शक्तियों के विभिन्न दृष्टिकोण
1- रूस तथा टर्की
रूस का तुर्की साम्राज्य में दिलचस्पी रखने का यह कारण था कि रूस तथा तुर्की के निवासियों का धर्म था। दोनों राज्यों में स्लाव जाति रहती थी। इसके अतिरिक्त व्यापार के लिये रूस के पास कोई समुद्र तट नहीं था। उसकी उत्तरी सीमा का आर्कटिक महासागर तथा पूर्व की ओर का प्रशांत महासागर वर्ष के अधिकांश भाग में जमा रहता था। अत: काले सागर पर प्रभाव स्थापित करना चाहता था। वह तुर्की साम्राज्य के मध्य में स्थित डार्गेनलीज एवं बास्फोरस पर अपना प्रभाव स्थापित कर इनके मध्य में स्थित कुस्तुन्तुनिया पर अधिकार स्थापित करना चाहता था क्योंकि उसका विचार था कि यदि इन प्रदेशों पर उसका अधिकार हो जाये तो संसार पर वह अधिकार कर सकता है। अत: रूस चाहता था कि तो तुर्की से युद्ध किया जाय या संधि करके डैन्यूब नदी घाटी पर तो कम प्रभाव स्थापित कर लिया जाए। इन लाभों की प्राप्ति के लिये रूस तुर्की साम्राज्य का विघटन चाहता था। सन् 1844 में रूस के साम्राज्य का जार निकोलस प्रथम ने ब्रिटेन के विदेश मंत्री एबर्डीन से कहा था कि तुर्की यूरोप का बीमार व्यक्ति है अत: उसके मरने से पूर्व ही उसकी सम्पत्ति का बंटबारा कर लेना चाहिए।
2- इंग्लैण्ड तथा टर्की
रूस के इस विस्तार से इंग्लैण्ड के पूर्वी साम्राज्य के लिये खतरा था। वह मध्य एशिया और पूर्व में इसका विस्तार नही चाहता था। इसलिये वह रूस की भांति तुर्की साम्राज्य को यूरोप का बीमार आदमी नहीं मानता था। वह अनेक राजनैतिक एवं व्यापारिक हितों की पूर्ति के लिये टर्की साम्राज्य को बनायें रखना चाहता था। वह रूस की भांति टर्की का विघटन नहीं चाहता था। इंग्लैण्ड रूस को एशिया साम्राज्य में अपना सबसे बड़ा प्रतिद्वन्दी समझता था। अत: वह उसके बढ़ते हुए प्रभाव को सहन करने का तैयार नही था।
3- आस्ट्रिया और टर्की
मध्य युग में आस्ट्रिया टर्की का सबसे बड़ा शत्रु था। उसका कार्य तुर्की के विस्तार को रोकना था। परन्तु इस समय उसका एकमात्र उद्देश्य रूस को रोकना रह गया था। वह चारों ओर स्थल से घिरा हुआ था। उसके पास केवल एड्रियाटिक सागर का एक कोना था। आस्ट्रिया भी डोर्डनलीज बासफोरस एवं डैन्यूब नदी घाटी पर अपना अधिकार बनाये रखना चाहता था। आस्ट्रिया में विभिन्न भाषा-भाषी व्यक्ति थे। उधर रूस में पान स्लाव आंदोलन चल रहा था। इसका उद्देश्य बिखरी हुई सर्व जाति को एक झण्डे के नीचे संगठित करना था। आस्ट्रिया को भय हुआ था कि कही उसके साम्राज्य में रहने वाले सर्व भी आंदोलन न कर बैठें। अत: तुर्की साम्राज्य के सम्बंध में रूस तथा आस्ट्रिया के परस्पर विरोधी दृष्टिकोण थे।
4- फ्रांस और टर्की
फ्रांस भी व्यापारिक हितों के कारण पूर्वी समस्या में भाग ले रहा था। वह मिश्र एवं सीरिया में व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त करना चाहता था। ये सुविधाएँ प्राप्त करना तभी सम्भव था जबकि वहाँ का पाशा (सूबेदार) फ्रांस के पक्ष में हो। पाशा एवं टर्की के सुल्तान में झगडा रहता था। इसलिये फ्रांस प्राय: पाशा का साथ देता था। फ्रांस अपने को टर्की में रोमन ईसाइयों का संरक्षक मानता था। अत: अपने व्यापारिक एवं धार्मिक अधिकारों की रक्षा के लिये फ्रांस टर्की मे हस्तक्षेप करना चाहता था।
5- सार्डीनिया पीडमांट
सार्डीनिया पीडमान्ट वर्तमान इटली का एक भाग हैं, लेकीन इटली के एकीकरण से पहले यह एक राजतंत्र था। सार्डीनिया भू-मध्यसागर का दूसरा सबसे बड़ा द्वीप हैं। यह इटली के पश्चिम मे हैं जबकि फ्रांस के द्वीप कोरसिका के दक्षिण मे स्थित हैं। पूर्वी समस्या में सार्डीनिया पीडमांट का कोई हित न था। परन्तु 1854 मे क्रीमिया युद्ध के अवसर पर कावूर ने भी इसमें भाग लिया। केमिल बेंसो कावूर इटली के एकीकरण का प्रमुख नेता था, इसके अलावा कावूर मूल लिबरल पार्टी का संस्थापक था तथा इटली के एकीकरण के बाद वह इटली का पहला प्रधानमंत्री था। क्रीमीया युद्ध मे सार्डीनिया ने फ्रांस, तुर्की, ब्रिटेन के साथ मिलकर रूस के खिलाफ युद्ध किया था।
6- प्रशा
बिस्मार्क प्रारम्भ में पूर्वी समस्या के प्रति उदासीन रहा। परन्तु अन्त में उसकों एक अन्तराष्ट्रीय प्रश्न समझ कर 1878 की बर्लिन कांग्रेस में उसने एक इकाई मानकर दलाल के रूप मे कार्य किया।
टर्की साम्राज्य के विघटन का प्रारम्भ
1- सर्बिया में विद्रोह
1804 में जार्ज कारा के नेतृत्व में सर्ब लोगों में तुर्की के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। सर्ब लोग दीर्घकाल तक संघर्ष करते रहे। 1813 मे तुर्की ने सर्बिया पर पुन: अधिकार कर लिया तथा कारा चार्ज की हत्या कर दी गई। कुछ समय पश्चात सर्ब लोगों ने मिलोश ओब्रोनोविच के नेतृत्व मे पुन: विद्रोह कर दिया। 1817 में मिलोश ओब्रोनोविच के नेतृत्व में सब्रिया ने स्वायत्त शासन प्राप्त कर लिया। 1830 मे तुर्की स्वतंत्रता प्रदान करनी पड़ी। अब वह केवल नाममात्र के लिये टर्की के अधीन रह गया।
सत्यकेतु विद्यालंकार लिखते हैं, ‘ यद्यपि बेलग्रोड तथा अन्य बड़े शहरों में तुर्की सेनाएँ रहती थी, तो भी सर्बियन लोगों को अपनी राष्ट्रीय आकांक्षाओं को पूर्ण करने का उपयुक्त अवसर प्राप्त हो गया और वे स्वाधीनता राष्ट्र के रूप में अपना विकास करने लगे’।
2- यूनान का स्वतंत्रता संग्राम
1821 में यूनानियों ने तुर्की के विरूद्ध अपना स्वतंत्रता संग्राम आरम्भ कर दिया। अप्रैल 1821 में मोरिया में भीषण हत्याकाण्ड हुआ। यूनानियों ने अकेले मोरिया मे ही 25 हजार तुर्को की हत्या कर दी। परन्तु तुर्को ने भी बडी निर्ममता पूर्वक बदला लेना शुरू कर दिया। चीओस नामक स्थान पर 3 हजार यूनानियों का वध कर दिया गया परन्त्ुा तुर्की का सुल्तान पूरी तरह से यूनानियों का दमन नही कर सका। इस पर उसने मिश्र के शक्तिशाली सूबेदार मेहमत अली से सहायता माँगी। उसने पुत्र इब्राहीम को 11 हजार सैनिक और एक शक्तिशाली जहाजी बेड़ा देकर तुर्की के सुल्तान की सहायता के लिये भेजा। इस सेना की सहायता से मोरिया के यूनानी बुरी तरह से पराजित कर दिये। इसी प्रकार तुर्को ने मिसीलांघी, एथेन्स तथा आक्रोपालिश पर अधिकार कर लिया। हजारों यूनानियों को मौत के घाट उतार दिया गया और स्त्रियों तथा बच्चों को दास बना कर बेच दिया गया।
तुर्को के भीषण अत्याचारों ने यूरोपीय राज्यों को क्षुब्ध कर दिया। 1827 में रूस, ब्रिटेन तथा फ्रांस ने लन्दन क संधि की जिसके अनुसार मित्र-राष्ट्रों ने तुर्की साम्राज्य में हस्तक्षेप का निर्णय किया। 20 अक्टूबर 1827 को इंग्लैण्ड फ्रांस एवं रूस के सम्मिलित जहाजी बेड़े ने नेवोलिनों के युद्ध में तुर्की जहाजी बेड़े को पूरी तरह नष्ट कर दिया। परन्तु कैनिंग के पश्चात जब बेलिंगटन इंग्लैण्ड का प्रधानमंत्री बना तो उसने तुर्की के विरूद्ध कार्यवाही करने से इन्कार कर दिया। इसके पश्चात 27 अप्रैल 1828 को रूस ने तुर्की के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। तुर्की सेनाओं को अनेक स्थानों पर पराजित होना पड़ा। अन्त में 14 सितम्बर 1829 को तुर्की को एड्रियोनोपल की संधि करनी पडी जिसके अनुसार तुर्की ने यूनान को स्वायत्त शासन दे दिया।
1830 में ब्रिटेन, फ्रांस व रूस ने मिलकर प्रोटोकोल ऑफ लन्दन पास किया जिसके अनुसार यूनान को स्वतंत्रता दे दी गई और उसकी रक्षा का भार मित्र-राष्ट्रों ने अपने ऊपर ले लिया। 1833 में बेवेरिया का राजकुमार प्रिन्स आटो यूनान का राजा बना दिया गया।
3- मेहमत अली का विद्रोह
मेहमत अली तुर्की के सुल्तान के अधील मिस्त्र का सूबेदार था। उसने यूनान के स्वतंत्रता के युद्ध के समय तुर्की के सुल्तान की बड़ी सहायता की थी, किन्त्ुा उसकी सेवाओं के बदले में उसे क्रीट का द्वीप दिया गया, जिससे मेहमत अली सन्तुष्ट नही हो सका। वह सीरिया पर अधिकार करना चाहता था। फलत: उसने विद्रोह कर दिया। नवम्बर 1831 मे उसने अपने पुत्र इब्राहीम पाशा को फिलस्तीन पर आक्रमण करने को भेज दिया। इब्राहीम ने कुछ ही महीनों मे अकरा और दमश्क पर अधिकार कर लिया। इब्राहीम के आक्रमण से तुर्की का सुल्तान महमूद द्वितीय अत्यधिक चिन्तित हुआ और उसने अपने सेनापति हुसैन पाशा को मेहमत अली के विरूद्ध भेजा परन्त्ुा हुसैन पाशा बुरी तरह पराजित हुआ। तत्पश्चात सुल्तान ने अपने दूसरे सूनापति रशीद पाशा को मेहमत अली का दमन करने के लिये भेजा परन्तु रशीद पाशा को भी पराजय का मुँह देखना पड़ा।
1832 मे तुर्की के सुल्तान ने यूरोपीय राज्यों से सहायता माँगी किन्तु रूस को छोडकर अन्य कोई राज्य सहायता के लिये तैयार नहीं था। अन्त मे विविश होकर सुल्तान को रूस की सहायता स्वीकार करनी पडी। फरवरी 1833 में रूसी जहाजी बेडे ने कुस्तुन्तुनिया के सामने लंगर डाला। रूसी सेना के आगमन से इंग्लैण्ड और फ्रांस बड़े चिन्तित हुए और दोनों पक्षों पर युद्ध विराम के लिये दबाव लगे। अत: 8 अप्रैल 1833 को एक विरम-संधि हो गई। इसके अनुसार तुर्की के सुल्तान ने सीरिया दमश्क, अलेप्पों एवं अदन के बन्दरगाह पर मेहमत अली का अधिकार मान लिया।
4- लन्दन की द्वितीय संधि
जुलाई 1841 में एक दूसरी संधि की गई जिसमें इंग्ल्ैाण्ड, रूस, आस्ट्रिया, प्रशा और फ्रांस सम्मिलित हुए। लन्दन के समझौते के बाद दस वर्षो तक तुर्को के साम्राज्य में शांति रही।
क्रीमिया के युद्ध के कारण
1841 से 1852 तक टर्की साम्राज्य में शांति बनी रही और टर्की के सुल्तान को अपने साम्राज्य की दशा सुधारने का पर्याप्त अवसर मिला परन्त्ुा रूढि़वादी मौलवियों और उलेमाओं के कारण सुधारवादी योजनायें सफल नहीं हो सकी और शासनतंत्र शिथिल और भ्रष्टाचार पूर्ण बना रहा। अत: टर्की साम्राज्य में रहने वाले ईसाइयों में तीव्र असन्तोंष बना रहा। 1854 में पूर्वी समस्या से सम्बंधित क्रीमिया युद्ध शुरू हो गया।
क्रीमिया युद्ध के निम्न कारण
1- रूस की महत्वाकांक्षा
रूस टर्की-साम्राज्य में अपने प्रभाव का विस्तार करना चाहता था। वह बास्फोरस एवं डार्डेनलीज के जलडमरू मध्यों पर अधिकार करना चाहता था। यह उद्देश्य टर्की-साम्राज्य के विघटन से ही प्राप्त किया जा सकता था। अत: रूस ने टर्की-साम्राज्य के विघटन की योजनाएँ बनाना शुरू कर दिया। रूस के जार निकोलस ने अपनी इंग्लैण्ड यात्रा के मध्य 1844 में टर्की के विभाजन का प्रस्ताव ब्रिटिश प्रधानमंत्री एबर्डीन के सम्मुख रखा परन्तु इंग्लैण्ड ने उन पर कोई ध्यान नहीं दिया। 1853 में रूसी सम्राट निकोलस ने इंग्लैण्ड के राजदूत सर हेमिल्टन सेमूर से बातचीत करते हुए कहा, ‘तुर्की की स्थिति चिन्ताजनक है। यह राज्य के छिन-भिन्न होने जा रहे हैं अर्थात हमारे सामने एक मरणासन्न रोगी है। अत: यह आवश्यक है कि बीमार आदमी की मृत्यु के पहले ही उसकी सम्पत्ति का बँटवारा कर लिया जाय। परन्तु इंग्लैण्ड की सरकार तुर्की-साम्राज्य की विघटन नहीं चाहती थी। अत: उसने रूस के जार के प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया। परिणामस्वरूप रूस ने अकेले ही तुर्की-साम्राज्य में हस्तक्षेप करने का निश्चय कर लिया।
2- पवित्र तीर्थ स्थानों की समस्या
तुर्की साम्राज्य के अन्तर्गत फिलीस्तीन में स्थित जेरूस्लम के पवित्र तीर्थ स्थानों में शताब्दियों से यूनानी सन्यासी और कैथोलिक सन्यासी रहते थे। तुर्की के प्रसिद्ध सम्राट सुलेमान ने पवित्र तीर्थ स्थानों के संरक्षण और देखभाल का काम था। परन्त्ुा 1789 के पश्चात फ्रांस ने पवित्र स्थानों के मामलों के रूचि लेना बन्द कर दिया और कैथोलिक सन्यासी भी अपने कर्त्तव्यों ही अवहेलना करने लगे। परिणामस्वरूप पवित्र स्थानों पर यूनानी सन्यासियों का अधिकार हो गया। रूस यूनानी सन्यासियों का संरक्षक माना जाता था। 1850 में फ्रांस के राष्ट्रपति लुई नेपोलियन ने टर्की के सुल्तान से अनुरोध किया कि फ्रांस को रोमन निवासियों का संरक्षक माना जाए। परन्तु रूस ने इसका घोर विरोध किया और यूनानी सन्यासियों के अधिकारों को यथावत बनाये रखने के लिये टर्की के सुल्तान पर दबाव डाला। जब टर्की सुल्तान ने फ्रांस की माँग स्वीकार कर ली तो रूस बड़ा नाराज हुआ। मार्च 1853 मे जार निकोलस ने प्रिन्स मेनाशिकाफ नामक दूत को टर्की भेजा। उसने टर्की के सुल्तान से माँग की कि टर्की साम्राज्य के समस्त यूनानी चर्च के मानने वाले ईसाइयों पर रूस की माँग को मानने से इन्कार कर दिया। जिससे रूस और टर्की के बीच शत्रुता बढ़ती चली गई।
3- फ्रांस का रूस विरोधी दृष्टिकोण
फ्रांस का नेपोलियन तृतीय महत्वाकांक्षी व्यकित था। वह अन्तराष्ट्रीय क्षेत्र में गौरव प्राप्त करने के लिये उत्सुक रहता था। इसके अतिरिक्त वह रूस को पराजित कर नेपोलियन महान् की मास्कों पराजय का बदला भी लेना चाहता था। अत: उसने पवित्र स्थानों के संरक्षण के मामले पर रूस को चुनौती दी जिससे फ्रांस और रूस के बीच तनाव बढ़ा। इतिहासकार किंगलेक ने नेपोलियन तृतीय को ही मूल रूप से युद्ध के लिये उत्तरदायी ठहराया है। उसके मतानुसार नेपोलियन तृतीय ने अपनी स्थिति को सुदृढ़ बनाने के उद्देश्य से तथा फ्रांस की जनता की गौरव की भावना को सन्तुष्ट करने के लिये पवित्र स्थानों के विषय में रूस से विवाद बढ़ाया और इंग्लैण्ड को भुलावा देकर अपना सहयोगी बना लिया।
4- इंग्लैण्ड का दृष्टिकोण
इंग्लैण्ड टर्की साम्राज्य का विघटन नहीं चाहता था। वह टर्की-साम्राज्य में रूस का प्रभाव सहन नही कर सकता था। रसेल ने कहा था, ‘यदि हम रूसियों को डैन्यूब में नहीं रोकेगें तो उन्हें हमें सिन्धु नदी में रोकना पड़ेगा’। वास्तव में इंग्लैण्ड का मुख्य उद्देश्य यूरोप में रूस के बढते हुए प्रभाव को रोकना था जिससे यूरोप का शक्ति सन्तुलन पूर्ववत बना रहे। कुछ इतिहासकारों के अनुसार टर्की स्थिति ब्रिटश राजदूत लार्ड स्टेट फोर्ड द रेडक्लिफ भी क्रीमिया युद्ध को भडकाने के लिये उत्तरदायी था। वह रूस का कट्टर विरोधी था। उसके भड़काने पर टर्की सुल्तान पर टर्की सुल्तान ने रूस के ईसाइयों पर संरक्षण की माँग को अस्वीकार कर दिया था।
5- तुर्की में उग्र राष्ट्रीयता
प्रो.अगाथा रेम- के अनुसार क्रीमिया युद्ध का मूल कारण यह था कि उस समय तुर्की में राष्ट्रीयता की भावना ने उग्र रूप धारण कर लिया। तुर्की के राष्ट्रवादी सैनिक अधिकारियों की दृष्टि से रूस की माँगे न केवल अपमानजनक थी वरन् तुर्की के साम्राज्य की सुदृढ़ता के लिये घातक भी थी। अत: वे इन माँगों को स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं थे और रूस का सशस्त्र विरोध करने को तैयार थे।
6- तुर्की साम्राज्य में रूसी सेनाओं का आदेश
जब टर्की के सुल्तान ने रूस की माँगों को अस्वीकृत कर दिया तो रूस बड़ा क्रोधित हुआ। 21 जुलाई 1853 को रूसी सेनाओं ने टर्की के प्रान्तों मोल्डविया तथा वालेशिया पर अधिकार कर लिया। रूस की सैनिक कार्यवाही से स्थिति अत्यन्त जटिल हो गई। इंग्लैण्ड और फ्रांस ने रूस की आक्रामक नीति कर घोर विरोध किया और रूसी कार्यवाही का विरोध करने के लिये परस्पर विचार-विमर्श करना शुरू कर दिया।
7- वियना नोट
जुलाई 1853 में इंग्लैण्ड फ्रांस, आस्ट्रिया और प्रशा ने रूस और टर्की के विचार को हल करने के लिये वियेना में एक सम्मेलन किया। चारों राज्यों के प्रतिनिधियों ने मिलकर एक नोट तैयार किया जिसे वियेना नोट कहते हैं। इस नोट के अनुसार यह कहा गया है कि पवित्र स्थानों का संरक्षण आवश्यक है। यह संरक्षण किसके द्वारा होगा यह स्पष्ट नही था। रूस के सम्राट निकोलस ने समझा कि यह संरक्षण रूस करेगा। टर्की के सुल्तान ने समझा कि संरक्षण का कार्य तुर्की करेगा। रूस ने इस नोट को स्वीकार कर लिया। परन्त्ुा ब्रिटिश राजदूत रेडकिल्फ के प्रोत्साहन पर टर्की के सुल्तान ने नोट को अस्वीकार कर दिया। इससे रूस और टर्की का विवाद बढ़़ता ही गया।
8- टर्की द्वारा युद्ध घोषणा
5 अक्टूबर 1853 को टर्की ने रूस से यह माँग की कि वह वालेशिया तथा माल्डेविया के प्रदेशों को 12 दिन के अन्दर खाली कर दे। परन्तु रूस ने टर्की की माँग को अस्वीकार कर दिया। ब्रिटिश राजदूत रेडकिल्फ के प्रोत्साहन पर 23 अक्टूबर 1853 को टर्की ने रूस के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
9- साइनोप का हत्याकाण्ड
जब तुर्की ने डैन्यूब नदी पर जहाजों बेड़े पर आक्रमण कर दिया ता रूस के जहाजी बेड़े ने साइनोप की खाड़ी में स्थित तुर्की के जहाजी बेड़े को नष्ट कर दिया और तुर्की का नर-संहार किया। इस घटना को साइनोप का हत्याकाण्ड कहा गया है। इस घटना के पश्चात इंग्लैण्ड तथा फ्रांस नेभी रूस का विरोध करने का निश्चय कर लिया। 4 जनवरी 1854 को इंग्लैण्ड तथा फ्रांस के जहाजी बेड़े काले सागर में प्रविष्ट हुए। उन्होनें रूस को चेतावनी दी कि यदि उसने अपनी सेनायें वालेशिया तथा मोल्डेनिया से नहीं हटायीं तो वे भी युद्ध मे कूद पड़ेगे। जब रूस ने इस चेतावनी को अस्वीकार कर दिया तो 28 मार्च 1854 को इंग्लैण्ड और फ्रांस ने रूस के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। अब एक और तो इंग्लैण्ड फ्रांस और टर्की और दूसरी ओर अकेला रूस।
क्रिमिया युद्ध की घटनायें
मार्च 1854 के अन्त में रूसी सेनाओं ने डैन्यूब नदी को पार करके सिलिस्ट्रिया पर घेरा डाला किन्तु तुर्को के प्रबल विरोध के कारण उसे अधिक सफलता नहीं मिली। इंग्लैण्ड तथा फ्रांस के दबाव डालने पर रूस ने मोल्डेविया तथा वालेशिया के प्रदेश खाली कर दिए परन्तु मित्र राष्ट्र इससे सन्तुष्ट नहीं हुए। वे रूस को नीचा दिखाना चाहते थे। जुलाई 1854 में मित्र राष्ट्रों ने युद्ध को समाप्त करने के लिये चार माँगे रखी परन्तु रूस ने इन्हें अस्वीकृत कर दिया। अत: 14 सितम्बर 1854 को मित्र राष्ट्रों की सेनायें लार्ड रगनल तथा सेण्ट अर्नोय के अधीन आगे बढ़ी। एल्मा और बेल्कालावा के युद्धों मे मित्र राष्ट्रों की विजय हुई। 5 नवम्बर 1854 को रूसी सेनाओं ने इन्करमैन पर आक्रमण करके मित्र राष्ट्रों के घेरे को तोडना चाहा परन्तु वे सफल नहीं हो सके। मार्च 1855 में रूसी सम्राट निकोलस की मृत्यु को गई परन्तु रूसी सेनाओं ने युद्ध जारी रखा। मित्र राष्ट्रों ने शीघ्र ही मालाकाफ पर अधिकार कर लिया जिससे सेबास्टपोल की रक्षा करना असम्भव हो गया। अत: 9 सितम्बर 1855 को रूसियों ने अपने गोला-बारूद के भण्डारों मे आग लगा दी और बास्टपोल के दुर्ग को छोडकर पीछे हट गए। इस प्रकार 349 दिन के घेरे के बाद मित्र राष्ट्रों ने सेबास्टपोल पर अधिकार कर लिया। अंत में रूस मित्र राष्ट्रों से संधि के लिये तैसार हो गए।
पेरिस की संधि
25 फरवरी 1856 को इंग्लैण्ड, फ्रांस, रूस, आस्ट्रिया, टर्की और सार्डीनिया प्रतिनिधि संधि की शर्तो पर विचार करने के लिये पेरिस मे एकत्रित हुआ। 30 मार्च 1856 को सभी देशों ने संधि पर हस्ताक्षर कर दिये।
संधि की प्रमुख धारायें-
- तुर्की यूरोप की संयुक्त-व्यवस्था में सम्मिलित कर लिया गया एवं सभी राज्यों ने उसकी स्वतंत्रता एवं प्रादेशिक अखण्डता को सुरक्षित रखने का वचन दिया।
- तुर्की के सुल्तान ने वचन दिया कि वह ईसाई प्रजा के साथ उदारता का व्यवहार करेगा तथा उनकी दशा सुधारने का प्रयास करेगा।
- काले सागर का तटस्थीकरण कर दिया गया। सभी राज्यों के व्यापारी जहाजों को काले सागर में आने-जाने का अधिकार दिया गया। किन्तु किसी भी राष्ट्र के युद्ध पोतों को काले सागर में प्रवेश निषिद्ध कर दिया गया। काले सागर तट पर रूस अथवा तुर्की किसी को भी शस्त्रागार स्थापित करने की मनाही कर दी गयी।
- मोल्डिेविया तथा वालेशिया पर रूस का संरक्षण समाप्त हो गया। दक्षिणी बेसराजिया का भाग रूस से लेकर मोल्डिेविया से सम्मिलित कर दिया गया। इस दोनों प्रदेशों पर तुर्की की प्रभुता बनी रही किन्तु सभी राज्यों ने उसके विशेषाधिकारों की गारण्टी दी।
- यूरोपीय राज्यों ने सर्बिया की स्वतंत्रता की गारण्टी दी।
- कार्स का प्रदेश तुर्की को लौट दिया गया।
- क्रीमिया रूस को लौटा दिया गया। 8. डैन्यूब नदी में सभी राज्यों को समान रूप से व्यवहार करने का अधिकार दिया गया।
क्रिमिया युद्ध समाप्त होने के बाद उपसंधियाँ
- 6 योरोपीय राज्यों और तुर्की के बीच एक उपसंधि द्वारा यह तय किया गया था कि डार्डनेलीज तथा बास्फोरस के जलडमरू के मध्य मे किसी भी राज्य के युद्धपोत उस समय तक प्रवेश नही कर सकेगें जब तक कि तुर्की युद्ध में संलग्न न हो जाये।
- दूसरी उपलब्धि तुर्की और रूस के बीच हुई जिसमें दोनों राज्यों के काले सागर में अपने तटों की रक्षा के लिये आवश्यक छोटे जंगी जहाजों की संख्या निर्धारित की।
- तीसरी उपसंधि इंग्लैण्ड और रूस के बीच हुई औरउसका सम्बंध बाल्टिक सागर में स्थित आलैण्ड द्वीपों से था।
पेरिस का घोषणा पत्र
पेरिस सम्मेलन में भाग लेने वाले राष्ट्रों ने पेरिस के घोषणा-पत्र को भी स्वीकार किया और पेरिस की संधि में परिशिष्ट के रूप में जोड़ा गया। इस घोषणा द्वारा समुद्रों में शत्रुपोत लुण्डन बंद कर दिया गया। इसके साथ ही समुद्री युद्ध के समय में तटस्थ राज्यों के अधिकारों के विषय मे कुछ स्थायी नियम स्वीकार किए गए। एक तटस्थ जहाज पर लदा हुआ शत्रु देश का माल उस समय तक जब्त नही किया जा सकता जब तक कि वह युद्ध के निषिद्ध माल की श्रेणी में न आता हो। शत्रु राज्य के जहाजों पर लदे हुए तटस्थ राष्ट्र के सामान को भी जब्त नही किया जा सकता था। अवरोध उसी समय लगाये जा सकते थे। जबकि उसकों कार्यान्वित करने के लिये पर्याप्त नाविक शक्ति हो।
क्रीमिया युद्ध के परिणाम या प्रभाव
क्रीमिया युद्ध यूरोप के इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है। डेबिट टामसन के अनुसार, ‘आधुनिक यूरोप के विकास में क्रीमिया का युद्ध का एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल है’ लार्ड क्रोमर का कथन है ‘यदि क्रीमिया का युद्ध न होता और उसके बाद लार्ड बीकन्सफील्ड उसी नीति का अनुसरण नहीं करते तो बाल्कन राज्य कभी भी स्वतंत्र नहीं हो सकते थे और कुस्तुन्तुनिया पर रूस का अधिकार हो जाता’। क्रीमिया युद्ध के निम्नलिखित परिणाम या प्रभाव हुए-
1- धन-जन की अपार हानि
यह युद्ध बड़ा विनाशकारी सिद्ध हुआ। युद्ध में दोनों के लगभग 5 लाख सैनिक मारे गये। इसके अतिरिक्त युद्ध में भाग लेने वाले अनेक राज्यों की अर्थ व्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ा। तुर्की की अर्थ व्यवस्था लड़खडा गई और उसका राष्ट्रीय कर्ज बढ़ता चला गया। इंग्ल्ैाण्ड पर राष्ट्रीय ऋण लगभग 420 लाख पौण्ड बढ़ गया।
2- तुर्की पर प्रभाव
तुर्की के साम्राज्य को इस युद्ध के कारण नवजीवन मिला। यूरोपीय राज्यों ने उसकी स्वतंत्रता प्रादेशिक अखण्डता को सुरक्षित रखने की गारण्टी दी। कुछ समय के लिये टर्की का विघटन रूक गया।
3- रूस पर प्रभाव
क्रीमिया के युद्ध में पराजित होने के कारण रूस को अनेक अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र मे अपमानित होना पड़ा। उसे तुर्की साम्राज्य में प्राप्त अनेक विशेषाधिकारों से वंचित होना पड़ा। काले सागर को तटस्थ बना दिये जाने से उसकी शक्ति को प्रबल आघात पहुँचा।
इसके अतिरिक्त रूस की आन्तरिक और विदेश नीति में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इस युद्ध के दौरान आस्ट्रिया ने रूस के साथ जो शत्रुतापूर्ण व्यवहार किया उससे रूस और आस्ट्रिया की मैत्री भी समाप्त हो गई। इसके पश्चात रूस ने कई वर्षो तक यूरोप की राजनीति में सक्रिय भाग नहीं लिया।
क्रीमिया के युद्ध की हार ने रूस को निरंकुश शासनतंत्र की दुर्बलता और अयोग्यता प्रकट कर दी अत: रूस में चारों ओर सुधारों की माँग होने लगी। फलत: जार एलेक्जेण्डर द्वितीय को शासन में अनेक सुधार करने पड़े।
4- इंग्लैण्ड पर प्रभाव
इस युद्ध में इंग्लैण्ड के 32 हजार सैनिक मारे गये 8 करोड़ पौड़ खर्च हुए परन्तु इसके बदले में न तो एक इन्च भूमि मिली और न युद्ध के हर्जाने के रूप में एक पैसा मिला। परन्तु इंग्लैण्ड ने जिस उद्देश्य से यह युद्ध प्रारम्भ किया वह पूरा हो गया उसके कारण तुर्की साम्राज्य की स्वतंत्रता और अखण्डता की रक्षा हो गई तथा तुर्की में रूस की बढ़ती हुई महत्वाकांक्षा पर अंकुश लग गया।
ब्रिटेन की आन्तरिक नीति पर क्रीमियन युद्ध का प्रभाव पड़ा। युद्ध का खर्च पूरा करने के लिये अतिरिक्त कर लगाये गये और राष्ट्रीय कर्ज मे 4 करोड़ 20 लाख पौंड़ की वृद्धि हो गई। अतिरिक्त आर्थिक बोझ के कारण ग्लैडस्टन की सुधार योजनायें कार्यान्वित नही की जा सकी।
5- फ्रांस पर प्रभाव
पेरिस की संधि के सम्राट नेपोलियन तृतीय की व्यक्तिगत विजय थी। उसकी विजय के कारण यूरोप में फ्रांस की प्रतिष्ठा बढ़ी और पैरिस कुछ समय के लिये यूरोपीय राजनीति का केन्द्र बन गया। फ्रांस के राष्ट्रीय गौरव की भावना को भी सन्तोष मिला।
6- इटली पर प्रभाव
क्रीमिया के युद्ध में सार्डीनिया-पीडमांट के प्रधानमंत्री काबूर ने मित्रराष्ट्रों की ओर से भाग लिया और अपने 15 हजार से अधिक सैनिक रूस के विरूद्ध भेजे। अत: पेरिस सम्मेलन में काबूर को आमंत्रित किया गया जहाँ इंग्लैण्ड और फ्रांस ने उसे इटली के एकीकरण में यथाशक्ति सहायता देने का आश्वासन दिया। अत: यहठीक कहा गया है कि ‘क्रीमिया के दलदल में इटली रूपी कमल का उदय हुआ’।
7- जर्मनी पर प्रभाव
जर्मनी के एकीकरण में भी क्रीमिया का युद्ध अप्रत्यक्ष रूप से सहायक सिद्ध हुआ। युद्ध काल में प्रशा की तटस्था और सहानुभूतिपूर्ण नीति के कारण रूस का झुकाव प्रशा की ओर हो गया। अत: 1866 मे आस्ट्रिया की पराजय के फलस्वरूप उत्तरी जर्मन संघ का निर्माण हुआ और जर्मन के एकीकरण का मार्ग प्रशस्त हो गया। सीमैन का कथन है, ‘क्रीमिया के युद्ध से बिस्मार्क और काबूर को बहुत लाभ हुआ अन्यथा न इटली राज्य बनता और न ही जर्मनी का साम्राज्य’।
8- आस्ट्रिया पर प्रभाव
युद्ध-काल में आस्ट्रिया ने रूस विरोधी दृष्टिकोण अपनाया था। अत: रूस और आस्ट्रिया के बीच शत्रुता बढ़ गई।
9- वियना व्यवस्था का अन्त
इस युद्ध में वियना मे की गई यूरोपीय व्यवस्था (1815) का अन्त कर दिया। इस युद्ध में मेटरनिख युग की भी समाप्ति कर दी। सीमैन के अनुसार मेटरनिख ने यूरोप में जो व्यवस्था की थी वह इस युग के पश्चात छिन्न-भिन्न हो गई।
10- युद्ध कला का विकास
इस युद्ध के फलस्वरूप युद्ध कला का विकास हुआ। सैनिकों को प्रशिक्षण देने की व्यवस्था की गई। युद्ध व्यय को कम करने के लिये स्वयं सेवकों की व्यवस्था की गई।
11- चिकित्सा पद्धति में परिवर्तन
इस युद्ध के पश्चात चिकित्सा पद्धति में एक नये युग का प्रारम्भ हुआ। इस सम्बंध में फ्लोरेन्स नाइटिंगेल का नाम सराहनीय है। उसने स्कूटरी के अस्पताल में घायल सैनिकों की बहुत सेवा की। रेडक्रास सोसायटी तथा आर्मी एम्बुलेन्स कोर की विशेष उन्नति हुई।
क्रिमिया युद्ध का विश्लेषण
प्रो.बी.एन.मेहता का कथन है ‘क्रीमिया का युद्ध सामान्य अर्थ में यूरोपीय इतिहास में एक युगान्तकारी युद्ध था। रूस में तो इससे प्रतिक्रिया के युग का अन्त और सुधार युग का आरम्भ हुआ ही, यूरोप मे अन्यत्र भी इस युद्ध के बाद नये युग का आरम्भ हुआ। वास्तव में प्रतिक्रिया के युग का अन्त पेरिस की संधि के साथ माना जाना चाहिए। क्योंकि इसी समय प्रतिक्रिया के प्रधान समर्थकों में फूट उत्पन्न हुई और उसके फलस्वरूप इटली तथा जर्मनी दोनों जगहों से आस्ट्रिया का बहिष्कार सम्भव हो सका। राष्ट्रीयता एवं उदारवाद को सफलता प्राप्त हो सकी और वियेना की प्रतिक्रियावादी व्यवस्था समाप्त हो सकी। इसके बाद की बाल्कन प्रायद्वीप में राष्ट्रीयता ने जोर पकड़ा और पेरिस की संधि के बाद 6 वर्ष के अन्दर ही मोल्डेविया तथा वालेशिया के प्रदेशों ने सयुक्त होकर रूमानिया का निर्माण कर लिया’।
क्या क्रीमिया का युद्ध 19वीं शताब्दी का अर्थहीन युद्ध था-
कुछ इतिहासकारों के अनुसार क्रीमिया का युद्ध 19 वीं शताब्दी का सबसे अर्थ (अर्थहीन) युद्ध था। सर राबर्ट रोमियर का कथन है। क्रीमिया का युद्ध आधुनिक युग का अत्यन्त व्यर्थ युद्ध था। विद्वानों के अनुसार यह युद्ध निम्नलिखित कारणों से न्याय संगत नहीं था-
- इस युद्ध का उद्देश्य रूस की शक्ति को समाप्त करना था बहुत शीघ्र ही पेरिस की संधि को तोड़ दिया गया। इससे यूरोप की स्थायी शांति प्राप्त नहीं हुई। आगामी 20 वर्षो में ही पेरिस की संधि को धारायें भंग हो गई। रूस ने 1870-71 के काले सागर सम्बंधी धाराओं का उल्लंघन करते हुए काले सागर में अपने युद्धपोत उतार दिये। 1878 में बेसराबिया पर भी रूस का अधिकार मान लिया गया। इस प्रकार क्रीमिया का युद्ध के बावजूद भी पूर्वी समस्या हल नहीं हुई।
- क्रीमिया युद्ध में अपार धन-जन की हानि हुई। इसके बावजूद भी युद्ध से कोई विशेष लाभ नहीं हुआ। तुर्की साम्राज्य की दशा में कोई सुधार न हो सका और न ही उसका विघटन रोका जा सका।
- टर्की के सुल्तान ने अपनी इसाई प्रजा की दशा सुधारने के लिये प्रयत्न नही किया जिससे साम्राज्य के ईसाइयों का असन्तोष बढता गया।
- 1857 में सर्बिया ने तुर्की सेनाओं को अपने किलों से निकाल दिया और प्राय: अपनी पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त कर ली। इससे तुर्की साम्राज्य का और भी अधिक विघटन हुआ।
- फ्रांस को भी युद्ध में जन-धन की अपार क्षति उठानी पडी, परन्तु उसे भी कुछ न मिला। वह इसाई प्रजा एवं धार्मिक स्थानों पर अपने संरक्षण के अधिकारों को प्राप्त न कर सका।
- धार्मिक स्थानों की संरक्षता के प्रश्न को लेकर इतना भयंकर युद्ध लड़ना तथा भारी नर-संहार करना एक भंयकर भूल थी।
- पेरिस की संधि की धारायें चिरस्थायी न हो सकी। 1859 मे मोल्डेविया और वालेशिया का एकीकरण हो गया। 1870 में बल्गारिया व रूस ने काले सागर पर जहाजी बेड़ा रखना और दुर्गीकरण करना आरम्भ कर दिया।
क्रिमिया युद्ध का निष्कर्ष
इस प्रकार क्रीमिया का युद्ध आधुनिक समय का सबसे बेकार युद्ध था। मेरियट के अनुसार यदि यह युद्ध एक बडी गलती न था तो एक अपराध अवश्य था। इससे बचना चाहिए था तथा बचा भा जा सकता था। सेटनवाट्स के अनुसार, ‘यदि जनता के अज्ञानपूर्ण आग्रह से कोई युद्ध हुआ तो वह क्रीमिया का युद्ध था’। केटलबी के अनुसार, ‘क्रीमियन युद्ध घटना के रूप मे मामूली स्वरूप में अगौरपूर्ण तथा उद्देश्य की पूर्ति की दृष्टि से व्यर्थ था’।
क्रीमिया युद्ध का महत्व
डॉ. वी. सी. पाण्डेय का कथन है, ‘ इस प्रकार क्रीमिया का युद्ध आधुनिक समय का सबसे बेकार युद्ध था, परंतु फिर भी अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में इसका पर्याप्त प्रभाव पड़ा। इटली और जर्मनी के एकीकरण को बहुत कुछ सहायता मिली। फ्रांस का अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र प्रभाव में बहुत बढ़ गया। कुछ दिन के लिये बाल्कन क्षेत्र में रूस की प्रगति रूक गई’।
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