चन्द्रगुप्त मौर्य का संक्षिप्त विवरण,     चन्द्रगुप्त की विजय तथा साम्राज्य विस्तार,     चन्द्रगुप्त का राज्य विस्तार- चन्द्रगुप्त के कुछ प्रान्तों को छोड़कर समस्त भारत पर,     चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन प्रबन्ध,

चन्द्रगुप्त मौर्य का संक्षिप्त विवरण और चन्द्रगुप्त की विजय तथा साम्राज्य विस्तार

चन्द्रगुप्त मौर्य का संक्षिप्त विवरण

संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य था। उसका जन्म 345 ई. पूर्व में मोरिस या मौर्य वंश के क्षत्रिय कुल में हुआ था। यह वंश उ.प्र. के पिप्पलनावा में शासन करता था। चन्द्रगुप्त का पालन-पोषण पहले ग्वाले फिर एक शिकारी ने किया। खेलते समय चाणक्य की दृष्टि उस पर पड़ी। वह उससे प्रभावित हुआ तथा उसे तक्षशिला ले आया। उसे 8 वर्ष तक शिक्षा दी। चाणक्य ने ग्रीक आक्रमणों से देश की सुरक्षा करने का निश्चय किया था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने चन्द्रगुप्त मौर्य को चुना। यह माना जाता है कि चन्द्रगुप्त सिकन्दर से मिला था तथा चन्द्रगुप्त की स्पष्टवादिता से प्रसन्न होकर सिकन्दर ने उसके वध का आदेश दे दिया था, परन्तु वह वहाँ से भाग गया। आने के बाद चन्द्रगुप्त ने चाणक्य की सहायता से पंजाब के गणतन्त्रीय राज्यों की युद्ध प्रियजातियों में से सैनिकों की भरती की। उसके यूनानियों को बाहर निकालने का मुख्य मकसद बनाया, जिसमें अन्त में वह सफल भी रहा। इस कार्य में उसे पहाड़ी शासक से काफी मदद मिली थी। उसके इस कार्य में भारतीय क्षत्रियों के विद्रोह यूनानियों के विरुद्ध 322 ई. पूर्व यूनानी उ. सिन्ध के प्रान्त पति फिलिप की हत्या तथा 323 ई. पूर्व में सिकन्दर की मृत्यु ने काफी सहायता की। 371 ई. पूर्व में अन्तिम यूनानी प्रान्तपति भी भारत छोड़कर चला गया। इस प्रकार सम्पूर्ण सिन्ध तथा पंजाब पर चन्द्रगुप्त ने अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने मगध जीतने की योजना बनायी। अन्त में षड्यन्त्रों के द्वारा घनानन्द को परास्त कर मगध पर उसने अधिकार कर लिया। चन्द्रगुप्त ने मगध को जीतकर पाटलीपुत्र को अपनी राजधानी बनाया। घनानन्द की अयोग्यता, नागरिकों में अप्रियता, चाणक्य की कूटनीति तथा चन्द्रगुप्त का रण कौशल नन्द वंश के पतन का कारण बनी।

चन्द्रगुप्त की विजय तथा साम्राज्य विस्तार

सैल्यूकस से युद्ध – जिस समय चन्द्रगुप्त मगध का राज्य विस्तार करने में व्यस्त था, उसी समय पश्चिम में एशिया में सिकन्दर का सेनापति सेल्यूकस भारत पर आक्रमण करने की योजना बना रहा था। सेल्यूकस भी सिकन्दर का अनुकरण करना चाहता था। इसी के कारण उससे सिन्ध के इस पार के प्रान्तों पर यूनानी सत्ता कायम करने का प्रयत्न किया, किन्तु इस समय तक भारत की राजनीतिक स्थिति परिवर्तित हो गयी थी। इस समय पंजाब तथा सिन्धु भारत साम्राज्य के शक्तिशाली अंग थे। 305 ई. पूर्व सेल्यूकस सिन्ध नदी के तट पर पहुँचा। सेल्यूकस तथा चन्द्रगुप्त के मध्य युद्ध का विवरण प्राप्त नहीं होता है। इसके बारे में भी यूनानी लेखकों ने कुछ नहीं लिखा कि इस युद्ध में कौन हारा तथा कौन जीता, परन्तु इन दोनों राजाओं मध्य जो सन्धि हुई, उससे अनुमान लगाया जा सकता है कि इस युद्ध में अवश्य ही चन्द्रगुप्त विजयी हुआ होगा। इस सन्धि के अनुसार सेल्यूकस ने उत्तर-पूर्व में वे सभी क्षेत्र जिनकी राजधानियाँ हिरात, कांधार, काबुल थी, को चन्द्रगुप्त को दे दिया। सम्भवतः चन्द्रगुप्त मौर्य को बलूचिस्तान भी प्राप्त हुआ। यह प्रश्न है कि चन्द्रगुप्त तथा सेल्यूकस के मध्य विवाद सम्बन्ध स्थापित हुए या नहीं स्पष्ट नहीं है। चन्द्रगुप्त ने सेल्यूकस को 500 हाथी भेंट किये। सेल्यूकस ने भी चन्द्रगुप्त के दरबार में अपने दूत मैंगस्थनीज को भारत भेजा था। इस युद्ध के पश्चात् सदैव ही चन्द्रगुप्त तथा सेल्यूकस के मध्य बहुत अच्छे सम्बन्ध रहे।

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पश्चिम भारत की विजय-रुद्र-दामन के जूनागढ़ अभिलेख में सौराष्ट्र प्रान्त में चन्द्रगुप्त के गवर्नर के रूप में पुण्य गुप्त की नियुक्ति का उल्लेख है। डॉ. राय चौधरी का मत है कि चन्द्रगुप्त ने पश्चिमी भारत के सौराष्ट्र प्रदेश तक अपनी सीमा का विस्तार किया। था। यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि भारत के पश्चिमी प्रदेशों पर चन्द्रगुप्त ने आक्रमण द्वारा अधिकार प्राप्त किया अथवा वे पहले से ही नन्द वंश के अधीन थे।

दक्षिण भारत की विजय-दक्षिण की विजय के सम्बन्ध में विद्वानों में काफी मतभेद है। कुछ विद्वानों के अनुसार चन्द्रगुप्त ने दक्षिणी भारत को जीतकर अपने अधिकार में कर लिया था, परन्तु अन्य विद्वानों के अनुसार बिन्दुसार ने सर्वप्रथम दक्षिण भारत पर विजय प्राप्त की थी। आधुनिक विद्वानों के अनुसार दक्षिण विजय का कार्य चन्द्रगुप्त मौर्य ने सम्पादित किया था।

चन्द्रगुप्त का राज्य विस्तार- चन्द्रगुप्त के कुछ प्रान्तों को छोड़कर समस्त भारत पर

अधिकार कर लिया। उनका राज्य विस्तार हिन्दू-कुश पर्वत से बंगाल की खाड़ी तक और दक्षिण के कृष्णा नदी के दक्षिण का भाग शामिल था। इस राज्य में अफगानिस्तान, बिलोचिस्तान, पंजाब, सिन्ध, काश्मीर, नेपाल, दोआब का प्रदेश, मगध, बंगाल, अवन्ति प्रदेश (मालवा), सौराष्ट्र तथा दक्षिण भारत में मैसूर तक के प्रदेश थे। यह सब उसकी सैनिक प्रतिभा अपार शक्ति तथा निरन्तर विजयों का परिणाम था।

चन्द्रगुप्त के अन्तिम दिन लम्बे समय तक उसने राज्य किया। ऐसा प्रतीत होता है कि उसने जैन धर्म स्वीकार कर लिया था। इस प्रकार उसका राज्य काल ई. पूर्व 322 ई. पूर्व 288 तक यानि 24 वर्ष रहा। 24 वर्ष तक राज्य का वैभव का उपयोग करने पर चन्द्रगुप्त को वैराग्य उत्पन्न हो गया। उसने 298 ई. पूर्व अपना राज्य ‘बिन्दुसार’ को सौंप दिया। उसकी गणना भारत के महान सम्राटों में की जाती है। वह भारत का प्रथम ऐतिहासिक सम्राट था। उसका स्थान विश्व इतिहास के सम्राटों की प्रथम पंक्ति में है।

चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन प्रबन्ध

चन्द्रगुप्त न केवल एक महान् विजेता था, अपितु वह महान् शासन प्रबन्धक भी था। उसने जिस शासन व्यवस्था को जन्म दिया, वह मौर्य वंश के अन्त तक शासन का मुख्य आधार बनी रही।

  1. राज्य सिद्धान्त- इस काल तक राजा का अधिकार वंशानुगत हो चुका था तथा दैवीय सिद्धान्त के आधार पर उसका समर्थन किया जाने लगा था, जिसके कारण राजा के अधिकारों में वृद्धि हो गयी थी। अधिकारों में वृद्धि के साथ-साथ कर्त्तव्यों में भी वृद्धि हो गयी थी। इसी कारण राजा को शिक्षा पर अधिक बल दिया जाता था। राजा का कर्त्तव्य राज्य धर्म की स्थापना करना था, जिसका अर्थ राज्य के सभी नागरिकों की अधिक से अधिक उन्नति करना था। एक राजा का कर्तव्य था कि समृद्धि या शक्ति का विस्तार करे और उनके लिए, साम, दाम, दण्ड, भेद आदि तरीकों को इस्तेमाल करे।
  2. राजा के रूप में सजग – राज्य का प्रधान राजा होता था। वह न्याय करने में राज्य का सर्वोपरि अधिकारी था। उसका पद वंशानुगत होता था। कानूनतः उनके अधिकारों की कोई सीमा न थी, परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से राजा लोग स्वेच्छाचारी न थे तथा अपने अधिकारों का प्रयोग अपने मन्त्रियों की सलाह से करते थे। राजा का जीवन बड़ा व्यस्त था। उसके रात और दिन के कार्य आठ भागों में बँटे होते थे। वह राज्य के धन, सेना और न्याय आदि में स्वयं रुचि लेता था।
  3. मन्त्री परिषद् तथा मन्त्री सभा- मैगस्थनीज के अनुसार राजा को परामर्श देने के लिए दो सभा थी। एक मन्त्री सभा और दूसरी मन्त्री परिषद् । मन्त्री सभा के सदस्यों की संख्या तीन से बारह (3-12) हो सकती थी तथा इसके सदस्यों की नियुक्ति राजा द्वारा होती थी। इनमें से किसी एक सदस्य को प्रधानमंत्री भी बनाया जा सकता था। किसी भी विषय पर राजा को सलाह इन सभी लोगों द्वारा एक साथ दी जाती थी। किसी भी महत्वपूर्ण प्रश्न पर मन्त्री सभा में विचार होता था। मन्त्रि-परिषद् बड़ी परिषद् थी, जिसके सदस्यों की संख्या बीस तक होती थी। मौर्य शासन व्यवस्था अत्यन्त सुव्यवस्थित एवं नौकरशाही पर आधारित थी। मन्त्री, पुरोहित, सेनापति, मुख्य न्यायाधीश तथा प्रतिहार (द्वाररक्षक) अन्य प्रमुख केन्द्रीय अधिकारी थे। प्रशस्ता (पुलिस विभाग का अध्यक्ष), समाहरता (राज्य कर एकत्रित करने वाला), नायक (नगर का प्रमुख अधिकारी), पौर (राजधानी का शासक) आदि अधिकारी भी थे। मौर्य शासन अपनी नौकरशाही की योग्यता तथा वफादारी पर निर्भर करता था।
  4. प्रान्तीय शासन का सुधार- मौर्य साम्राज्य अत्यन्त विशाल था। इसके कारण शासन का विकेन्द्रीकरण करना जरूरी हो गया था। मौर्य साम्राज्य में दो प्रकार के प्रान्त थे। एक वे प्रान्त जो अधीनस्थ शासकों के राज्य थे तथा दूसरे वे राज्य, जो मौर्य सम्राटों के राज्य को विभिन्न हिस्सों में बाँटकर शासन की इकाई के रूप में बनाये गये। चन्द्रगुप्त के समय प्रान्तों में प्रान्तपति के रूप में राजकुमारों की नियुक्ति की जाती थी। उनको कुमार महामात्र के नाम से जाना जाता था। अन्य प्रान्तों के प्रान्तपति को केवल महामात्र पुकारा जाता था। चन्द्रगुप्त के समय कितने प्रान्त थे पता नहीं चलता। प्रान्तीय शासन में महामात्र की सहायता के लिए अनेक पदाधिकारी थे। उनमें युत (कर अधिकारी), प्रादेशिक राजुक (लगान अधिकारी) आदि थे। चन्द्रगुप्त के समय प्रान्त जिलों में बँटे थे, जिले के अधिकारी को स्थानिक कहा जाता था। इनके नीचे गोप नाम का एक अधिकारी था। गाँव शासन की सबसे छोटी इकाई थी। जहाँ ग्रामिक नाम का एक अधिकारी होता था। ग्रामिक की सरकार द्वारा नियुक्ति की जाती थी।
  5. गुप्तचर एवं न्याय व्यवस्था- मौर्यों के समय गुप्तचर व्यवस्था अच्छी थी, उस समय स्त्रियाँ गुप्तचर भी रखी जाती थीं। विदेशों में भी गुप्तचर भेजे जाते थे। चन्द्रगुप्त ने इस व्यवस्था को अधिक महत्व दिया। चन्द्रगुप्त की न्याय व्यवस्था अच्छी थी। साधारण अपराध के लिए भी जुर्माना किया जाता था। इसी कठोर व्यवस्था के कारण अपराध कम होते थे। न्यायालय दो प्रकार के होते थे-केन्द्रीय तथा स्थानीय केन्द्रीय न्यायालयों में दो न्यायालय थे- -एक सम्राट का तथा दूसरा मुख्य न्यायाधीश का मुख्य न्यायाधीश की सहायता के लिए 4 या 5 और न्यायाधीश होते थे। स्थानीय न्यायालय भी तीन प्रकार के थे।
  6. अर्थव्यवस्था पर ध्यान- मौर्यों के समय भूमि कर पैदावार का 1/6 भाग लिया जाता था। बिक्री कर, जंगल कर, मछली कर, सिंचाई कर, चुंगी कर आदि कर भी जनता पर लगाये जाते थे।
  7. नगर शासन – चन्द्रगुप्त के समय नगरों की शासन व्यवस्था अच्छी थी। नगरों को वार्डों में बाँटा गया था। वार्ड का अधिकारी स्थानीय कहलाता था। वार्ड को अनेक भागों में बाँटा गया था। इस भाग में कई परिवारों के मकान होते थे। गोप नामक अधिकारी इनकी देखभाल करता था। नगर की देखभाल के लिए एक बड़ा अधिकारी था, जिसकी सहायता के लिए एक सभा होती थी। नगर शासन की देखभाल एक नगर समिति द्वारा की जाती थी, जिसमें 30 सदस्य होते थे। नगर में सड़क, मन्दिर, तालाब, कुँआ, खेलकूद के मैदान आदि की उचित व्यवस्था थी चन्द्रगुप्त के समय राज्य की ओर से बड़ी-बड़ी सड़कों का निर्माण कराया गया तथा उसके दोनों ओर वृक्ष भी लगवाये गये। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि सड़कों की देखभाल के लिए एक अलग विभाग था ।
  8. सैनिक शासन- चन्द्रगुप्त मौर्य की सेना विशाल तथा शक्तिशाली थी। चन्द्रगुप्त मौर्य ने सेना व्यवस्था की ओर अधिक ध्यान दिया, जिसके कारण सेल्यूकस को परास्त करने के अलावा एक विशाल एवं संगठित साम्राज्य का निर्माण भी कर चुका था चन्द्रगुप्त की सेना के चार अंग थे-पैदल, घुड़सवार, हाथी तथा रथ । चन्द्रगुप्त की सेना में 6,00,000 पैदल, 30,000 घुड़सवार, 9,000 हाथी तथा 8,000 रथ थे। सेना की देखभाल एक परिषद् के द्वारा की जाती थी, जिसके 30 सदस्य होते थे।
  9. लोक कल्याणकारी कार्य– मौर्य ने जनता के कल्याण के लिए लोक हितकारी विभाग की स्थापना की। उसने लोकहित सुरक्षा, सिंचाई, यातायात, जन-स्वास्थ्य व विभाग आदि के लिए कार्य किया।
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गूगल में पुछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)

चंद्रगुप्त मौर्य किस जाति के थे?

बौद्ध साहित्य में वे मौर्य क्षत्रिय कहे गए हैं। महावंश चंद्रगुप्त मौर्य को क्षत्रियों से पैदा हुआ बताता है। दिव्यावदान में बिन्दुसार स्वयं को “मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय” कहते हैं। अशोक भी स्वयं को क्षत्रिय बताते हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना ​​है कि चंद्रगुप्त मौर्य किसी भी जाति से नहीं थे, बल्कि वह एक सामान्य व्यक्ति थे जिन्होंने अपने बल और बुद्धिमत्ता के बल पर मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी।

चंद्रगुप्त मौर्य की कितनी पत्नियां थीं?

चंद्रगुप्त मौर्य की तीन पत्नियां थीं, इनके नाम दुधरा, हेलेना और चंद्रानंदनी था। दूधरा चंद्रगुप्त मौर्य की पहली पत्नी थीं। वह मगध के राजा धनानंद की पुत्री थीं। दुर्धरा से चंद्रगुप्त मौर्य को बिंदुसार नाम का पुत्र हुआ। हेलेना चंद्रगुप्त मौर्य की दूसरी पत्नी थीं। वह यूनानी सेनापति सेल्यूकस निकेटर की पुत्री थीं। हेलेना से चंद्रगुप्त मौर्य को जस्टिन नाम का पुत्र हुआ और चंद्रनंदिनी चंद्रगुप्त मौर्य की तीसरी पत्नी थीं। उनके बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है।

चंद्रगुप्त मौर्य के कितने बच्चे थे?

चंद्रगुप्त मौर्य के तीन पत्नियों से दो पुत्र हुए थे। बिंदुसार चंद्रगुप्त मौर्य का पहला पुत्र था। वह चंद्रगुप्त मौर्य की पहली पत्नी दुर्धरा से उत्पन्न हुआ था। बिंदुसार मौर्य साम्राज्य का दूसरा सम्राट था। जबकि जस्टिन चंद्रगुप्त मौर्य का दूसरा पुत्र था। वह चंद्रगुप्त मौर्य की दूसरी पत्नी हेलेना से उत्पन्न हुआ था।

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