satvahan vansh, satvahan vansh hindi, satvahan vansh ka sasan kal, satvahan vansh ke raja, satvahan vansh ka itihas, satvahan vansh ka shasak kaun tha, satvahan vansh ka antim raja, सातवाहन वंश, सातवाहन वंश का अंतिम शासक, सातवाहन वंश का संस्थापक कौन था, सातवाहन वंश की राजधानी, सातवाहन वंश का इतिहास,

सातवाहन कौन थे और गौतमीपुत्र शातकर्णी का परिचय

सातवाहन कौन थे

आन्ध्र एक जाति का नाम था, जो गोदावरी और कृष्णा नदियों के बीच के भाग पर निवास करती थी। आन्ध्रों की के विषय में कहा जाता है कि विश्वामित्र के वंशजों ने अनार्य स्त्रियों से विवाह कर लिया था, इस विवाह से जो सन्तानें उत्पन्न हुई वे आन्ध्र कहलातीं। आगे चलकर धीरे-धीरे यह एक जाति बन गयी, जिसने बाद में आर्य धर्म और संस्कृति को अपना लिया । आन्ध्र सातवाहनों ने धीरे-धीरे अपनी शक्ति में वृद्धि कर अपना राजनैतिक प्रभुत्व सोलह महाजनपदों के युग में स्थापित कर लिया। चन्द्रगुप्त मौर्य के समय आन्ध्र सातवाहन सैन्य शक्ति बहुत बढ़ गयी थी और बिन्दुसार के समय आन्ध्रों का राज्य मगध के अधीन था। अशोक के राज्य करते समय दक्षिण में आन्ध्रों का राज्य था। इस आन्ध्र जाति में सातवाहन नामक एक राजकुमार हुआ, जिसके वंशज सातवाहन कहलाये। इस प्रकार आन्ध्र एक जाति और सात वाहन एक कुल का नाम था। पुराणों से यह भी पता चलता है कि सातवाहन राजा ब्राह्मण थे, जो मगध पर अपना अधिकार प्राप्त करने से पहले दक्षिण भारत में निवास करते थे।

सातवाहन वंश का प्रादुर्भाव एवं मूल स्थान पुराणों के अनुसार आन्ध्र कण्वों के भृत्य थे। सातवाहन वंश का पहला राजा शिमुख या सिंधुक नामों से जाना जाता है। उसकी राजधानी प्रतिष्ठान अथवा पैठन थी। लगभग 28 ई.पू. में सिन्धुक के कण्व वंश के अन्तिम शासक की हत्या कर मगध में आन्ध्र शक्ति की स्थापना कर दी। उत्तरी भारत में विदेशियों के आक्रमण के समय यहाँ आन्ध्र सत्ता क्षीण हो गयी थी, किन्तु दक्षिण भारत में उनकी शक्ति बनी रही। बाद के काल में पश्चिम में महाराष्ट्र तक आन्ध्रों ने प्रथम सदी ई. पूर्व से लेकर लगभग तीन सौ वर्षों तक राज्य किया, किन्तु तीसरी शताब्दी में आन्ध्र सातवाहन वंश समाप्त हो गया।

आन्ध्र – सातवाहनों के मूल निवास स्थान के विषय में भिन्न-भिन्न मत हैं। कुछ विद्वान दक्षिण में वेलोरी नामक स्थान को एक शिलालेख के आधार पर इनका मूल निवास स्थानमा हैं, कुछ विद्वान इनका मूल निवास स्थान मध्यप्रदेश से लगे हुए दक्षिण भाग को मानते हैं। चूँकि इनकी भाषा तेलुगू न होकर प्राकृत ही थी, अतः इस आधार पर कुछ विद्वान इन्हें महाराष्ट्र से मानते हैं।

सातवाहन वंश के प्रमुख नरेश

आन्ध्र सातवाहन वंश का संस्थापक शिमुख था, जिसने ई. पूर्व 28 में आन्ध्र में सत्ता स्थापित की थी। शिमुख ने कण्वों को पराजित करने के पश्चात् विदिशा में शुग राज्य को भी समाप्त कर दिया था। शिमुख के पश्चात् उसका भाई कृष्ण राजा बना, जिसने राज्य को नासिक तक बढ़ा दिया। इसके पश्चात् शिमुख का पुत्र श्री सातकर्णी राजा बना, जिसने दक्षिण पंथ के कई राजाओं को पराजित कर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। उत्तर भारत में उसने पश्चिम मालवा, विदर्भ आदि को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया। इन जीनों के उपलक्ष्यों में राजसूर्य तथा अश्वमेघ यज्ञ किये। सातकर्णी की मृत्यु के पश्चात् आन्ध्र सातवाहनों की कुशल राजा के अभाव में शक्ति क्षीण हो गयी थी। इसी काल में शक राजाओं ने इनसे महाराष्ट्र जीत लिया। आन्ध्र सातवाहनों की मूल शाखा में 19 राजा हुए जिनमें सर्वाधिक पराक्रमी राजा गौतमी पुत्र शातकर्णी था।

गौतमीपुत्र शातकर्णी का परिचय

आन्ध्र सातवाहन वंश का सर्वाधिक पराक्रमी सम्राट गौतमी पुत्र शातकर्णी था। इसकी विजयों और शासन प्रबन्ध का वर्णन नासिक के गुफालेख में दिया हुआ है। यह अनुमान किया गया है कि गौतमी पुत्र शातकर्णी ने 106 ई.पूर्व से 130 ई. पूर्व तक शासन किया ।

  1. विजयें- गौतमी पुत्र शातकर्णी साम्राज्यवादी नीति में विश्वास रखने वाला तथा महत्वाकांक्षी शासक था। उसने सम्पूर्ण पथ तथा मध्य भारत पर अपना अधिकार कर लिया था। अपने राज्य की सीमा से लगे राज्यों पर आक्रमण कर उसने उन्हें अपने साम्राज्य में मिला लिया। उसके उपरान्त (बम्बई राज्य का उत्तरी भाग), अनूप (मध्यप्रदेश का निमाड़ जिला), सौराष्ट्र, काठियावाड़, मालवा, अवंति आदि राज्यों पर विजय प्राप्त कर अपने अधीन कर लिया। गौतमी पुत्र शातकर्णी ने अपनी विशाल सेना के द्वारा राजा नहपान को हराया। क्षहरात वंश को नष्ट करके महाराष्ट्र पर अधिकार कर लिया। उसके पराक्रम और सैन्य बल से उत्तर– पश्चिम के शक, यूनानी और पल्लव सदैव भयभीत रहते थे। गौतमी पुत्र शातकर्णी के साम्राज्य की सीमाएँ उत्तर में मालवा से लेकर दक्षिण में गोदावरी और कृष्णा के बीच के भू-भाग तक और पूर्व में विदर्भ और निमाड़ से लेकर पश्चिम में कठियावाड़ तक थी। गौतमी पुत्र शातकर्णी उत्तर में विंध्याचल पर्वत से लेकर दक्षिण में त्रानणकार की पहाड़ियों और पूर्वी घाट से लेकर पश्चिम घाट तक का एक क्षेत्र सम्राट माना जाता था। एक विजेता के रूप में उसका सर्वाधिक प्रशंसनीय कार्य शकों को पराजित करना माना जाता है। गौतमी पुत्र शातकर्णी एक महान् प्रशासक भी था।
  2. प्रशासन – गौतमी पुत्र शातकर्णी एक महान् विजेता के साथ ही एक कुशल प्रशासक भी था। वह अपने राज्य का 105 ई. पूर्व से 130 तक के समय में अपने साम्राज्य में शान्ति व्यवस्था बनाये रखने में सफल रहा। वह प्रजा के हितों को सर्वोपरि महत्व देता था और प्रजा के सुख-दुःख में बराबर का भाग लेता था। वह वैदिक धर्म का अनुयायी था और उसने वैदिक धर्म की प्रगति के लिए अपने साम्राज्य में अनेक उल्लेखनीय कार्य किये। महान् विजेता होने के साथ ही वह अत्यन्त दयावान न्यायाधीश भी था। अपराधियों से वह बहुत ही नम्रतापूर्ण व्यवहार करता था, उसकी न्याय व्यवस्था को बहुत बढ़ावा मिला। समाप्त प्राय: वर्ण व्यवस्था को उसने राज्य में पुनर्स्थापित किया।
  3. मूल्यांकन – गौतमी पुत्र शातकर्णी को एक महान् विजेता और कुशल प्रशासक के रूप में सदैव याद किया जायेगा। आन्ध्र सातवाहन वंश का वह एकमात्र ऐसा शासक था, जिसने वंश के खोये हुए वैभव को पुनर्स्थापित कर दिखाया। उसने पराक्रम और रणकौशल से अपने साम्राज्य की सीमाओं का चहुंमुख विस्तार किया। शकों को पराजित किया और यूनानियों और पल्लवों को सदैव भयभीत रखा। उसने अपने राज्य में सदैव शान्ति व व्यवस्था बनाये रखी। समाज सुधार किये और ब्राह्मण धर्म तथा वैदिक धर्म को अत्यधिक प्रोत्साहन दिया। गौतमी पुत्र शातकर्णी के पश्चात् इस वंश का पतन होता चला गया। 
See also  प्राचीन भारत में धार्मिक आंदोलन | नवीन धार्मिक आंदोलनों का उदय

सातवाहनों का सामाजिक सांस्कृतिक विकास

  1. सामाजिक दशा-सातवाहनयुगीन समाज वर्णाश्रम धर्म पर आधारित था । परम्परागत चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) में ब्राह्मणों का स्थान सर्वोपरि था। सातवाहन नरेश स्वयं ब्राह्मण थे। नासिक प्रशस्ति में गौतमीपुत्र को ‘अद्वितीय ब्राह्मण’ कहा गया है जिसने समाज में वर्णाश्रम धर्म को प्रतिष्ठित करने तथा वर्णसंकरता को रोकने का प्रयास किया था। इस समय अनेक नई-नई जातियाँ व्यवसायों के आधार पर संगठित होने लगी थीं। इस काल के समाज की प्रमुख विशेषता शकों तथा यवनों का भारतीयकरण है। अनेक शकों के नाम भारतीकृत मिलते हैं, जैसे धर्मदेव, ऋषभदत्त, अग्निवर्मन् आदि। हिन्दुओं के समान ही वे तीर्थ- यात्रा पर जाते थे, यज्ञों का अनुष्ठान करते थे तथा ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देते थे। यद्यपि सातवाहन नरेशों ने वर्ण संकरता को रोकने का प्रयास किया था फिर भी व्यवहार में अन्तर्जातीय विवाह होते थे। शातकर्णि प्रथम ने अंग कुल की महारठी (क्षत्रिय) की पुत्री नागनिका से तथा पुलुमावी ने रुद्रदामन् की पुत्री से विवाह किया था।समाज में स्त्रियों की दशा अच्छी थी। कभी-कभी वे शासन के कार्यों में भी भाग लेती थी। नागनिका ने अपने पति की मृत्यु के बाद शासन का संचालन किया था। बलश्री ने अपने पुत्र गौतमीपुत्र के साथ मिलकर शासन किया था। सातवाहन राजाओं के नाम का मातृप्रधान होना स्त्रियों की सम्मानपूर्ण सामाजिक स्थिति का सूचक माना जा सकता है। इस समय के अभिलेखों में स्त्रियों द्वारा प्रभूत दान दिये जाने का उल्लेख है। इससे ऐसा लगता है कि वे सम्पत्ति की भी स्वामिनी होती थी। मूर्तियों में हम उन्हें अपने पतियों के साथ बौद्ध प्रतीकों की पूजा करते हुये, सभाओं में भाग लेते हुये तथा अतिथियों का सत्कार करते हुये पाते हैं। उनके सार्वजनिक जीवन को देखते हुये ऐसा स्पष्ट है कि वे पर्याप्त शिक्षित होती थीं तथा पर्दाप्रथा से अपरिचित थी।
  2. राजनैतिक जीवन-सात वाहन काल में राजतन्त्र ही प्रमुख शासन तन्त्र था। शासन की सफलता राजा की व्यक्तिगत योग्यता पर ही निर्भर करती थी। राजा धर्म शास्त्रों में निर्धारित नियमों के अनुसार ही शासन करता था। राजतन्त्र की वंशानुगत प्रथा प्रचलित थी। सात वाहन राजा केवल ‘राजा’ की ही उपाधि धारण करते थे। यद्यपि यह ठीक है कि राजा को विस्तृत अधिकार प्राप्त थे और वह प्रशासन का सर्वोत्तम तथा युद्ध में सेनापति होता था, परन्तु उसे धर्म नियमों के आधार पर चलाना होता था। राजा के ज्येष्ठ पुत्र ‘युवराज’ बनाया जाता था, परन्तु वह देश के प्रशासन में योग नहीं दे सकता था। अन्य कुमारों को राजा का प्रतिनिधि (वायसराय) नियुक्त किया जाता था। सामन्तों के अधीन रहने वाले प्रदेशों को छोड़कर शेष समस्त साम्राज्य को ‘जनपदों’और ‘आहारों’ का नाम मुख्य कार्यालय के आधार पर रखा जाता था और वहाँ के गवर्नर को ‘आमच’ कहते थे। उनका पद कुलानुगत नहीं होता था और समय-समय पर उनका स्थानान्तरण होता रहता था। इसके अतिरिक्त शासन के प्रबन्ध के लिए अन्य अधिकारी होते थे यथा’महातरक’, ‘भाण्डारागारिक’, ‘हैराणिक’, ‘महामात्र’, ‘निबन्धकार’, ‘प्रतिहार’ और ‘दूतक’ । सात वाहन युग में राज्य की आप अधिक नहीं थी। करों की संख्या बहुत कम थी। राज्य की आय शाही जायदाद, भूमिकर, नमक कर और आयात-निर्यात से होती थी।
  3. आर्थिक जीवन-सात वाहन काल में दक्षिण भारत की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी। कृषि के अतिरिक्त नाना प्रकार के उद्योग एवं व्यापार प्रचलित थे। व्यापारियों की अलग-अलग श्रेणियाँ बनायी गयी थीं। इन श्रेणियों का संगठन सात वाहन युग की बहुत बड़ी विशेषता है। कई श्रेणियों के उल्लेख प्राप्त होते हैं। अन्न विक्रेताओं, जुलाहों, तेलियों, कांसे के बर्तन बनाने वालों, बांस की वस्तुएँ बनाने वालों, मछुओं, लोहारों, किसान आदि की विभिन्न श्रेणियाँ थीं, जो उत्तर-भारत और दक्षिण भारत दोनों में प्रचलित थे। ये श्रेणियाँ आधुनिक बैंकों का काम करती थी। लोग इनमें रुपया जमा करते थे और इनसे ब्याज प्राप्त करते थे। बहुधा उनमें आजीवन सम्पत्ति चढ़ा दी जाती थी, जिसे ‘अजय निधि’ कहा जाता था।सातवाहन काल में भारत का व्यापार उन्नत दशा में था। भड़ौच, कल्याण और सोपारा व्यापारिक बन्दरगाह थे। यहाँ से विदेशों को बहुत अधिक माल भेजा जाता था। देश के अन्दर नासिक, जूनार, प्रतिष्ठान धनकट, करहाटक आदि प्रमुख व्यापारिक नगर थे। ये समस्त नगर एक-दूसरे से सड़कों द्वारा जुड़े हुए थे। सात वाहन युग में मुद्राओं का बहुलता से प्रचलन हुआ था। अनेक प्रकार के सिक्के प्रचलित थे। सबसे अधिक मूल्य के सिक्के सोने के होते थे, जो स्वर्ण कहे जाते थे। इनका मूल्य चाँदी के 35 ‘आर्षाषण’ के तुल्य होता था। ‘कुषण’ चाँदी का बना हुआ एक अन्य प्रकार का सिक्का होता था। चाँदी और ताँबे के छोटे सिक्के दैनिक व्यवहार में प्रयुक्त होते थे। – इनको कार्षापण कहा जाता था। सातवाहन काल में रुपया उधार देने और लेने की प्रथा भी प्रचलित थी। उषवदात की दो निकायों की ‘अक्षय नीवि’ में एक पर 12 प्रतिशत और दो पर 9 प्रतिशत वार्षिक ब्याज प्राप्त होता था। आधुनिक ब्याज की दर से इसकी तुलना करने पर यह प्रतीत होगा कि ब्याज की दर बहुत अधिक थी। यह स्पष्ट करता है कि स्थिति अच्छी और लोग धन जमा करने में नहीं, वरन् उसके व्यय करने में अधिक विश्वास करते थे।
  4. भाषा तथा साहित्य – सातवाहन काल में महाराष्ट्री प्राकृत भाषा दक्षिणी भारत में बोली जाती थी। यह राष्ट्रभाषा थी। सातवाहनों के अभिलेख इसी भाषा में लिखे गये हैं। सातवाहन नरेश स्वयं विद्वान, विद्या-प्रेमी तथा विद्वानों के आश्रयदाता थे। हाल नामक
See also  भारत का सबसे बड़ा राज्य | bharat ka sabse bada rajya

राजा एक महान् कवि था जिसने ‘गाथासप्तशती’ नामक प्राकृत भाषा के शृंगार रस प्रधान गीति काव्य की रचना की थी। इसमें कुल 700 आर्या छन्दों का संग्रह है जिसका प्रत्येक पद्य अपने- आप में पूर्ण तथा स्वतन्त्र है। इस प्रकार इसके पद्य मुक्तक काव्य के प्राचीनतम उदाहरण हैं। हाल के दरबार में गुणाढ्य तथा शर्ववर्मन् जैसे उच्चकोटि के विद्वान् निवास करते थे। गुणाढ्य ने ‘बृहत्कथा’ नामक ग्रन्थ की रचना की थी। यह मूलत: पैशाची प्राकृत में लिखा गया था तथा इसमें करीब एक लाख पद्यों का संग्रह था। परन्तु दुर्भाग्यवश यह ग्रन्थ आज हमें अपने मूल रूप में प्राप्त नहीं है। इस ग्रन्थ में गुणाढ्य ने अपने समय की प्रचलित अनेक लोक कथाओं का संग्रह किया है। अनेक अद्भुत यात्रा-विवरणों तथा प्रणय प्रसंगों का इस ग्रन्थ में विस्तृत विवरण मिलता है। शर्ववर्मन् ने ‘कातन्त्र’ नामक संस्कृत व्याकरण ग्रन्थ की रचना की थी। बृहत्कथा के अनुसार ‘कातन्त्र’ की रचना का उद्देश्य हाल को सुगमता से संस्कृत सिखाना था। इसकी रचना अत्यन्त सरल शैली में हुई है। इसमें अति संक्षेप में पाणिनीय व्याकरण के सूत्रों का संग्रह हुआ है।

Keyword-satvahan vansh, satvahan vansh hindi, satvahan vansh ka sasan kal, satvahan vansh ke raja, satvahan vansh ka itihas, satvahan vansh ka shasak kaun tha, satvahan vansh ka antim raja, सातवाहन वंश, सातवाहन वंश का अंतिम शासक, सातवाहन वंश का संस्थापक कौन था, सातवाहन वंश की राजधानी, सातवाहन वंश का इतिहास,

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *