एक बार राजा जनक ने ज्ञान प्राप्ति के लिए दुनिया भर से कई ज्ञानीजनों को अपने दरबार में आमंत्रित किया। इन सभी ज्ञानिजनों मे से एक अष्टावक्र भी थे, वें आठ जगहों से टेढ़े-मेढ़े थे।दरबार मे जैसे ही उन्होने प्रवेश किया उन्हें देखकर सभा के सभी सभासद हंसने लगे।
अष्टावक्र उन सभी को हँसता देख कर खुद भी ज़ोर ज़ोर से हसने लगे। जनक जी ने जब उन्हे हस्ते देखा तो उन्हे बहुत ही ताज्जुब हुआ और जनक जी ने अष्टावक्र जी से उनके हसने का कारण पूछा?
तब परम ज्ञानी अष्टावक्र जी ने जनक से कहा की मैं इसलिए हंसा क्योंकि मैं गलत सभा में आ गया हूं। मुझे सूचना मिली थी कि इस सभा मे ज्ञानीजनों की सभा लगाने वाली है, लेकिन लगता हैं की यहां पर तो सिर्फ चर्मकार ही बैठे हैं, जो व्यक्ति के ज्ञान का नहीं, अपितु उसके शरीर की बनावट का मूल्यांकन करते हैं।
यह सुनकर सभी सभासदों के सिर लज्जा से झुक गए। जनक को भान हो गया कि अष्टावक्र ही उनके गुरु हो सकते हैं, इसलिए राजा जनक उन्हें गुरु मानकर, उनके चरणों में झुक गए तो अष्टावक्र बोले की अगर आप मुझे अपना गुरु बनाना चाहते हैं तो सबसे पहले आप को गुरु दक्षिणा देनी होगी।
यह सुनकर राजा जनक जी ने बोला की हे ऋषिवर आप गुरु दक्षिणा के रूप मे मेरा सारा खजाना ले ले, यह सुन कर अष्टावक्र हंसे और बोले की राजन राजकोष तो प्रजा का है आपका नहीं उसमे कोई अधिकार नहीं हैं।
राजा जनक ने कुछ देर सोचा फिर उन्होने बोला – “तो फिर आप मेरा राज्य ले लीजिए।’
यह सुनकर अष्टावक्र बोले – “नहीं राजन, राज तो अनिश्चय है और अनिश्चय पर किसी का अधिकार नहीं रहता।”
राजा जनक बोले – “मैं अपना शरीर आपके सम्मुख समर्पित करता हूं।”
आष्टावक्र बोले – “शरीर तो मन के अधीन है, राजन, भला मैं उसे लेकर क्या करूंगा?”
राजा जनक ने कहा – “तो आप मेरा मन ही ले लीजिए।”
अष्टावक्र ने यह सुना तो वह खुश हुये और उन्होने राजा जनक से संकल्प करवा कर राजा जनक का मन ले लिया और कहा – “अब तुम्हारे मन की समस्त गतिविधियां पर मेरा अधिकार है। इसे मुझे समर्पित करके, अब तुम्हें वही कार्य करना होगा जो मैं कहूँगा।”
राजा जनक ने एक सप्ताह तक गुरु आज्ञा का पालन किया तो उन्हें अनुभव हो गया कि उनके अंदर निरासक्त भाव पनप रहा है। अष्टावक्र की इस छोटी सी शिक्षा ने उन्हें आत्मज्ञान का अधिकारी बना दिया।
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