एक बूढ़ा था। उसके दो बेटे थे। प्यार से वह छोटे को छुटकू अब बड़े को बड़कू कहता था। दोनों बड़े आलसी और निकम्मे थे। अपनी पत्नियों के साथ निठल्ले बैठे रहते, लेकिन बूढ़े के काम में हाथ न बंटाते। छोटा लड़का बड़े पर काम का दबाव डालता और बड़ा छोटे पर। अपने बेटों की लड़ाई देख बूढ़ा बहुत दुखी था। गांव वालों ने उसे समझाया- दोनों को खेत बाँट दो, अपना-अपना पेट भरने के लिए उन्हें अवश्य मेहनत करनी पड़ेगी। बुढ़े ने वैसा ही किया। उसके पास एक बड़ा खेत था। उसने आधा-आधा दोनों को बाँट दिया। अब उनके आगे परिश्रम करने के अलावा कोई चारा न था। बूढ़ा एक महीने छुटकू के साथ खाना खाता और एक महीने बड़कू के साथ।
थोड़े दिन वे अपने बूढ़े पिता को खाना खिलाते रहे, परंतु कुछ दिनों बाद खाना परोसते समय उनकी पत्नियां नाक-भौं सिकोड़तीं और कहती- ‘ऐसे कब तक खिलाएंगे इस बुड्ढे को? दिनभर बैठा-बैठा खाट तोड़ता है और रोटियां हजम करता है।’
बहुओं के तानों को सुनने के अलावा बूढ़े के पास और कोई चारा भी तो न था। वह चुप रहकर सब सहता।
एक दिन दोपहर हो गई, किसी ने उसे खाना नहीं दिया। वह भूख से बिलबिलाता हुआ बोला- “खाना दे दो बहू।”
“आज खाना नहीं बचा है, शाम को खा लेना।” बहू का ऐसा रुखा जवाब सुनकर वह दूसरी बहू के पास गया उससे खाना मांगा, तो वह बोली- “इस महीने बड़ी के साथ खा रहे हो, मेरी बारी तो अगले महीने आएगी।”
बूढ़े ने घर छोड़ने का फैसला कर लिया। गाँव के कुंए पर जाकर उसने पेट भर पानी पिया और डंडा टिकाता हुआ दूसरे गाँव चला गया। लोगों का छोटा-मोटा काम करके वह पेट भरने लगा। धीरे-धीरे एक वर्ष बीत गया। उसे अपने बेटों का हाल जानने की उत्सुकता हुई तो वह पुनः अपने गाँव आ गया।
बूढ़े को इतने दिनों बाद देखकर उसके बेटों और बहुओं को बहुत आश्चर्य हुआ। बड़ी बहू ने उसे गौर से देखा। उसकी नजर कमर में लटकी थैली पर अटक गई। वह सोचने लगी, मजदूरी करके लौटा है बुड्ढा। इसकी पोटली रुपयों पैसों से भरी है। झट घूंघट काढ़ आगे बढ़कर बोली- “कहाँ चले गए थे पिताजी… आइए, बैठिए… भोजन कर लीजिए।” छोटी बहू ने जब यह सुना तो उसे बड़ी तसल्ली हुई। वह सोचने लगी, अच्छा हुआ, मेरे घर आकर नहीं बैठे, वरना कौन करता बुड्ढे की सेवा।
छुटकू की नजर थैली पर कुछ देर से पड़ी। उसने यह बात अपनी पत्नी को बताई और बोला, “देख, कल पिताजी को अपने घर बुला लाना। प्रेम से उनका दिल जीतने की कोशिश करना, वरना बड़कू बहुत चालाक है, उसकी पत्नी भी बहुत चतुर है। पूरी थैली हजम कर जाएंगे, वे दोनों।”
छुटकू, बड़कू वे दोनों बुढ़े की सेवा करने लगे। दोनों बहुएं खाने-पीने का ध्यान रखने लगीं। बूढ़ा उस थैली को कभी अपनी कमर से अलग न करता। सोते समय भी अपने तन से चिपकाए रखता। उसके बेटे और बहू की नजर उस पोटली पर अटकी रहती।
एक दिन बुढ़े की मृत्यु हो गई। छुटकू और बड़कू को पिता की मौत का गम नहीं था परंतु दोनों को थैली खोलने की जल्दी पड़ी थी, जो मृत बूढ़े की कमर से बंधी थी।
बड़कू ने थैली खोलनी चाही।
छुटकू बिगड़ पड़ा। दोनों थैली पर अलग-अलग हक जताने लगे।
गांव वाले शोर सुनकर आ गए। उन्होंने उन्हें लड़ने से रोका और कहा कि थैली के धन को तुम दोनों आधा-आधा बांट लो, लड़ क्यो रहे हो? गांव के सरपंच ने थैली को खोला तो सभी दंग रह गए। उसमें मिट्टी, कंकड़, पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़े पड़े थे। छुटकू, बड़कू एवं उनकी पत्नीयां गाँव वालों के सामने मुंह लटकाए खड़े थे और थैली में भरे उन कंकड़, पत्थरों को देख रहे थे।
सरपंच बोला- “मूर्खों! तुम्हारा पिता एक अच्छा इंसान था। परंतु तुम्हारे दुर्व्यवहार ने उसे यह कपट भरी थैली बांधने को मजबूर कर दिया। तुमने जो बुरा व्यवहार उसके साथ किया था, उसका फल तुम्हें मिल गया। उठो और अपने पिता के अंतिम संस्कार की तैयारी करो।”