एक बार गाँव के सबसे धनी सेठ ने गाँव मे एक बहुत बड़ा मंदिर बनवाया। मंदिर का निर्माण पूरा होने के बाद मंदिर को भक्तो के लिए खोल दिया गया तो बहुत से दर्शनार्थी मंदिर में दर्शन लाभ के लिए पहुँचने लगे। मंदिर की वैभव और भव्यता को देख भक्त मंदिर की सुंदरता का गुणगान करते हुये थकते नहीं थे।
समय बीतता गया और इस दौरान मंदिर की गिनती जाने माने मंदिरों में होने लगी और दूर दूर के देशो से लोग मंदिर दर्शन के लिए पहुँचने लगे।
भक्तो की बढ़ती भीड़ को देख गाँव के उस अमीर व्यक्ति ने मंदिर में भक्तो के लिए भोजन और ठहरने के लिए व्यवस्था कर दी।
लेकिन सेठ को जल्दी ही अहसास हो गया की व्यवस्था के लिए किसी व्यक्ति को नियुक्त करना होगा, जो मंदिर की सभी तरह की व्यवस्थाओं का देखरेख करे और मंदिर की व्यवस्था बनाए रखे।
सेठ ने अगले ही दिन मंदिर के बाहर एक व्यवस्थापक की आवश्यकता के लिए सूचना लगा दिया। सूचना को देखकर कई लोग सेठ के पास व्यवस्थापक बनने की इच्छा के साथ आने लगे। लोगों को पता था की यदि मंदिर में व्यवस्थापक का काम मिल जाएगा, तो वेतन भी बहुत अच्छा मिलेगा।
लेकिन वह सेठ सभी से मिलने के बाद उन्हें वापस लौटा देता और सभी गो से यही कहता की, “मुझे व्यवस्थापक कार्य के लिए एक सुयोग्य आदमी की खोज हैं, जो मंदिर की सही से देखरेख कर सके।”
बहुत से लोग मुह लटकाए वापस लौट आते और उस सेठ को मन ही मन गलियां देते। कुछ लोग सेठ मुर्ख और पागल समझते थे। लेकिन सेठ सब की बाटो को अनसुना कर देता था। मंदिर के व्यवस्थापक की खोज मे सेठ पूरी मेहनत के साथ दिन-रात लगा हुआ था।
वह व्यक्ति रोज सुबह अपने घर की छत पर बैठकर मंदिर में आने वाले दर्शनार्थियों को देखा करता।
एक दिन की बात हैं की एक बहुत ही गरीब व्यक्ति मंदिर में आया और भगवान के दर्शन के बाद पुजा अर्चना करने लगा। धनी व्यक्ति अपने घर की छत पर बैठा यह सब देख रहा था। सेठ ने देखा की वह गरीब फटे हुए और मैले कपडे पहने हुये था। हालांकि पुजा-पाठ के तरीके से और बोलचाल से पढ़ा लिखा भी नहीं लग रहा था।
जब वह भगवान् का दर्शन करके जाने लगा, तो उस धनी व्यक्ति ने उसे अपने पास बुलाया और कहा, “क्या आप इस मंदिर की व्यवस्था सँभालने का काम करेंगे।”
सेठ की यह की बात सुनकर वह काफी आश्चर्य में पड़ गया और हाथ जोड़ते हुए सेठ से बोला, “सेठ जी, मैं तो बहुत गरीब आदमी हूँ और पढ़ा लिखा भी नहीं हूँ। इतने बड़े मंदिर का प्रबंधन मैं कैसे संभाल सकता हूँ।”
सेठ ने उस गरीब की ओर मुस्कुराते कर देखा और कहा, “मुझे मंदिर की व्यवस्था के लिए कोई विद्वान पुरुष नहीं चाहिए, मैं तो किसी योग्य व्यक्ति की तलस मे था जिसे इस मंदिर के मैनेजमेंट की ज़िम्मेदारी देना चाहता हूँ।
“यहा रोज कई लोग आते हैं लेकिन इतने सब श्रद्धालुओं में आपने मुझे ही योग्य क्यों माना” गरीब ने सेठ से आश्चर्य से पूछा।
सेठ ने बोला, “मुझे पता हैं की आप एक योग्य व्यक्ति हैं। मैंने मंदिर के रास्ते में कई दिनों से एक ईंट का टुकड़ा गाड़ा हुआ था। उस ईंट का एक कोना ऊपर से निकल आया था। मैं कई दिनों से देख रहा था, कि उस ईंट के टुकड़े से कई लोगों को ठोकर ख कर गिर जाते हैं लेकिन किसी भी व्यक्ति ने उस ईंट के टुकड़े को वहां से हटाने कि कोशिस नहीं की न ही उसके बारे मे सोचा।
लेकिन आप एकमात्र वह व्यक्ति हैं जिसे उस ईंट के टुकड़े से ठोकर नहीं लगी परंतु फिर भी आपने उसे देखकर वहां से हटाने की सोची।
मैं यह सब अपने घर की छत से देख रहा था की आप मजदूर से फावड़ा लेकर गए और उस टुकड़े को खोदकर वहां की भूमि समतल कर दी।
सेठ की बात सुनकर गरीब व्यक्ति ने कहा, “यह कार्य कोई महान कार्य नहीं है, दूसरों के बारे में सोचना और रास्ते में आने वाली कठिनाइयो और रुकवाटो को दूर करना तो हर आदमी का कर्त्तव्य होता है। मैंने तो बस वही किया जो मेरा कर्त्तव्य था।
सेठ ति ने मुस्कुराते हुए कहा, “अपने कर्तव्यों को जानने और उनका पालन करने वाले लोग ही योग्य लोग होते हैं।” इतना कहकर धनी व्यक्ति ने मंदिर प्रबंधन की जिम्मेदारी उस व्यक्ति को सौंप दी।
कोई हमे नहीं देख रहा हो तो भी हमे अपना कर्त्तव्य नहीं भूलना चाहिए..!!
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