यह कहानी अनिल जायसवाल जी के फेसबुक से ली गई हैं जिसे शायद उन्होने 12-08-20 को लिखा हैं।
“ओ देबू, उठ न। कल 15 अगस्त है, आज चौराहे के पास खाना और सामान बंटेगा।” राजू ने झिंझोड़ते हुए देबू को उठाने का प्रयास किया।
देबू ने आंखें खोलीं। दिन चढ़ने लगा था। फुटपाथ पर सोते-सोते सात साल के देबू की कमर अकड़ने लगी थी। रात को बारिश आने से उसे मेट्रो के एक पिलर के बेस पर सोना पड़ा था, ठंड के मारे ठीक से नींद भी न आई थी।
देबू उठकर खड़ा हो गया। एक महीने पहले उसका पूरा परिवार था, मां, बाप और बड़ा भाई। सब वहीं फुटपाथ पर रहते थे। कहीं कोई रैली थी, तो सब को वहां जाने के पैसे मिले थे। देबू को उस दिन बुखार था, तो वह कमला चाची के पास रह गया था। पर वहां रैली के बाद दंगा फूट पड़ा था। अगले दिन कोई जीवित न लौटा। इस तरह मां का लाडला दिवाकर पहले अनाथ हुआ , फिर उसका नाम भी सिकुड़कर देबू हो गया। अब वह कमला चाची के साथ चौराहे पर भीख मांगता, फिर जो मिलता, खाकर फुटपाथ पर ही सो जाता।
अब कल 15 अगस्त था। देबू को चौराहे पर हलचल देख कुछ आस बंधी। वह भी राजू के साथ जाकर लाइन में लग गया। स्थानीय नेता जी स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर गरीबों में खाना और गिफ्ट बंटवाने वाले थे। प्रोग्राम कवर करने के लिये कैमरे के साथ कुछ लोग अपनी पोजीशन संभाल चुके थे।
नेता जी आ गए थे। उनके हाथों से पूरी, आलू के सब्ज़ी और हलवा बंटने लगा। देखकर ही देबू के मुंह में पानी आ गया। जब तक उसकी बारी आई, नेता जी थककर एक कुर्सी पर जा बैठे थे और वहीं से संचालित कर रहे थे। उनके बदले बांटने वाले ने देबू की तरफ देखा। मैले-कुचैले बच्चे को देख, उसने थाली की चार पूरियों में से दो पूरियां निकालकर डिस्पोजेबल थाली देबू की तरफ बढ़ा दी।
“और दो न। मुझे भी भूख लगती है।” देबू दो पूरियां देखकर सहमे स्वर में बोला।
नेता जी के कानों में देबू की आवाज पड़ी। उन्होंने इशारा किया तो उस आदमी ने चार और पूरियां देबू की थाली में डाल दी।
देबू का चेहरा खिल उठा। वह वही पास में जमीन पर बैठ गया और चटखारे लेकर दावत उड़ाने लगा। छह पूरियां खाकर उसका नन्हा पेट तो भर गया, पर नीयत नहीं भरी। वह उठकर फिर से वहीं मंडराने लगा, जहां खाना बंट रहा था।
नेता जी की नजर उस पर पड़ी। उसे पास बुलाया, पूछा, “और पूरी चाहिए?”
मन होते हुए भी देबू का सिर न में हिलने लगा। जब नेता जी औरों से बात करने में व्यस्त हो गए, तब देबू ने आसपास का मुआयना किया। बांटने के लिए छोटे-छोटे पैकेट रखे थे। दो लड़के हाथ में बड़ा तिरंगा डंडे में लगाकर लहराते हुए भारत माता के जय नारा लगाते हए लोगों में जोश भर रहे थे।
देबू की नजरें बड़े से झंडे पर टिक गई। और इधर नेता जी देबू को ही देख रहे थे। उन्हें लगा, देबू गिफ्ट की तरफ देख रहा है। उन्होंने इशारे से फोटोग्राफर को बुलाया। फिर अपने आदमी से एक गिफ्ट लाने को कहा।
फोटोग्राफर को दिखाते हुए उन्होंने देबू को बुलाकर गिफ्ट दिया। देबू ने गिफ्ट तो थाम लिया, पर उसकी निगाहें झंडे पर ही टिकी रहीं। फिर उसके मुंह से निकला,”कितना बड़ा है।”
अब नेता जी की समझ आ गया कि देबू का ध्यान तो झंडे पर है। उन्होंने मुस्कुराकर पूछा, “झंडा चाहिए तुम्हें?”
देबू का सिर जोर-जोर से हां में हिलने लगा।
“देखा, इसे कहते हैं देशभक्ति। एक भिखारी भी तिरंगा थामना चाहता है। मैंने अपने क्षेत्र में सबका ध्यान रखा है और उन्हें राष्ट्रभक्ति की ओर मोड़ा है।” गर्व से नेता जी ने पत्रकारों को बताया। फिर अपने आदमी को बुलाकर तिरंगा उसके हाथ से लेकर देबू को पकड़ा दिया।
“तुम्हें तिरंगे से कैसे और कब प्यार हुआ? तुम तिरंगा क्यों लहराना चाहते हो?” एक पत्रकार ने देबू से पूछा।
अब इस भारी भरकम सवाल का जवाब एक सात साल का बच्चा क्या देता? वह तिरंगा को कसकर पकड़े खड़ा रहा।
एक दूसरे पत्रकार ने आसान सवाल पूछा, “तुम इतने बड़े झंडे का क्या करोगे?”
“मैं।” देबू की समझ में अब सवाल आया। वह चहकते हए बोला, “मेरे पास न बिछाने के लिए और न ओढ़ने के लिए चादर है। यह इतना बड़ा है कि मैं उसे बिछाकर लेट जाऊंगा और ओढ़ भी लूंगा। मुझे कम ठंड लगेगी। इसका डंडा रात को कुत्तों को भगाने के काम आएगा।” कहते हुए डेब्यू खुशी से झंडा लहराने लगा।